युद्ध का चरित्र हमेशा बदलता रहा है और आगे भी बदलता रहेगा. कभी खत्म न होने वाले सिलसिले के तहत यह तलवार-कवच से चल कर आज बैलिस्टिक और एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम के इस्तेमाल तक पहुंची है और आगे भी युद्ध के लिए नए-नए ‘वेपन सिस्टम’ ईज़ाद होते रहेंगे. इसलिए सेनाओं को युद्धक्षेत्र के भावी स्वरूप पर नज़र टिका कर रखना पड़ती है और अगली चुनौतियों का पूर्वानुमान लगाते हुए उनका सामना करने वाले नए हथियार और वेपन सिस्टम विकसित करने पड़ते हैं. ऐसा कर पाने में विफलता का अर्थ यह होगा कि आगामी युद्ध बीते हुए कल के हथियारों से लड़ने पड़ेंगे.
अमेरिका के पूर्व रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने एक बार कहा था, “आप युद्ध में उसी सेना के साथ उतरते हैं जो सेना आपके पास होती है, न कि उस सेना के साथ जिसकी कामना आप आगे के किसी समय के लिए करते हैं.” फिर भी, दुनिया भर की सेनाओं को युद्ध या युद्ध जैसी स्थितियों के दौरान प्रयोग करने की जगह, शांति के काल में भविष्य का पूर्वानुमान तो लगाना ही चाहिए.
भावी युद्धक्षेत्र के परिदृश्य की कल्पना में मौजूदा और उभरती टेक्नोलॉजी का और उसका हथियार के रूप में किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है तथा इसके चलते भावी युद्ध का क्या स्वरूप हो सकता है, इन सबका ख्याल रखना चाहिए. इससे ऐसे नए सिद्धांत उभरेंगे, जो इन वेपन सिस्टम्स के इस्तेमाल पर आधारित होंगे. उदाहरण के लिए टैंकों के विकास ने ‘ब्लिज़क्रेग’ (संयुक्त प्रहार) की अवधारणा को जन्म दिया था, जिसका इस्तेमाल जर्मनी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में किया. जो सेना भविष्य के लिए तैयार बेहतर हथियार के साथ युद्ध में उतरती है उसके हावी होने की संभावना ज्यादा होती है.
भविष्य के युद्ध के लिए तैयारी
भारतीय सेना ने पुराने हो रहे टैंकों और सैनिक वाहनों की जगह क्रमशः ‘फ्यूचर रैडी कॉम्बैट व्हीकल’ (एफआरसीवी) और ‘फ्यूचर इनफैंट्री कॉम्बैट व्हीकल’ (एफआइसीवी) लाने का जो कार्यक्रम बनाया है वो इस बात का उदाहरण है कि सेना उन हथियारों के जरिए लड़ना चाहती है जिसकी आकांक्षा कोई सेना रखती है. वैसे, सेना पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वो जब आधुनिक हथियारों की मांग का प्रस्ताव रखती है तब तारे तोड़ लाने जैसी बातें करने लगती है. आज यह ऐसा लग सकता है, परंतु जब आप गौर करेंगे कि जिन हथियारों की आज कल्पना की जा रही है वे आज से 30-40 साल बाद इस्तेमाल में होंगे, तब सेना की मांग के बारे में आप ऐसा आरोप नहीं लगाएंगे. अगर आज उपलब्ध तकनीक के आधार पर कोई हथियार बनाया जाता है तो वो सेवा में लाए जाने तक पुराना पड़ जाएगा.
बीते कल की विज्ञान कथा आज की वास्तविकता है और आज की विज्ञान कथा कल की हकीकत बन जाएगी. जूल्स वेर्ने ने 1860 के दशक में जब ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग्स अंडर द सी’ में ‘नॉटिलस’ नामक पनडुब्बी की रोमांचक कहानी लिखी थी तब किसने सोचा होगा कि इसके 50 साल के अंदर ही पनडुब्बियां समुद्री युद्ध का अनिवार्य साधन बन जाएंगी?
सन 1400 में जब लियोनार्दो डा विंची ने एक ‘एअर स्क्रू’ का स्केच बनाया था तब किसने कल्पना की होगी यह आज हेलिकॉप्टर के रूप में सामने आएगा? कल्पना की इन उड़ानों ने आज वेपन सिस्टमों का रूप धारण कर लिया है. वास्तव में विंची ने कई दूसरे सिस्टम्स के रेखाचित्र भी बनाए थे जिनमें टैंक, पैराशूट, पानी के अंदर सांस लेने के यंत्र और रोबो योद्धा के भी चित्र शामिल थे. उस समय टेक्नोलॉजी की सीमाओं के कारण कुछ को ही ठोस रूप दिया जा सका था, लेकिन उपयुक्त टेक्नोलॉजी के विकास के साथ इन कल्पनाओं को साकार किया गया. इसलिए, भविष्य के युद्ध की तैयारी के लिए हाथ-पैर मार रही सेना की कल्पना की उड़ानों के लिए हम उसकी निंदा न करें.
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विचारों से मिलती है ‘आर-एंड-डी’ की प्रेरणा
ज्यादा अहम बात यह है कि इन कथित भविष्योन्मुखी विचारों और अवधारणाओं से अग्रणी टेक्नोलॉजी तथा अज्ञात क्षेत्रों में अनुसंधान तथा विकास (आर-एंड-डी) को बढ़ावा मिलता है. दुनिया में दूसरी जगह किए गए आर-एंड-डी को दोहराने पर अपना दुर्लभ संसाधन खर्च करने का कोई लाभ नहीं है. नए प्रस्तावों पर काम शुरू करते हुए हमारे ‘डीआरडीओ’ को इस बात का ख्याल रखना चाहिए और आला टेक्नोलॉजी पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए. अमेरिका के साथ ‘इनीशिएटिव ऑन क्रीटिकल ऐंड इमरजिंग टेक्नोलॉजीज़’ (आइसीईटी) नामक जो समझौता हुआ है उसका उद्देश्य यही है— जिस क्षेत्र में हमें वर्षों आगे निकलना ज़रूरी है उन्हीं में अनुसंधान करके आगे बढ़ना.
यह अनुसंधान तथा विकास परिवर्तनकारी होना चाहिए, जैसे कीड़ा तितली में बदल जाता है, न कि वह कीड़ा ही इतना बड़ा और मोटा होता जाए कि वह आगे बच ही न पाए. उम्मीद जगाने वाली बात यह है कि विजय राघवन पेनेल ने डीआरडीओ के लिए जिन सुधारों के सुझाव दिए हैं वे उसे सही दिशा में ले जाएंगे. इन सुधारों में इसके ढांचे, कामकाज और मानव संसाधन में व्यापक परिवर्तन के सुझाव भी शामिल हैं.
सेनाएं अपनी कल्पना को उड़ान तो दे सकती हैं, लेकिन उन्हें ऑपरेशन संबंधी यथार्थपरक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपनी ज़रूरतों को तय करना होगा. हम जिस भारतीय उपमहादेश में ऑपरेट करते हैं उसमें इलाकों और जलवायु के मामले में काफी विविधता है.
इस विविधता भरे पूरे परिदृश्य के लिए कोई एक वेपन सिस्टम कारगर नहीं हो सकता. इन सिस्टम्स को रेगिस्तान, मैदानी इलाके, पहाड़ों, ऊंची जगहों, जंगली इलाकों के लिए अलग-अलग सिद्धांत के आधार पर ही तैनात किया जा सकता है.
इसलिए, इलाके और ऑपरेशन की मांग के मुताबिक यह देखना होगा कि कहां क्या अहम, ज़रूरी और अपेक्षित सिस्टम हो सकती है. अहम तथा ज़रूरी मानदंड पूरे होते हों तो उस सिस्टम को लागू करने लायक माना जा सकता है. अपेक्षित मानदंडों को भावी मॉडल के रूप में या अपेक्षित टेक्नोलॉजी के सामने आने पर चक्राकार विकास में समाहित किया जाना चाहिए, यह सिस्टम की कल्पना करने और उसे लागू करने के बीच के समय को काफी कम कर सकता है, जबकि आधुनिकीकरण करने या सेक्टर के हिसाब से बदलाव करने की गुंजाइश बनी रहेगी.
उदाहरण के लिए रेगिस्तानी इलाके में सिस्टम के लिए एअर-कन्डीशनिंग की और पहाड़ी इलाकों में हीटर की व्यवस्था की जा सकती है, जबकि एक ही प्लेटफॉर्म में दोनों की ज़रूरत नहीं पड़ सकती है. एक सर्वोत्तम प्लेटफॉर्म के लिए सब कुछ हासिल करने के चक्कर में सिफर ही हमारे हाथ आ सकता है. फ्रांसीसी विचारक वोल्तेयर की यह उक्ति अक्सर दोहराई जाती है कि सर्वश्रेष्ठ जो है वह अच्छे का दुश्मन है. इसका अर्थ यह है कि जिससे अधिकतर मानदंड पूरे होते हों उसे पर्याप्त अच्छा माना जा सकता है.
इसलिए, समय की मांग यह है कि सभी दावेदार — शैक्षिक समुदाय, थिंक टैंक, उद्योग, और सबसे अहम मुख्य यूजर— पूरे तालमेल से काम करें. एक पुनरावर्ती प्रक्रिया ज़रूरी है ताकि आर-एंड-डी (चाहे असैनिक मकसद के लिए हो या सैन्य उद्देश्य के लिए) अलग-थलग न चलाया जाए. टेक्नोलॉजी और सिद्धांतों का विकास साथ-साथ हो ताकि कोई विसंगति न पैदा हो या बाद में अतिरिक्त जोड़तोड़ की जरूरत न पड़े. तभी हम अपनी इच्छा के अनुरूप सेना के साथ भविष्य के युद्ध लड़ सकेंगे.
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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