जहां भी महिला पुलिस अच्छा प्रदर्शन करती है, सुर्खियां बड़ी आसानी से हासिल हो जाती हैं. हालांकि वर्दी वाली महिलाओं के प्रति यह आकर्षण, ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों, कुछ बताने के बदले छुपाता ज्यादा है.
हाल के वर्षों में प्रतिष्ठित भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) में महिलाओं की हिस्सेदारी ठहरी हुई रही है, ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) के आंकड़ों से पता चलता है कि यह संख्या कुल पुलिस बल में महज 12 फीसदी है. हालांकि पुलिस नेतृत्व में बढ़ती महिलाओं की हिस्सेदारी से पुलिस बल में महिलाओं की पेशेवर भूमिका पर बहस आगे नहीं बढ़ सकी. क्या महिला कांस्टेबल के पास वही अधिकार और जिम्मेदारियां हैं, जो उनके पुरुष साथियों के पास है?
साफ-साफ फर्क
पुलिस थाने का दायरा ‘बीट’ में बंटा होता है, और बीट कांस्टेबल किसी तय इलाके में अपराध की पड़ताल, शिकायतों की जांच, कानून-व्यवस्था के हालात पर काबू पाना, सामुदायिक सुरक्षा और पुलिस-जनता के बीच संबंधों का पुल बनने के लिए नियुक्त होता है. ये पुलिस व्यवस्था की जरूरी ‘एक्जिक्यूटिव’ ड्यूटी और खास पहलू होता है.
पुलिस थाने में अमूमन महिला कांस्टेबल को जनरल ड्यूटी या डेस्क ड्यूटी दी जाती है. मेरी 10 साल की सर्विस में मुझे एक भी महिला कांस्टेबल बीट की ड्यूटी नहीं मिली. यह गौर करना दिलचस्प है कि पुलिस बल में महिलाओं को शामिल करने का विचार इस तथ्य से आया कि वे महिलाओं को छू सकती हैं, गिरफ्तार कर सकती हैं, उनकी काउंसलिंग कर सकती है और समाज में महिलाओं से बात कर सकती हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि महिला कांस्टेबल संगठन के हाशिए पर रहती हैं, नाम मात्र की भूमिकाओं में दिखती हैं. पुलिस में महिलाओं को महज ‘पिंक स्क्वाड्स’ और ‘एंटी-रोमियो स्क्वाड्स’ के अलावा दूसरी जिम्मेदारियों के लिए भी विचार करने की दरकार है.
कड़क वर्दी में मलिाओं के होने भर से कार्यस्थल या घर में उन्हें बराबरी का व्यवहार हासिल नहीं हो जाता. निजी जिंदगी स्त्री-पुरुष के बीच श्रम विभाजन में जैसे महिलाएं मुख्य रूप से तीमारदारी की भूमिकाओं में रहती हैं, सार्वजनिक स्थितियों में भी उसकी वही हिस्सेदारी होती है. महिला कांस्टेबल को घर की जिम्मेदारियों को भी उसी तरह निभाना पड़ता है, जिससे उसके कार्यस्थल में आम ड्यूटी में खलल पड़ती है.
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काम और जिंदगी का उलटा संतुलन
घर और कार्यस्थल में जरूरी मददगार व्यवस्थाओं के बगैर, बच्चे पालने और स्तनपान कराने की अनोखी शारीरिक स्थिति का मतलब है कि महिला कांस्टेबल की निजी जिंदगी मेंं प्रगति से वह पेशेवर जिंदगी में पीछे छूट जाती है. इस वजह से वे खास तरह की ड्यूटी पसंद कर सकती हैं, जिससे घर में काम के असंतुलित बंटवारे को संभाला जा सके. महिला कांस्टेबल के जीवंत अनुभव और काम के प्रति उनकी धारणा को किसी सरल-सी व्याख्या में परिभाषित नहीं किया जा सकता. महिला कांस्टेबल की पेशेवर भूमिका और स्त्री के प्रति धारणाएं बड़ी उलझन पैदा करती हैं.
हालांकि, पुलिस बल में महिलाओं की दिखने वाली, मजबूत और अनिवार्य भूमिका अब अकाट्य है. अब वक्त आ गया है कि उसमें नई ताजगी लाई जाए. औरंगाबाद (ग्रामीण) की सुपरिंटेंडेंट के नाते मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि हमारे कहने पर 37 महिला कांस्टेबल ‘बीट इन-चार्ज या बीट अमलदार’ के लिए आगे आ गईं, जबकि मैंने बस कुछेक की उम्मीद ही की थी.
पुरुष और महिला कांस्टेबलों में एक्जिक्यूटिव ड्यूटी के समान बंटवारे से फौरन पुलिस बल की कारगरता बढ़ गई और लोगों का भरोसा बढ़ा, जिससे पुलिस और लोगों के बीच संबंध आसान हुए. यह सीखने वाला अनुभव था कि पुरुष और महिला कांस्टेबल आपस में मुझसे अपनी पेशेवर समस्याओं पर विचार-विमर्श करते थे. यह सुनना सुखद था कि एक नवनियुक्त महिल कांस्टेबल ने अपने इलाके में एक पुरुष शव के मिलने पंचनामा लिखने में दिक्कत महसूस की तो उसके एक पुरुष साथी ने उसकी मदद की. उनका सुपरिंटेंडेंट होने के नाते मुझसे ज्यादा खुश और कोई नहीं हो सकता था.
आगे की राह
अब वक्त आ गया है कि महिला कांस्टेबलों के लिए काम का सहज माहौल तैयार करने के लिए एक नया जज्बा भरा जाए. सक्रिय भूमिकाओं से पुलिस की बतौर संगठन कई कामकाजी चुनौतियां आसान रहेंगी और उसकी कारगरता बढ़ेगी. पुलिस नेतृत्व के लिए कामकाजी बढ़त इसे क्षेत्रीय स्तर पर अमल में लाने की अच्छी दलील हो सकती है. औरंगाबाद में महिला ‘बीट अमलदार’ की भूमिका क्षेत्रीय नेतृत्व के सहयोग और संकल्प से संभव हुई.
देश में लोगों को बेहतर पुलिस व्यवस्था मुहैया कराने के लिए ऐसे प्रमुख संगठनात्मक बदलाव जरूरी हैं. फिर, फील्ड ड्यूटी के लिए आवास, टॉयलेट, बाल गृह, लंबे दौरों, और देर तक शारीरिक मेहनत के मुद्दे भी अहम हैं. इसके बावजूद पुलिस बल में मर्दों और औरतों ने बड़ी चुनोतयों के दौर में समाज की सेवा की है. अब वक्त आ गया है कि महिला कांस्टेबल को सक्रिय भूमकाएं दी जाएं और सभी मामलों की पड़ताल तथा उनके बीट की आधिकारिक ड्यूटियां दी जाएं.
यह कहा जा सकता है कि स्त्री की आम भूमिकाओं पर गहराई से गौर किए बगैर सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं को शुमार करना ‘अव्यावहारिक’ होगा. हालांकि ‘व्यावहारिकता’ के मुद्दों की चिंता से थोड़ी-सी समस्याएं ही सुलझ पाई हैं. आदर्श तय करना और उस दिशा में लगन से बढ़ना ही धीरे ही सही राह दिखाता है, चाहे घर हो या कार्यस्थल.
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(मोक्षदा पाटिल आईपीएस अफसर हैं. विचार निजी हैं)
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