अवध में एक बहुत पुराना लोकगीत है: कलकतवा से मोर पिया अइहैं कि नांय, उजरी बा मड़इया छवइहैं कि नांय! जब गर्मी इतनी विकट हो जाती है कि तालाब सूख जाते और कुत्ते हांफने लगते हैं, तब गांवों की बड़ी-बूढ़ियां और कई बार बूढ़े भी, नीमों के पेड़ों तले नई नवेलियों के कंठ से इसे सुनते हैं तो अपने जमाने में लौट जाते और आंखें पोंछने लग जाते हैं.
लेकिन जब से दुनिया ग्लोबल विलेज में बदली है, उसमें जन्मी और उसको अपनी मुट्ठी में कर लेने को आतुर नई पीढ़ी न उनकी तड़प को समझ पाती है, न इस लोकगीत की कशिश को. कई लोग कहते हैं कि वह समझना ही नहीं चाहती.
यों, उसके पास इस न चाहने के कारण भी हैं. अवध की दोनों राजधानियों अयोध्या {फैजाबाद} और लखनऊ में किसी से भी कल्कत्ता की, जो अब कोलकाता है, दूरी एक हजार किलोमीटर से ज्यादा नहीं है. इस दूरी को वायुमार्ग से ढाई तो रेल व सड़क मार्ग से चौदह से उन्नीस घंटों में तय किया जा सकता है. तिस पर अब पिया कहीं भी रहें, मोबाइल पर एक कॉल की दूरी पर रहने लगे हैं और जब भी जी में आये, उनसे कैफियत तलब की जा सकती है कि वे आयेंगे या नहीं. इसलिए नई पीढ़ी पूछती है: ‘अइहैं कि नांय’ को लेकर इतने रोने-गाने का भला अब क्या तुक? और अब पक्के घरों के जमाने में भला किस पिया को कल्कत्ता से आकर उजड़ी मड़इया छवानी पड़ती है?
बंगालिनों का काला जादू
काश, यह पीढ़ी समझती कि दुनिया हमेशा एक सी नहीं रहती. अभी बीती शताब्दी में ही, अवध के लब्धप्रतिष्ठ कवि त्रिलोचन ने खुद को ‘भूखे-दूखे’ जनपद का कवि बताते हुए एक कविता में कल्कत्ता को ‘बहुत दूर’ बताया था, तो भी न आज वाली दुनिया थी, न आज वाला अवध, न आज वाला कोलकाता.
तब ‘भूखे-दूखे’ अवध के लिए कल्कत्ता दूरदेस भी था और परदेस भी. बकौल त्रिलोचन तब अवध की हालत यह थी कि: उसके जीवन का सोता इतिहास ही बता सकता था/ धरम कमाता था वह तुलसीकृत रामायण पढ़-सुनकर, जपता था नारायण-नारायण.
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तब अवध की जवानी के भूख-प्यास और गरीबी के त्रासों से त्राण के ज्यादातर रास्ते कल्कत्ता से ही गुजरते थे. उनके तईं अवध से गुजरने वाली भाप के इंजनों वाली रेलगाड़ियां भी ‘छः-छः पइसा, चल कलकत्ता’ की हांक ही लगाती थीं.
लेकिन जब भी ये रेलें ‘चल कल्कत्ता’ की हांक लगातीं, अवध की उन नवेलियों के कलेजे में पीर उठने लगती, जिनके पिया उनके हाथों की मेंहदी या पांवों का महावर सूखने से पहले ही उन्हें कलपती छोड़कर पापी पेट का सवाल हल करने इन्हीं रेलगाड़ियों से कलकत्ता चले गये होते.
पियाविरह में ‘कोयला भई न राख’ की गति को प्राप्त इन नवेलियों को रेलगाडियों से सबसे बड़ी शिकायत यही होती कि वे उनके पिया को बंगालिनों के पास पहुंचाने का साधन थीं. नवेलियों के अनुसार उन बंगालिनों के जो उनके पिया पर काला जादूकर उन्हें तोता बनातीं और अपने पिंजरे में कैदकर उंगलियों पर नचाया करती थीं. न उनको पिंजरे से बाहर निकलने देती थीं, न ही अपने देस लौटने देतीं भी तो खुद भी उनके साथ लग लेतीं और बारह बरस से अपने देस में छाती पर पत्थर रखकर पिया की प्रतीक्षा कर रही नवेलियों को जो तब तक सास-ससुर, देवर व ननद के ताने व उलाहने सहती-सहती बुरी तरह टूट चुकी होती थीं, उनकी हसरतें परवान चढ़ने से पहले ही ढेर सारे सौतियाडाह से भर देती थीं. फिर तो होता यह कि जिनके दीदार के लिए बरसों बरस तरसती रहीं, वही पिया अचानक जेठ की भरी दोपहरी में सफेद झक नई बनियान पहने, सिर पर संदूक धरे सौत के साथ घर आ धमकते तो नवेलियों का मन होता कि दोनों को माहुर दे दें.
लेकिन बेचारी कुछ नहीं कर पातीं. एक फिल्मकार की मानें तो वे इतनी बेबस थीं और उनके पिया इतने ‘हल्के’ कि कई बार रेलगाडियों से ही नहीं उनकी झुलनियों के धक्के से भी कलकत्ता पहुंच जाते थे. तिस पर नवेलियों का भोलापन उन्हें समझने ही नहीं देता था कि उनकी ‘कोयला भई न राख’ वाली हालत के पीछे किसी काले जादू का चमत्कार नहीं, मानव मन की वह अबूझ विडम्बना है. जिसके तहत जो आंख की ओट हो जाये, उसे बिसरा दिया जाता है और जो चौबीसो घंटे आंखों के आगे रहे, उसे दिल में बसा लिया जाता है. पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था को तो खैर इससे जली-भुनी स्त्रियों के घावों पर नमक छिड़कना ही होता है.
त्रिलोचन की एक कविता में सुन्दर ग्वाले की अल्हड़ बेटी चम्पा ऐसी ही नासमझी के वशीभूत कल्कत्ते को ही अपनी सौत मान बैठती और उस पर ‘बजर’ गिराने पर उतारू हो जाती है. वह अपने चौपायों को चराती है, चंचल है, नट-खट भी और कभी-कभी ऊधम भी करती ही है. लेकिन पढ़ने-लिखने में यह बताने पर भी रुचि नहीं ले पाती कि इससे ‘हारे-गाढ़े काम सरेगा’ और गांधी बाबा की भी यही इच्छा है कि ‘सब जन पढ़ना-लिखना सीखें.
‘एक दिन कवि उसे समझाता है कि ‘चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है/ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी/कुछ दिन बालम संग-साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता/बड़ी दूर है वह कलकत्ता/कैसे उसे संदेसा दोगी/कैसे उसके पत्र पढ़ोगी/चम्पा पढ़ लेना अच्छा है! ‘लेकिन चम्पा साफ कह देती है: मैं तो ब्याह कभी न करूंगी/और कहीं जो ब्याह हो गया/तो मैं अपने बालम को संग-साथ रखूंगी/कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी/कलकत्ते पर बजर गिरे.
लेकिन कल्कत्ता पर उस अकेली के गिराये बजर कैसे गिर सकता था? इसलिए अवध के गांवों के अनेक घरों में आज भी ऐसे कलकतिये पाये जाते हैं, जो कल्कत्ता में अपनी जवानी गारत करके किसी कलमुंही ‘कलकतही’ के साथ लौटे तो ‘कलकतिहा’ होकर ही रह गये. अपने बचपन का नाम और पहचान सब गंवा बैठे.
कहने की जरूरत नहीं कि अतीत में अवध और कलकत्ता के रिश्ते बेहद ऊबड़-खाबड़ जमीन से गुजरतें रहे हैं. गुजरते भी कैसे नहीं? अवध में रोजी के साथ दाल-रोटी का जुगाड़ किया जाता है तो कलकत्ता में माछ भात का. फिर भी दोनों की संस्कृतियों का मेल हुआ तो धीरे-धीरे बात इस समझदारी तक पहंुच गई कि रेलिया न बैरी जहजिया न बैरी, उहै पइसवा बैरी ना, सइयां कां देस-देस भरमावै उहै पइसवा बैरी ना. कल्कत्ता पर बजर गिराने की हसरत रखने वाली चम्पाएं तब समझने लगीं कि जब रेलिया और जहजिया बैरी नहीं तो कलकत्ता ही क्योंकर उनका बैरी होने लगा.
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कल्कत्ता की कुछ खट्टी-मीठी यादें
बात अधूरी रह जायेगी, अगर अवध के इतिहास की कल्कत्ता से जुड़ी कुछ खट्टी-मीठी यादों का जिक्र न किया जाये. अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला 1764 में बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई में अंग्रेजों से बुरी तरह हार गये और फर्रुखाबाद के अपने शुभचिन्तक नवाब अहमद खां बंगश के सुझाव पर उन्होंने फैजाबाद को अपने सूबे की राजधानी बनाया तो सरयू तट पर विशाल ‘कलकत्ता किला’ बनवाया था. इस किले को ‘छोटा कल्कत्ता’ भी कहते थे.
संसार के इतिहास में इस जैसा शायद ही कोई और किला हों, जिसे तामीर कराने वाले शासक ने उसको अपनी शिकस्त को समर्पित किया हो. लेकिन शुजा ने इस किले को सायास अपनी बक्सर की हार कोअ समकर्पत किया और उसकी विशालता व भव्यता को अपने दुश्मनों को यह दिखाने के लिए इस्तेमाल किया कि बक्सर की हार के बाद भी अवध पर उनकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है.
मुगल शैली की वास्तुकला से निर्मित यह किला शुजा के बेटे आसफउद्दौला द्वारा अवध की राजधानी लखनऊ स्थानांतरित कर दिये जाने के अरसे बाद तक सूबे की राजनीति का केन्द्र बना रहा था, क्योंकि शुजा की मां और बहू बेगम ने आसफउद्दौला के साथ लखनऊ जाने से इनकार कर दिया और फैजाबाद में समानांतर सत्ता केन्द्र चलाती रही थीं. हां, नवाबों के पराभव के बाद 1856 में ग्यारह फरवरी को अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर कल्कत्ता के मटिया बुर्ज में ही निर्वासित किया. कहते हैं कि तब सारा अवध खून के आंसू रोया था.
लेकिन अब वक्त के थपेड़ों ने जैसे फैजाबाद को फैजाबाद नहीं रहने दिया है, कल्कत्ता को कोलकाता बना डाला है, वैसे ही बहुत-सी पुरानी यादों पर भी विस्मृति की चादर डाल दी है. उसने शुजाउद्दौला के ‘छोटे कल्कत्ता’ की उस नींव को भी साबुत नहीं रहने दिया है, जिस पर लिखा था: फोर्ट कल्कटा फैजाबाद, दिस फोर्ट वाज बिल्ट बाई शुजाउद्दौला नवाब वजीर ऑफ अवध आफ्टर हिज डिफीट इन 1764 बाई दि ब्रिटिश ऐट बक्सर.’
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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