राष्ट्रपति चुनाव से मात्र एक वर्ष पहले महाभियोग संबंधी जांच का सामना कर रहे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने ‘हाउडी!’ मित्र से सीख ले सकते हैं कि कैसे हर प्रतिकूल स्थिति को अपने अनुकूल किया जा सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद को मज़लूम दिखाने, हर किसी को अपने खिलाफ साज़िशकर्ता बताने और फिर सहानुभूति एवं वोट हासिल करने की कला में माहिर हैं. राष्ट्रपति ट्रंप के लिए इस कौशल को हासिल करना बहुत फायदेमंद होगा– वह अपने वोटरों को यकीन दिला सकते हैं कि उनके ‘शत्रु’ और विरोधी एक ‘स्वनिर्मित’ नेता के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं, जो कि अमेरिका को फिर से महान बनाना चाहता है.
वास्तव में, ट्रंप एकमात्र ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो मोदी के राजनीतिक सिद्धांत से लाभ उठा सकते हैं. मोदी की राजनीति या ‘मोदीटिक्स’ से कई सबक सीखे जा सकते हैं. आलोचना को तारीफ में बदलना, मुकम्मल सत्ता प्रतिष्ठान बन चुकने के बावजूद सदा ‘बाहरी’ होने का ढोंग करना, हमेशा ही खुद को उत्पीड़ित दिखाना, आंडबरपूर्ण तमाशों के ज़रिए मीडिया और जनमानस पर हावी होना, असल समस्याओं से ध्यान हटाना, राजनेता और उत्तेजना फैलाने वाले का अजीब मिश्रण होना, एकालाप करते हुए भी खुद को ‘जनता का नेता’ साबित करना और आमतौर पर प्रतिद्वंद्वियों को चतुराई से मात देने में सक्षम होना.
शाश्वत पीड़ित और बाहरी
मोदी भले ही लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री हों और उससे ठीक पहले उन्होंने एक दशक से अधिक समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया हो, लेकिन वो हमेशा ही सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर के व्यक्ति और ऐसे नेता की छवि बनाए रखेंगे कि जिसके खिलाफ हर कोई एकजुट होता दिखता हो.
2002 में उनके मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद गुजरात दंगों के लिए चौतरफा आलोचना, वीज़ा देने से अमेरिका का इनकार और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा मौत का सौदागर करार दिया जाना. इन सब का इस्तेमाल मोदी ने खुद को मज़लूम साबित करने में किया, जिसे कि निरंतर तंग किया जा रहा हो, दंगों को लेकर होने वाली हर आलोचना को उन्होंने गुजराती अस्मिता और पांच करोड़ गुजरातियों पर हमले का रूप दे दिया. राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर भाजपा का अब तक का सर्वाधिक शक्तिशाली नेता बनने तक, राजनीति में उनका उभार असाधारण रहा है, फिर भी वे खुद को उत्पीड़ित व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहते हैं.
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हमेशा उन्होंने मोदी बनाम शेष का कथानक रचा है. इसलिए उनकी कोई भी आलोचना इस बात में बदल जाती है कि कैसे एक ‘स्वनिर्मित बाहरी व्यक्ति’ को ‘अंदरखाने’ के, विशेषाधिकार प्राप्त और वंशानुगत नेताओं द्वारा निशाना बनाया जा रहा है. ‘नामदार बनाम कामदार’ की दलील को इसी रणनीति के तहत बढ़ाया गया है. लोकसभा चुनावों से पहले यह कथानक चरम पर था जब जब पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का राफेल सौदे को लेकर मोदी पर ‘चौकीदार चोर हैं’ का ताना मारना खुद उन्हीं पर भारी पड़ गया क्योंकि प्रधानमंत्री ने बड़ी ही चतुराई से राहुल के हमले को इस बात के उदाहरण के रूप में बदल दिया कि सत्ता प्रतिष्ठान से बाहर के एक व्यक्ति को कितनी बुरी तरह निशाना बनाया जाता है. इतना ही नहीं, उन्होंने देश भर के सुरक्षा गार्डों के साथ वीडियो-सम्मेलन कर इसे हर चौकीदार को अपमानित किए जाने का मुद्दा भी बना डाला.
शातिराना संचार कौशल
मोदी का संचार कौशल– ’मोडिटिक्स’ के छात्रों के लिए एक रोचक अध्याय है. योग दिवस से शिक्षक दिवस तक हर छोटे-मोटे मौके बड़े आयोजनों में तब्दील हो जाते हैं. इसी साल सितंबर में अमेरिका के ह्यूस्टन में हुआ ‘हाउडी, मोदी!’ का तमाशा इस बात का अच्छा उदाहरण है कि कैसे राई को पहाड़ बनाया जा सकता है. तभी तो लालकृष्ण आडवाणी ने मोदी को एक कुशल इवेंट मैनेजर कहा था.
पिछले लोकसभा चुनावों पर गौर करें तो ज़मीनी स्तर पर बेरोजगारी, किसान संकट या फिर कांग्रेस के राफेल संबंधी आरोप, कुछ भी प्रभावी नहीं रहा. मोदी को राष्ट्र के तारणहार के रूप में पेश किया गया और उनके हथियार थे– बालाकोट हवाई हमला, कल्याणकारी योजनाएं और विशेषाधिकार प्राप्त वंशानुगत नेताओं के खिलाफ लड़ाई.
मासिक रेडियो शो ‘मन की बात’ को मोदी के एकालाप के अलावा और क्या कह सकते हैं. उनके लिए विशेष तौर पर तैयार किए गए इस मंच पर वह अपनी मर्जी के किसी भी विषय पर बोल सकते हैं. वास्तव में उनका अधिकांश ‘विचार-विमर्श’ एकतरफा और पूर्वकल्पित होता है. फिर भी, वह खुद को ‘जनता के पीएम’ के रूप में पेश करने में सक्षम है. दरअसल इसमें उनके निरंतर देखे-सुने जाने, चाहे जैसे भी, का योगदान है और वह चतुराई से अपनी पहलकदमियों में लोगों को जोड़ लेते हैं. स्वच्छ भारत अभियान हो या बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान या अभी हाल में सिंगल-यूज प्लास्टिक के खिलाफ अभियान.
दोहरा व्यक्तित्व
मोदी के व्यक्तित्व में ध्यान से गढ़ी गई द्वंद्वात्मकता संभवत: उनके राजनीतिक सिद्धांत को परिभाषित करती है. प्रधानमंत्री मोदी के रूप में वह एक राजनेता हैं, सही बात करते हैं, गलत की निंदा करते हैं, एक बेदाग सोशल मीडिया छवि रखते हैं. जबकि भाजपा नेता और पार्टी के मुख्य प्रचारक मोदी के रूप में वह उत्तेजना फैलाने से भी परहेज नहीं करते हैं.
उनका मंत्र है: स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से हर दृष्टि से एक ‘लोकतांत्रिक’ प्रधानमंत्री दिखना पर चुनाव प्रचार के दौरान खुलेआम सांप्रदायिक बयान देने से भी पीछे नहीं हटना. याद है उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान उनका ‘कब्रिस्तान-श्मशान’ वाला बयान? या फिर गुजरात विधानसभा चुनावों से पहले अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह के बारे में उनका विचित्र और स्पष्टत: अस्वीकार्य बयान कि वो कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के आवास पर पाकिस्तानी अधिकारियों के साथ एक ’गुप्त बैठक’ में शामिल हुए थे.
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ट्विटर के ज़रिए वह अपने कटु राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को भी उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं देते हैं और उनकी तरफ से आई शुभकामनाओं पर आभार व्यक्त करना नहीं भूलते. लेकिन चुनाव प्रचार के समय, वह उन्हें ‘डूब मरो’ कहने की हद तक असंवेदनशील हो जाते हैं.
मोदी दुनिया के नेताओं को अपने राजनीतिक सिद्धांत की घुट्टी पिला सकते हैं और राजनीतिक संकट का सामना कर रहे ट्रंप मोदी को फोन पर ‘हाउडी!’ बोल उनके सिद्धांत की जानकारी ले सकते हैं.
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