अनुच्छेद 370 पर सबसे पहले समर्थन करने वाली बहुजन समाज पार्टी को लेकर तमाम लोग हैरान हैं. यही नहीं, पिछले दिनों बसपा सुप्रीमो मायावती ने अनुच्छेद 370 को ये कहकर भी समर्थन दिया कि इससे बाबा साहब आंबेडकर भी नाइत्तफाकी रखते थे. हालांकि डॉ. आंबेडकर ने अनुच्छेद 370 को लेकर कोई उल्लेख किया है, ये स्पष्ट नहीं है.
अहम बात ये है कि क्या सरकार के फैसले का समर्थन करके बसपा को भी कुछ लाभ होगा या नहीं? इस सवाल का जवाब ‘हां’ में दिया जा सकता है. बसपा की इस राजनीतिक दिशा से बहुजन राजनीति का दायरा जम्मू-कश्मीर में भी बनेगा, इसकी संभावनाएं काफी अच्छी हैं. बल्कि इस राज्य में बसपा बड़ी खिलाड़ी बनकर भी उभर सकती है.
बसपा के सियासी मैदान का गणित सामाजिक संरचना और संभावित बेस वोट के आधार पर इस बात को समझा जा सकता है. वर्ष 2001 की जनगणना के हिसाब से जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जाति की आबादी 7 लाख 70 हजार 155 थी, यानी कुल आबादी का 7.6 प्रतिशत. वर्ष 1991 में यहां जनगणना हुई ही नहीं, जिससे पिछले एक दशक में जनसंख्या वृद्धि दर को नहीं परखा जा सका.
फिर भी अनुमान ये है कि 1981 से 2001 के बीच अनुसूचित जाति की आबादी 55 प्रतिशत बढ़ी. यहां कुल 13 जातियों को अनुसूचित जाति में रखा गया है. तकरीबन 83 फीसद एससी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में है.
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देखा जाए तो बसपा के लिए सियासी जमीन पूरे कश्मीर में है, जबकि तीन जिलों जम्मू, कठुआ और उधमपुर में तो वह अच्छा प्रदर्शन कर ही सकती है. ये तीनों जिले हिंदू बहुल हैं और यहां अनुसूचित जाति की आबादी भी अच्छी संख्या में है.
जम्मू में हिंदू 84 प्रतिशत से ज्यादा हैं, जिसमें लगभग 25 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं. इसके अलावा जम्मू में 7.5 प्रतिशत सिख, 7 प्रतिशत मुस्लिम और 1.2 प्रतिशत अन्य आबादी है. कठुआ में 87 प्रतिशत से ज्यादा हिंदू आबादी है, जिसमें तकरीबन 23 प्रतिशत एससी हैं. कठुआ में 10 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम और लगभग दो प्रतिशत अन्य आबादी है.
उधमपुर में 88 प्रतिशत हिंदू आबादी में 19 प्रतिशत से ज्यादा एससी हैं, यहां भी 10 प्रतिशत मुस्लिम के अलावा दो प्रतिशत दूसरे लोग हैं. बसपा का सोशल इंजीनियरिंग का आजमाया हुआ फॉर्मूला यहां कितना कारगर हो सकता है, ये देखने वाली बात होगी.
कश्मीर के सिर्फ चार जिले ही ऐसे हैं, जहां एससी आबादी 500 से कम है, जिनमें कूपवाड़ा और पुलवामा में 100 से भी कम लोग हैं. एससी की 13 जातियों की कुल आबादी में सबसे ज्यादा मेघ तीन लाख से ज्यादा (39.1 प्रतिशत)हैं. इसके बाद चमार करीब 1 लाख 88 हजार (24.3 प्रतिशत), डोम या डूम 1 लाख 60 हजार (20.8 प्रतिशत) हैं.
कुल एससी आबादी में इन तीनों जातियों की आबादी 84 प्रतिशत से ज्यादा है. इसके आलावा बटवाल, बरवाला, बासिथ और सरयारा की संख्या लगभग 13 प्रतिशत है. बाकी छह अनुसूचित जातियों की संख्या तीन प्रतिशत है. तेरह एससी जातियों में सबसे कब बातल 200 के आसपास हैं. जिलास्तर पर मेघ, चमार और बटवाल जम्मू में ज्यादा हैं, जबकि डोम कठुआ में.
जम्मू कश्मीर में 25 प्रतिशत एससी आबादी प्राथमिक शिक्षा से भी महरूम है, जबकि 29 प्रतिशत प्राथमिक स्तर पर शिक्षित हैं, 27.7 प्रतिशत मिडिल पास हैं और 16 प्रतिशत के आसपास हाईस्कूल से लेकर ग्रेजुएट हैं. ग्रेजुएट या उससे ऊपर की पढ़ाई दो प्रतिशत को ही हासिल है.
बसपा की राजनीति का ऐतिहासिक और सामाजिक आधार
जम्मू कश्मीर ही क्या, आरएसएस और भाजपा की राजनीति का विस्तार पूरे भारतीय महाद्वीप में जहां तक जाता है, वहां तक बसपा की राजनीति भी जा सकती है. क्योंकि, हिंदुत्व को जितने शास्त्रीय रूप में पेश किया जाएगा, जाति व्यवस्था का अंतर्विरोध उतना ही तीखे रूप में सामने आएगा.
पूरा भारतीय महाद्वीप जब जातिवाद से आज तक मुक्त नहीं हुआ है तो कश्मीर कैसे हो सकता है? हिंदू बहुल होने की वजह से भारत सबसे ऊपर है, तो नेपाल भी इस कोढ़ का बड़ा शिकार है. अल्पसंख्यक हिंदू आबादी वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश भी जाति व्यवस्था से मुक्त नहीं हैं. वहां वे दोतरफा उत्पीडऩ का शिकार होते हैं, एक अल्पसंख्यक होने के नाते और दूसरा ‘अपनो’ के ही बीच जातिवाद के कारण. साथ ही बहुसंख्यक मुसलमान भी अछूत व्यवस्था को अपनाए हुए हैं.
सदियों से दबी ‘बीमारी’ उभरने के आसार
कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा महज भौगोलिक कारणों से नहीं है. बल्कि इतिहास में हिंदुत्व का राज होने से यहां का समाज भी उन बीमारियों का शिकार है, जैसे बाकी देश के हिस्से. फर्क इतना ही रहा है कि अलगाववाद की आग ने इस आंच को कभी उभरने नहीं दिया. या फिर ये आग हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का ईंधन बनकर इस्तेमाल हो गई.
अब, जब अनुच्छेद हटने से बाकी भारत की तरह ही इस राज्य का विकास होना है तो अंतर्विरोध सामने आना लाजिमी है. हालांकि काफी लोग इस भ्रम का शिकार रहे हैं या हैं, कि जम्मू कश्मीर में जाति व्यवस्था नहीं बल्कि साफ दिखने वाली वर्ग व्यवस्था है और इस्लाम में इस तरह का कोई खांचा नहीं है, इसलिए भारत के दूसरे हिस्सों जैसा यहां कुछ नहीं है.
दरअसल, कश्मीर हिंदू और मुस्लिम सवर्ण बहुल राज्य है. भौगोलिक चुनौतियों और परस्पर जरूरतों के चलते मैदान जैसी निर्मम घटनाएं और प्रतिरोध नहीं दिखाई पड़ता, या फिर उसकी सूचना ही नहीं आती बाहर.
इतिहास की तह में जाएं तो पता चलता है कि कश्मीर में जाति प्रथा बहुत पुरानी है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के तारिक शेख का शोध ‘क्रेडिल ऑफ कास्ट इन कश्मीर’ इस सच्चाई को समझाने का प्रयास है.
शोध कहता है कि भारत के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी चार वर्ण व्यवस्था मौजूद थी. लेकिन कट्टर सुल्तानों के आगे कुछ ब्राह्मण परिवारों को छोडक़र लगभग सभी जातियों के वर्गों ने हार मान ली. उन्होंने स्वेच्छा या अनिच्छा से इस्लाम को गले लगा लिया. तथ्य ये भी है कि कई जातियों को इस्लाम की बदौलत सम्मान का जीवन जीने का मौका मिला.
कश्मीर में जातिवादी उत्पीड़न
प्राचीन कश्मीर के हिंदू समाज में ब्राह्मणों को विशेषाधिकार और सम्मान का स्थान हासिल था. मुस्लिम शासन के दौरान ब्राह्मणों की स्थिति बिगड़ी और बड़े पैमाने पर निशाना बने. राजपूत सुल्तान जैन-उल-अबिदीन के अधीन सैनिक थे. निम्न जाति के लोग डोम, चांडाल, किरात, निषाद थे.
कल्हण ने डोम को मेनियाल (नीच जाति) के रूप में संदर्भित किया है. उन्हें चांडाल और स्वपका (कुत्ते खाने वाले) अछूत बताया. इन लोगों को बहुत सताया गया. उन्हें चोरी करने और नाच-गाकर आजीविका कमाने के लिए मजबूर किया गया. डोम और चांडाल को इंसान के तौर पर माना तक नहीं गया, वे जंगलों में रहते थे.
इसी तरह निषाद कश्मीर की आदिवासी जनजाति थी, उनकी स्थिति भी अच्छी नहीं थी. वाटल जाति को साफ-सफाई के काम में लगाया गया. वे संगीतकारों और नाचने वाली लड़कियां मुहैया कराते थे, जिनकी सुंदरता, गायन और नृत्य करने की काबिलियत पूरी घाटी में मशहूर है. आर्यों के आगमन से पहले वाटल को देश के आदिवासी निवासियों का वंशज कहा जाता था.
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हंजी या नाव वाले भी उच्च जातियों की सेवा में लगे रहते थे, यही इनकी आजीविका का साधन था. इन्हीं नौकाओं में कभी उनका घर था, जिसे अब हाउस बोट कहकर लुत्फ उठाया जाता है. उनके परिवार की पूरी जिंदगी इन नावों पर ही गुजर जाती थी. वे पहले धीमर या कोइरी या कोरी के रूप में जाने जाते थे.
मध्ययुगीन कश्मीर की आबादी में मुख्य रूप से हिंदू, बौद्ध या जैन शामिल थे. इनकी मामूली संख्या आज भी अधिकांश कश्मीर के जिलों में दिखती है. चौदहवीं शताब्दी की शुरुआत से फारस और मध्य एशिया के मुस्लिम दार्शनिकों की आमद के साथ यहां जनसंख्या की संरचना में बदलाव आया.
ब्राह्मण ही है, आज का अधिकांश कश्मीरी नेतृत्व
श्रीवारा (कल्हण के बाद) ने राजतरंगिणी में उल्लेख किया है कि सुल्तान के समय वर्ण व्यवस्था को स्थापित करना तो आसान नहीं था, लेकिन डोम, किरात, चांडाल और निषाद जैसी जातियों की मौजूदगी बड़ी तादाद में थी.
इस्लाम कबूलने वालों में कई ने पुराने उपनाम बनाए रखे, जैसे कौल, भट्ट, मंटो, गनी, पंडित, रैना आदि ब्राह्मण जाति से धर्मांतरित हुए. असद, मागरे, राठौर, ठाकोर, नायक, लून, चक क्षत्रियों से आए. उन्होंने अपने पुराने जाति के नियमों को बनाए रखा. मगरे, रैना, चक और डार का रहन-सहन बाद के हिंदू काल के सामंती प्रभुओं के जैसा ही रहा है. इसके अलावा भी बहुत सी ऊंच-नीच इस समाज में मौजूद है, जिनपर धार्मिक लबादा रहा है.
इस तस्वीर से जाहिर है कि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद कश्मीरी समाज की अंदरूनी बीमारी भी उभरेगी. न सिर्फ हिंदू समाज के बीच, बल्कि हिंदू से मुस्लिम बने सवर्णों का चरित्र स्पष्ट रूप में सामने आएगा. कांग्रेस शासन का लंबा दखल और अब भाजपा के बीच सख्त रुख का राजनीतिक लाभ भी बसपा को मिल सकता है.