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Saturday, 23 November, 2024
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PM मोदी 21वीं सदी के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, उन्हें इतिहास में अपने स्थान की चिंता नहीं

दक्षिण भारत में नरेंद्र मोदी का वर्चस्व नहीं चलता. जब तक बीजेपी की अगली जीत का चरित्र अधिक राष्ट्रीय नहीं होगा, हिंदी बेल्ट बनाम बाकी वाली समस्या आगे बढ़ती रहेगी.

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जैसे-जैसे 2023 खत्म होने वाला है, हमने क्या सीखा है? राजनीति कैसी रही है और आने वाले साल में हमें क्या उम्मीदें करनी चाहिए? यहां कुछ विचार पेश हैं, बिना किसी विशेष क्रम के.

नरेंद्र मोदी

अगर किसी को संदेह था कि प्रधानमंत्री मोदी 21वीं सदी के सबसे लोकप्रिय भारतीय राजनेता हैं, तो यही वो साल था जिसने इसका समाधान कर दिया.

जैसा कि छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों से स्पष्ट हो गया है, हिंदी बेल्ट में मोदी को कोई नहीं हरा सकता है. यह देखते हुए कि हिंदी बेल्ट में कितनी सीटें हैं — किसी भी अप्रत्याशित या अप्रत्याशित घटनाक्रम को छोड़कर — वह 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद भी प्रधानमंत्री बने रहेंगे.

जो लोग मानते थे कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के तीसरे कार्यकाल के दौरान, मोदी अपनी शैली बदल देंगे और भारत पर मजबूत पकड़ बनाए रखने के बजाय इतिहास में अपनी जगह के बारे में अधिक चिंतित रहेंगे, वो गलत हो सकते हैं. जिस तरह से विपक्ष को संसद से बाहर किया गया, भारत के लिए दूरगामी परिणाम वाले विधेयकों पर कोई गंभीर बहस नहीं होने दी गई, पता चलता है कि मोदी पहले से ही इतिहास में अपनी जगह को लेकर आश्वस्त हैं और अपने आलोचकों के प्रति धैर्य खो रहे हैं. इसलिए, अपने तीसरे कार्यकाल में मोदी से नरम, सज्जन व्यक्ति की उम्मीद न करें. वह और अधिक वैसे ही रहेंगे.


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बड़ा विभाजन

मोदी राष्ट्रीय स्तर पर चाहे जितने लोकप्रिय हों, इसमें कोई संदेह नहीं है कि शेष भारत में उनकी अपील हिंदी क्षेत्र में उनके वर्चस्व से मेल नहीं खाती है.

उन्होंने पश्चिम बंगाल में 2021 के चुनाव अभियान में अपना सब कुछ झोंक दिया, केवल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भारी मतों से जीतते देखने के लिए. उन्होंने 2023 में लगातार कर्नाटक का दौरा किया ताकि बीजेपी को हार का सामना करना पड़े. दक्षिण भारत में न तो मोदी और न ही उनकी पार्टी की कोई खास अहमियत है और पंजाब उनकी अपील से पूरी तरह अछूता रहा है. वे महाराष्ट्र में काफी अच्छा प्रदर्शन करते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश जैसा उत्साह नहीं जगा पाते.

आमतौर पर भारत पर वही शासन करता है, जो हिंदी पट्टी पर राज करता है. हम भूल जाते हैं कि 1977 में जनता पार्टी भारी बहुमत से जीती थी, जिसका आधार ज्यादातर हिंदी क्षेत्र में मिली जीत थी. इंदिरा गांधी ने दक्षिण का अधिकांश भाग जीता था. यहां तक कि जब 1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की हार हुई, तो इसका कारण यह था कि उसने हिंदी क्षेत्र को खो दिया था; दक्षिण भारत में यह ठीक रहा था.

अच्छा हो या बुरा, जनसंघ के दिनों से ही भाजपा को हिंदी पट्टी की पार्टी के रूप में देखा जाता रहा है. मोदी के नेतृत्व में बदलाव की उम्मीद थी कि भाजपा दक्षिण और पूर्व में जीत हासिल करने के लिए बदलाव करेगी.

भाजपा असम में सफल रही है और कर्नाटक में इसकी उपस्थिति मोदी से पहले की है, लेकिन हिंदी पट्टी की पार्टी की धारणा अभी दूर नहीं हुई है. जब आपके पास पूर्ण अधिकार है और मोदी का अधिकार पूर्ण नहीं तो कुछ भी नहीं है – और आपकी पार्टी अपना अधिकांश समर्थन केवल एक क्षेत्र से प्राप्त करती है, तो क्षेत्रीय असंतोष तो पनपेगा ही. जब तक भाजपा की अगली संसदीय जीत अधिक राष्ट्रीय नहीं होगी, हिंदी बेल्ट बनाम बाकी मुद्दा आने वाले वर्षों में एक समस्या हो सकती है.


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कांग्रेस

अब यह साफ हो गया है कि कांग्रेस चाहे कुछ भी कर ले, उसे नहीं पता कि मोदी का विरोध कैसे किया जाए. मोदी की ईमानदारी पर हमला करने, गरीबों पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक हिंदू विरोधी पार्टी के रूप में अपने व्यंग्य से लड़ने की कोशिश करने से लेकर, भाजपा पर भारत को विभाजित करने का आरोप लगाने तक, कईं तरह के हथकंडे अपनाए हैं.

लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर कुछ भी काम नहीं हुआ है.

इसका अधिकतर दोष आमतौर पर राहुल गांधी को दिया गया है और हालांकि, यह सच है कि गांधी ने अक्सर गलतियां की हैं — पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना और फिर एक अतिरिक्त-संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में बने रहना, ‘चौकीदार चोर है’ अभियान को आगे बढ़ाना, पंजाब को उपहार में देना आदि — अब यह स्पष्ट है कि कांग्रेस की समस्याएं व्यक्ति विशेष से परे हैं.

बीते कईं साल से लोग कह रहे थे कि कांग्रेस एक परिवार पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करती है. सुझाव दिया गया कि पार्टी के कई सक्षम वरिष्ठ नेताओं को कार्यभार संभालने दें, पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी.

खैर, अब बिल्कुल वैसा ही हुआ है. मल्लिकार्जुन खरगे पूर्ण रूप से पार्टी अध्यक्ष हैं और राज्य चुनावों के लिए अभियान वरिष्ठ नेताओं द्वारा चलाया गया था. मध्य प्रदेश में कमल नाथ और दिग्विजय सिंह, राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, आदि. और अंदाज़ा लगाइए कि क्या हुआ?

तो हां, कांग्रेस के पास एक गंभीर समस्या है और मुझे नहीं लगता कि किसी को पता है कि इसका समाधान क्या है.


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विदेश नीति

पाकिस्तान याद है? जिस देश ने भारत के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा किया, जहां सरकार के सभी आलोचकों को चले जाने को कहा गया, उसके बारे में इन दिनों शायद ही बात की जाती है. यह मज़ेदार है, है ना?

यहां तक कि बीजेपी समर्थकों ने भी इससे तौबा कर ली है. ‘पाकिस्तान चले जाओ’ अब किसी भी आलोचना के लिए पार्टी के वफादारों की मानक प्रतिक्रिया नहीं है और सरकार ने हर चीज़ के लिए पाकिस्तान पर दोष मढ़ना बंद कर दिया है.

ऐसा क्यों? क्या रिटर्न में कमी आ गई? क्या पाकिस्तान को कोसने से घरेलू राजनीति में अब उतना लाभ नहीं मिलेगा? क्या भारतीय पाकिस्तान को एक बड़े खतरे के रूप में देखने के इच्छुक नहीं हैं? क्या नई दिल्ली पाकिस्तान, विशेषकर कश्मीर के साथ हमारे विवादों पर बहुत अधिक अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहती?

मुझे नहीं पता कि इसका कारण क्या है, लेकिन यह सच है कि भाजपा ने अपना ध्यान केंद्रित कर लिया है.

चीन के साथ भी ऐसा ही है. मोदी शासन के शुरुआती वर्षों में सरकार ने चीनियों से दोस्ती करने की कोशिश की. अब, वह आशा धराशायी हो गई है और हमने चतुराई से खुद को चीनी प्रभुत्व के खिलाफ पश्चिम की आखिरी ढाल के रूप में दोबारा स्थापित कर लिया है.

यह दृष्टिकोण हमारे लिए उपयुक्त है क्योंकि हम इससे कहीं अधिक (ठीक है, लगभग) प्राप्त कर सकते हैं. चीनियों को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो वैसे भी हमें ज़्यादा पसंद नहीं करते और सीमा पर हमारा सामना करते रहते हैं.

हालांकि, सीमा पर चीनियों को सफलतापूर्वक रोकने में हमारी असमर्थता को विफलता माना जाना चाहिए, मोदी-जयशंकर युग में हमारी विदेश नीति अधिकांश क्षेत्रों में सफल रही है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम रूस के साथ व्यापार करने में सक्षम हैं और यूक्रेन युद्ध के दौरान अभी भी पश्चिम का समर्थन बरकरार रखे हुए हैं.

अब तक, ऐसा लगता है कि हमने गाज़ा संघर्ष पर भी इसी तरह का संतुलन कायम कर लिया है. हम अरब जगत में अपने मित्रों को खोए बिना इज़रायल के साथ मित्र बने रहेंगे.

वास्तव में मोदी की विदेश नीति की एक विडंबना यह है कि, भले ही सरकार पर अक्सर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है (व्यक्तिगत राजनीतिक नेताओं और पश्चिम में मीडिया द्वारा), इस्लामी दुनिया के साथ भारत के संबंध शायद ही कभी बेहतर रहे हैं. सरकार को एहसास हुआ है कि इस्लामिक देशों को वास्तव में भारतीय मुसलमानों की परवाह नहीं है; उनके हित भू-राजनीतिक हैं.

हालांकि, उन्हें इस्लाम के अपमान की परवाह है. इसलिए, जब भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने सार्वजनिक रूप से वह कहने की हिम्मत की जो कई लोग निजी तौर पर कहते हैं, तो सरकार को उन्हें भेड़ियों के सामने फेंकने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. उन्होंने इसे “फ्रिंज एलिमेंट” बुलाया.

विदेश नीति की इन सफलताओं के साथ खतरा यह है कि हम बहुत अधिक आत्मसंतुष्ट हो गए हैं. अगर अमेरिकियों द्वारा लगाए गए आरोप (जिनका खंडन नहीं किया गया है) कि भारत ने अमेरिका में एक खालिस्तानी नेता को मारने की कोशिश करने के लिए एक व्यक्ति का उपयोग किया है, वैध है, तो इसका मतलब है कि हमारे बाहरी खुफिया प्रतिष्ठान के अनुभाग पंजाब पुलिस के मुठभेड़ विभाग की तरह चलाए जा रहे हैं.

अब क्या?

मेरा मानना है कि अगले साल बहुत कुछ नहीं बदलेगा. भाजपा शासन करती रहेगी, हिंदी बेल्ट बनाम बाकी की समस्या आगे बढ़ती रहेगी, कोई भी हमारी सीमा पर चीनी घुसपैठ के बारे में बात नहीं करेगा और कांग्रेस जीत की रणनीति की तलाश में भटकती रहेगी.

यह ‘समय के साथ परिवर्तन’ नहीं होगा. यह बहुत कम बदलाव के साथ निरंतरता जैसा होगा.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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