यह विडंबना ही है कि आजादी के बाद से ही दिल्ली की अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं बन सकी, हमेशा ही केन्द्र ने उस पर राज किया है.
मौजूदा समय में लाटसाहब के पास ऐसी कोई जादुई छड़ी नहीं है जो जर्जर हो चुकी स्वास्थ्य सेवाओं को चुटकियों में बेहतर बना दे.
हां, इस नयी व्यवस्था से अव्यवस्था फैलने की आशंका जरूर है.
कोविड 19 महामारी की दूसरी लहर से दिल्ली की जनता को बचाने में विफल रहने के कारण पहले से ही न्यायपालिका की आलोचना का शिकार हो रही अरविन्द केजरीवाल की आप सरकार को एक और झटका लगा है. केन्द्र सरकार ने दिल्ली की निर्वाचित सरकार के अधिकार सीमित करने और उपराज्यपाल के अधिकारों को बढ़ाने संबंधी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र शासन संशोधन कानून, 2021 लागू कर दिया है. इस कानून के लागू होने के साथ ही उपराज्यपाल अब दिल्ली के लाटसाहब यानी सरकार हो गये हैं.
इस अधिसूचना के बाद कमोबेश दिल्ली की स्थिति एक बार फिर 1991 में हुये 69वें संविधान संशोधन से पहले की हो गयी है जब उप राज्यपाल ही सर्वे-सर्वा हुआ करते थे.
ऐसा नहीं है कि 69वें संविधान संशोधन में निर्वाचित सरकार, विधान सभा और उपराज्यपाल के अधिकारों के बीच काफी बड़ा असंतुलन बन गया था.
69वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान में अनुच्छेद 239एए और 239 एबी जोड़े. अनुच्छेद 239 एए 3(ए) के अंतर्गत दिल्ली विधानसभा राज्य या समवर्ती सूची में मौजूद किसी भी विषय पर कानून बना सकती थी लेकिन उसे कानून व्यवस्था, पुलिस और जमीन से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार नहीं था.
कैसे निपटेंगे लाटसाहब
केन्द्र सरकार ने भले ही कोविड महामारी के दौरान दिल्ली के अस्पतालों में अव्यवस्था, ऑक्सीजन और दवाओं की कमी तथा मरीजों की बेबसी पर उच्च न्यायालय की तीखी टिप्पणियों के मद्देनजर मौके पर चौका मारने का प्रयास किया है.
लेकिन अभी तो यह देखना बाकी है कि उपराज्यपाल को ‘लाटसाहब’ बनाने के बाद किस तरह से कोविड महामारी से बेहाल दिल्लीवासियों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधायें मिल सकेंगी और ऑक्सीजन के संकट से किस तरह निबटेंगे.
दिल्ली के उपराज्यपाल को निर्वाचित सरकार से ज्यादा अधिकार देने संबंधी कानून लागू होने के बावजूद राजधानी में कोविड महामारी से उत्पन्न भयावह स्थिति पर तत्काल अंकुश पाने की संभावना कम ही लगती है.
इस नयी व्यवस्था के बाद से ही दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों और वर्चस्व को लेकर जंग छिड़ी थी. इस व्यवस्था में भी भाजपा के कई मुख्यमंत्री बने थे लेकिन कभी भी यह नौबत नहीं आयी थी.
दिल्ली में सबसे लंबे समय तक 1998 से 2013 तक शीला दीक्षित मुख्यमंत्री रहीं और उनके कार्यकाल के दौरान भी कई बार उपराज्यपाल के साथ टकराव की स्थिति आई लेकिन इसे गरिमामय तरीके से सुलझा लिया गया था.
परंतु, दिसंबर 2013 में पहली बार दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के साथ ही निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के अधिकारों को लेकर चल रहे टकराव ने काफी विकृत रूप ले लिया और मामला हाई कोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा.
शीर्ष अदालत में संविधान पीठ की व्यवस्था के बाद केजरीवाल सरकार को अधिकार मिल गये थे और उसी समय से इसमें कटौती की अटकलें लग रही थीं जिसकी परिणति अब इस कानून को लागू करने के साथ हो गयी है.
उप राज्यपाल की मंजूरी हुई जरूरी
मुख्यमंत्री केजरीवाल के नेतृत्व वाली निर्वाचित सरकार को अब उप-राज्यपाल के अनुसार काम करना होगा तथा उनके लिये सभी विधायी और प्रशासनिक कार्यो के लिये उप राज्यपाल की मंजूरी लेना अनिवार्य होगा. विधान सभा या उसकी कोई समिति अब प्रशासनिक फैसलों पर जांच नहीं बैठा सकेगी और इन्हें निष्प्रभावी करने के लिये बनाया गए उसके नियम अवैध होंगे.
इस कानून को लागू करने संबंधी अधिसूचना राजपत्र में प्रकाशित हो गयी है और यह 27 अप्रैल से प्रभावी हो गयी है.
यह संयोग ही है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने कल अर्थात मंगलवार को ही केजरीवाल सरकार को फटकार लगाते हुये कहा था कि अगर कोरोना से उत्पन्न महासंकट में वह स्थिति नहीं संभाल पा रहे हों तो इसे केन्द्र सरकार को सौंप दिया जाये.
न्यायालय की फटकार से केजरीवाल सरकार के उबरने से पहले ही केन्द्र ने उन्हें यह झटका दे दिया है. केन्द्र के इस झटके के बाद इतना तो निश्चित है कि केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप सरकार चुप नहीं बैठेगी और वह इस कानून की संवैधानिक वैधता को न्यायालय में चुनौती देगी.
केन्द्र सरकार भले ही यह दावा करे कि इस कानून का मकसद विधायिका औा कार्यपालिका के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देगा और निर्वाचित सरकार तथा उपराज्यपाल की जिम्मेदारियों को आगे बढ़ायेगा लेकिन उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था के मद्देनजर ऐसा लगता है कि सरकार और उपराज्यपाल के बीच टकराव जारी रहेगा.
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सीजेआई दीपक मिश्रा के आदेश को केंद्र ने पलटा
इस टकराव की मुख्य वजह Govt. Of Nct Of Delhi vs Union Of India प्रकरण में चार जुलाई, 2018 की तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ का वह फैसला है जिसमें कहा गया था कि दिल्ली सरकार का कार्यकारी प्रमुख उपराज्यपाल नहीं बल्कि मुख्यमंत्री होगा और वह उन सभी मामलों में मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिये बाध्य होंगे जिनमें दिल्ली विधान सभा को कानून बनाने का अधिकार है.
यही नहीं, न्यायालय ने यह भी कहा था कि निर्वाचित सरकार को फैसले लेने के लिये उपराज्यपाल की सहमति की आवश्यकता नहीं है और बहुत जरूरी मामलों में ही फाइल उपराज्यपाल के पास भेजनी होगी.
संविधान पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से संबंधित मसलों के अलावा सभी मामलों में उपराज्यपाल निर्वाचित सरकार की मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिये बाध्य हैं. संविधान पीठ ने कहा था कि निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल को परस्पर सद्भाव से काम करना होगा.
इसी पीठ के एक अन्य सदस्य न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चंद्रचूड़ ने अपने अलग लिखे फैसले में कहा था कि ‘संविधान के अनुच्छेद 239 के अंतर्गत आने वाले मामलों या सरकार के दायरे से बाहर के मामलों के अलावा उपराज्यपाल को निर्णय लेने का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं है.’
संविधान पीठ ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 239एए(4) की भी व्याख्या की थी. इस प्रावधान में शामिल शब्द ‘किसी भी मामले’ की व्याख्या करते हुये न्यायालय ने कहा था कि ‘किसी भी मामले’ का मतलब ‘प्रत्येक मामला’ नहीं है. पीठ ने कहा था कि अगर अनुच्छेद 239एए(4) में ‘किसी भी मामले’ की व्याख्या शासन के ‘प्रत्येक मामले’ के रूप में की गयी तो फिर निर्वाचित सरकार ‘शून्य’ बनकर रह जायेगी.
बहरहाल, उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ की व्यवस्था के बावजूद केन्द्र सरकार ने दिल्ली में बेहतर शासन के मकसद से यह नया कानून बनाया है लेकिन यह तो वक्त ही बतायेगा कि नया कानून कितना सफल है.
संसद से यह कानून पारित होने के बाद ही केजरीवाल ने इसे असंवैधानिक करार देते हुये कहा था कि इसका मकसद निर्वाचित सरकार को निष्प्रभावी बनाना है.
हां, इतना निश्चित है कि इस कानून की संवैधानिकता को न्यायालय में चुनौती दी जायेगी और आम आदमी पार्टी तथा दिल्ली की निर्वाचित केजरीवाल सरकार अपने अधिकारों में कटौती के इन प्रयासों के खिलाफ हर तरह की मोर्चांबंदी करेगी. आम आदमी पार्टी पहले ही कह चुकी है कि इस कानून की संवैधानिक वैधता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जायेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.यह आलेख उनके निजी विचार हैं)
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