जागरूक उदारवादियों या वोक समुदाय के खिलाफ दुनिया भर में कितने मोर्चे खोले जा चुके हैं? अमेरिकी कक्षाओं में नस्लीय समानता के आधुनिक सिद्धांतों के खिलाफ रिपब्लिकन पार्टी की लड़ाई, युवा प्रगतिवादियों द्वारा ब्रिटिश इतिहास को कथित रूप से खारिज किए जाने पर सवाल उठाना, और अब आलोचना की वोक संस्कृति के खिलाफ नाइजीरियाई नारीवादी उपन्यासकार चिमामांडा एडिची का हल्ला बोलना. यहां तक कि बीजेपी सांसद वरुण गांधी ने भी ट्विटर पर अपने ‘वोक दुष्प्रचार‘ के जरिए भारतीयों को धमकाने का आरोप लगाया है.
वोक समुदाय को अनुदारवादी, ऑनलाइन लिंच मॉब, एक नया असहिष्णु धर्म और अतिसक्रिय साम्यवादी कहा जा रहा है. जब से पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने खारिज करने की संस्कृति (कैंसल कल्चर) से उदारवादी उद्देश्यों को नुकसान पहुंचने और सोशल मीडिया पर सक्रिय प्रगतिशील उदारवादियों की तुलना खुद को नुकसान पहुंचाने वाले फायरिंग दस्ते से की है, हर कोई वोक विचारों की निंदा करने पर उतर आया है. सोशल मीडिया पर भारतीय भी ‘लिबटार्ड’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ के बजाय अपने पसंदीदा अपशब्द के तौर पर ‘वोक’ का उपयोग करने लगे हैं, और वोक समुदाय को उनके कथित विशेषाधिकारों के लिए निशाना बना रहे हैं.
ये वोक समुदाय को लेकर विरोधियों की अतिशय घबराहट को दर्शाता है. लेकिन चिंता और घबराहट के बीच जानबूझकर वोक की गलत व्याख्या की जा रही है. ये युवाओं या विचारधारा या कैंसल कल्चर के बारे में नहीं है. ये संस्कृतियों का संघर्ष भी नहीं है, जिसमें जानबूझकर इन दिनों हर तरह की राजनीति को भी घसीटा जाता है. वोक विचार दरअसल वही प्रक्रिया है जिसने हमेशा नैतिक और बौद्धिक चुनौतियां पेश की हैं. इसका असर महसूस होने पर हर पीढ़ी असहज हो जाती है. जैसा कि ब्रिटिश एक्टिविस्ट वेन रीड ने कहा है, ‘जब आप विशेषाधिकार के आदी हो जाते हैं, तो समानता उत्पीड़न जैसी लगती है.’
इसलिए इससे पहले कि आप वोक को खारिज करें, आपको कई गलतफहमियों की पड़ताल करनी होगी, अन्यथा आप इतिहास के उस ‘कुंजी’ संस्करण के चक्कर में पड़ जाएंगे जिसका डोनाल्ड ट्रंप और बोरिस जॉनसन अनुसरण करते हैं.
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घबराहट के मारे वोक विचारों पर हमला
‘वोक’ शब्द अफ्रीकी-अमेरिकी बोली से आया है, जिसका अर्थ है जागृत होना. लेकिन समय के साथ, इसका मतलब अन्याय के प्रति जागरूक और सचेत होना और अपनी बात कहने का साहस रखना हो गया है.
2020 का ब्लैक लाइव्स मैटर विरोध प्रदर्शन अमेरिका के लिए एक जागृति थी, लेकिन साल भर बाद आज ‘वोक’ हताश हो चुके दिखते हैं. जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद नस्लीय भेदभाव को लेकर चला विमर्श पहले ही कमजोर पड़ चुका है.
अमेरिका में तथाकथित ‘संस्कृतियों के युद्ध’ का नया दौर चल रहा है. स्कूली बच्चों को ‘नस्लवाद बुरा है’ जैसी सरल सीख देना और ये बताना कि नागरिक अधिकार आंदोलन से नस्लवाद समाप्त नहीं हुआ, बहुत से लोगों को आक्रोशित कर रहा है जोकि आमतौर पर ‘मेरा नस्लवाद में यकीन नहीं’ जैसी बातें किया करते हैं. फॉक्स न्यूज पर दिखने वाले अभिभावकों — या ‘माताओं की सेना’ — का कहना है कि इस तरह की सीख उनके बच्चों में ‘आत्मघृणा’ पैदा करती है, और शिक्षक तक इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं. डोनल्ड ट्रंप का आरोप है कि स्कूलों में बच्चों को अमेरिकी इतिहास के बुरा होने की बात पढ़ाई जा रही है, जबकि माइक पेंस को लगता है कि बच्चों को ‘अपनी त्वचा के रंग पर शर्मिंदा होना’ सिखाया जा रहा है.
सच्चाई ये है कि, स्कूलों में नस्लीय समानता के आधुनिक सिद्धांत (क्रिटिकल रेस थ्योरी) पढ़ाया ही नहीं जा रहा है; ये स्नातक स्तर के अध्ययन का विषय है. लेकिन कांग्रेस में बहुमत हासिल करने के उद्देश्य से अगले साल के मध्यावधि चुनावों में इस मुद्दे के इस्तेमाल को लेकर रिपब्लिकन पार्टी के मन में अभी से लड्डू फूट रहे हैं.
ब्रिटेन में, वोक के खिलाफ युद्ध का नेतृत्व संस्कृति मंत्री ओलिवर डावडेन कर रहे हैं. उनका कहना है कि वोक योद्धाओं को ब्रिटेन के इतिहास को खारिज करने का दबाव बनाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. वे बीबीसी पर देशभक्त नागरिकों का उपहास करने का, और संग्रहालयों पर वोक संस्कृति में रंगने का आरोप लगाते हैं; और उन्होंने पुराने नस्लवादी ट्वीट के कारण गेंदबाज ओली रॉबिन्सन को निलंबित करने के लिए क्रिकेट बोर्ड की आलोचना की है. वैसे उनकी बातों को कंज़रवेटिव पार्टी की जानी-पहचानी नीतियों के आलोक में देखा जाना चाहिए.
और ये उस देश की बात है जहां, एक हालिया सर्वे के अनुसार, 59 प्रतिशत आबादी को ‘वोक’ शब्द का मतलब तक नहीं पता.
लेकिन मौजूदा ‘संस्कृतियों के युद्ध’ की यही तो खासियत है. पहले राजनेता अस्पष्ट रूप से परिभाषित अपमानित लोगों के एक अनिश्चित वर्ग के पक्ष में बयान देते हैं, फिर टीवी बहसों में और संपादकीय पृष्ठों पर स्थान देने के लिए मीडिया उसे ढूंढने निकलता है.
बात जलवायु परिवर्तन या क्रिकेट जैसे गैरसांस्कृतिक मुद्दों की ही क्यों ना हो, वोक विचारों के आलोचक हमारी-बनाम-उनकी लड़ाई के नाम पर अपने समर्थकों को भावनात्मक रूप से उकसा कर इन्हें बहस के केंद्र में ले आते हैं.
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वोक समुदाय को खारिज करने से पहले इन बातों को याद रखें
ये बहस अब भारत में भी आ चुकी है. इसे दिशा रवि ‘टूलकिट’ मामले से लेकर मुंबई में पेड़ों की कटाई के विरोध और स्टैंडअप कॉमेडी तक से जोड़ा जा चुका है, मानो वोक विचार भारत की प्रगति में बाधक बन रहे हों. पूर्व मेजर जनरल बीएस धनोआ ने इस सप्ताह ट्वीट किया: ‘वोक संस्कृति हास्य विनोद को खत्म कर रही है.’
लेकिन इससे पहले कि आप वोक विमर्श की आलोचना करें, आपके लिए यहां पांच तथ्य पेश हैं. इनके जरिए दो में एक बात हो सकती है: इनसे आपका मत बदल जाए या फिर ये आपकी आलोचना को परिष्कृत करने में मददगार साबित हों.
‘कैंसल कल्चर’ एक भ्रामक नाम है. वास्तव में यह परिणामों की संस्कृति है. आप जो करते हैं, कहते हैं और सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं उसके परिणाम हैं. और ये कोई नई बात भी नहीं है. जैसे, यदि आप जातिवादी गालियों का इस्तेमाल करते हैं और उन्हें सामान्य बोलचाल के रूप में सही ठहराने की कोशिश करते हैं या उन्हें पुरानी कहावतों के तौर पर पेश करते हैं, तो आपको इसके नतीजे भुगतने होंगे. अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियमके दायरे में अन्य बातों के साथ-साथ ये बात भी आती है. ये केवल वोक ट्विटर या इंस्टाग्राम की बात नहीं है. दंड से मुक्ति और संरक्षण के दिन बीत चुके हैं.
ये एक लोकप्रिय मिथक है कि केवल उदारवादी और वामपंथी ही कैंसल कल्चर में लिप्त हैं. जबकि अमेरिकी स्कूलों में नस्लवाद विरोधी शिक्षा को खारिज करने का काम तो दक्षिणपंथी रिपब्लिकन कर रहे हैं. टेक्सस, ओक्लाहोमा, अरकंसा, आयोवा और इडाहो सहित 25 अमेरिकी राज्यों ने स्कूलों में नस्लवाद विरोधी शिक्षा को प्रतिबंधित करने के लिए कदम उठाए हैं. ब्रिटेन में, डावडेन ने सरकारी धन पाने वाले संग्रहालयों को चेतावनी दी है कि वे ज्यादा वोक बनने की कोशिश ना करें. टेलीग्राफ अखबार ने इसे ‘गो वोक, गो ब्रोक’ की धमकी के रूप में उद्धृत किया है. खारिज करने का काम हर कोई कर सकता है, नकि केवल वोक समुदाय.
युवाओं को वोक विचारों से जोड़कर देखने की गलती न करें. ऐसा नहीं है कि सिर्फ नई पीढ़ी ही अपनी आवाज उठा रही है. नारीवाद केवल मिलेनियल युवाओं में प्रचलित विचार नहीं है. न तो मार्टिन लूथर किंग जूनियर और न ही बाबासाहेब आंबेडकर मिलेनियल वोक थे. लेकिन दोनों ने आज के ट्विटर हैंडल्स की तुलना में अधिक, या उतनी ही आक्रामकता से अपनी बात कही थी. फर्क सिर्फ इतना है कि पूर्वाग्रह और न्याय की बात, दोनों के लिए आज सोशल मीडिया के रूप में एक विस्तारक माध्यम मौजूद है. इसलिए, इसे एक नए सामाजिक, राजनीतिक खतरे के रूप में देखना बंद करें. 1980 के दशक में पला-बढ़ा तथा अंकुर, आक्रोश और सद्गति जैसी भारतीय कला फिल्में देखने वाला कोई भी व्यक्ति समझता था कि यथास्थिति समर्थक अन्यायपूर्ण धारणाओं पर सवाल उठाने का क्या मतलब होता है. अंकुर के अंतिम दृश्य में छोटे लड़के का जमींदार के घर की खिड़की पर पत्थर फेंकना उन दिनों की ‘कॉल आउट’ संस्कृति को दर्शाता है.
इसके अलावा, 21वीं सदी के चश्मे से इतिहास और ऐतिहासिक आंकड़ों का आकलन करना वोक विचार नहीं है. यह मानक अकादमिक प्रक्रिया है. अब आप यह नहीं कह सकते कि दास-स्वामी प्रथा अपने समय की देन थी. नए अध्ययन के जरिए ही मोहनदास करमचंद गांधी के नस्लीय विचारों को उजागर किया जा सका है. इसी तरह जाति पर गांधी के विचारों की भी आलोचना की जा चुकी है — वोक समुदाय द्वारा नहीं, बल्कि उनके समकालीन बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा. आज आप एक नारीवादी आलोचनात्मक दृष्टि से मैडम बोवरी का अध्ययन करते हैं, भले ही यह उपन्यास आधुनिक नारीवाद के उदय से बहुत पहले प्रकाशित हो चुका था. यही बात काफ्का (20वीं शताब्दी की शुरुआत) की उत्तरसंरचनावादी (1960) आलोचना; या मैकबेथ की मार्क्सवादी आलोचना; या वेदों की आंबेडकरवादी आलोचना के मामलों में भी है. बाद के दिनों की दृष्टि से अतीत को देखना आम बात है.
चिमामांडा एडिची ने एक ऐसा बयान दिया जिसमें ट्रांस लोगों द्वारा प्रतिदिन महसूस किए जाने वाले दर्द और उत्पीड़न और उन अधिकारों के प्रति सहानुभूति नहीं थी जिनके लिए वे संघर्षरत हैं. खेद जताने के बजाय एडिची ने तीन भागों वाला एक लेख लिखा, जिसमें ‘वफादारी से उम्मीदें’ वाक्यांश का भी इस्तेमाल किया गया था. जबकि परिणाम की संस्कृति में आपको केवल एक ही काम करना होता है: खेद जताएं, अपनी अज्ञानता और विशेषाधिकार को स्वीकार करें, तथा सुनने और सीखने का वादा करें. एडिची ने ये सब करने की जहमत नहीं उठाई. दूसरी अभिनेत्री ऐली केंपर ने पिछले दिनों ऐसा किया जब उन्होंने नस्लवादी संपर्क वाली एक सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए माफी मांगी.
केंपर ने इंस्टाग्राम पर लिखा, ‘मैं तब इस इतिहास से अवगत नहीं थी, लेकिन अज्ञानता को बहाना नहीं बनाया जा सकता.’ उन्होंने कहा, ‘मैं इतनी बड़ी थी कि उसमें शामिल होने से पहले खुद को शिक्षित कर सकती थी.’
हर पीढ़ी के अपने वोक होते हैं और अतीत में नागरिक अधिकारों की परिभाषा के विस्तार में उनकी ही भूमिका रही है.
(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट की ओपिनियन एडिटर हैं. वह 27 वर्षों तक ‘वाशिंगटन पोस्ट’ की भारत संवाददाता थीं, और सुनामी आपदा की कवरेज के लिए 2005 में उन्हें अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज एडिटर्स अवार्ड मिला था. ये उनके निजी विचार हैं.)
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