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Sunday, 22 December, 2024
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बड़ी रैलियां न करने की वजह से UP में BSP को खारिज न करें, जमीन पर उसके काडर को तो देखिए

ज्यादातर मीडिया सर्वे इस चुनाव में बीएसपी के खराब प्रदर्शन की भविष्यवाणी कर रहे, मगर यूपी में यह नुकसान सिर्फ ऊपरी धारणाओं का खेल.

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इस बार उत्तर प्रदेश चुनावों में न्यूज चैनलों के कुछ ओपिनियन पोल में मायावती की बहुजन समाज पार्टी या बीएसपी को महज तीन सीटें मिलने की भविष्यवाणी करती रही है. मान्यवर कांशीराम द्वरा स्थापित पार्टी इतिहास के अहम मोड़ पर खड़ी है. 2022 के विधानसभा चुनावों में बीएसपी का प्रदर्शन तय करने जा रहा है कि वह राजनीति के केंद्र में लौटेगी या और हाशिए पर चली जाएगी.

ज्यादातर मीडिया सर्वे और अनुमानों में इस चुनाव में भी बीएसपी के बेहद खराब प्रदर्शन की भविष्यवाणी की गई है. कुछ ने उसे 13 फीसदी वोट मिलने की बात की है, तो ज्यादातर उसे तकरीबन 7 से 15 सीटें दे रहे हैं. पिछले तीन दशकों में बीएसपी की वोट हिस्सेदारी 20 फीसदी से नीचे नहीं गई. सबसे खराब प्रदर्शन वाले 2017 के विधानसभा चुनावों में भी नहीं. क्या दलित वोटों पर दावा ठोंकने वाली पार्टी इस कदर सिकुड़ जाएगी? जबकि यूपी की आबादी में 21 फीसदी दलित हैं. बीएसपी चार बार राज्य की सत्ता में रही है और 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकी है.

अपने तगड़े वोट आधार के बल पर बीएसपी यूपी में विभिन्न जातियों और समुदायों के साथ व्यापक गठजोड़ की छतरी कायम कर चुकी है. लेकिन अब बिखरने और पतन की राह पर है. उसकी यह कमजोरी पिछले कुछ विधानसभा और लोकसभा चुनावों के नतीजों में दिखी है.

इस बार मायावती की बड़ी रैलियों के जरिए आक्रामक प्रचार अभियान चलाने और मीडिया में सुर्खियां बटोरने में नाकाबिल रहने से बीएसपी को आम धारणा में नुक्सान उठाना पड़ा है. इस मामले में उसकी गैर-मौजूदगी से मीडिया और राजनैतिक पंडितों ने यह कहना शुरू कर दिया कि 2022 का चुनाव भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और समाजवादी पार्टी (एसपी) के बीच दो तरफा होने जा रहा है. मैं यह नहीं कहता कि मायावती की अगुआई में बीएसपी सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ सत्ता की मुख्य दावेदार होने जा रही है, लेकिन पार्टी के हाशिए पर जाने की जो छवि बनाई गई है, उसका जमीनी हकीकत से तालमेल बैठाना मुश्किल है.


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बीएसपी का काडर मैदान में है

हमने कई महीनों से बीएसपी के कार्यकर्ताओं को चुपचाप जमीन पर काम करते देखा है. बीएसपी की राजनैतिक संस्कृति कभी भी ‘बड़ी रैलियों’ पर केंद्रित नहीं रही है. शुरुआत से ही उसके कार्यकर्ता और नेता घर-घर प्रचार करते रहे हैं और दलितों तथा बहुजनों की बस्तियों में छोटी सभाएं करते रहे हैं. इसलिए मायावती की बड़ी रैलियों के अभाव में बीएसपी के निष्क्रिय होने की मौजूदा धारणा सही नहीं हो सकती है.

हालांकि, चुनाव में रैलियों की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. समर्थकों में जोश भरने और दूसरे वोटरों को गोलबंद करने तथा हाशिए के वोटरों को अपनी ओर लाने के लिए यह जरूरी है. इस साल चुनाव आयोग की कोविड पाबंदियों के जारी होने के पहले रैलियां न कर पाने से बीएसपी को कुछ वोटों का घाटा हो सकता है, लेकिन हमने पाया है कि मायावती का काडर ‘भाईचारा कमेटियों’ के जरिए अपने वोट जनाधार से अलग समुदायों में काम कर रहा है. भाईचारा कमेटियों में कुर्मी, मौर्य, राजभर जैसी ओबीसी जातियों के अलावा ब्राह्मण और दलित भी हैं.

दूसरे, मायावती को अपने समर्थकों को संदेश देने के लिए ज्यादा कुछ बोलने की जरूरत नहीं होती, कुछ ही बातों से वे गोलबंद हो जाते हैं. मायावती ने हाल में ही कांशीराम और अपने जन्मदिन पर सार्वजनिक मौजूदगी दर्ज की है. उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से कांशीराम के सपनों को साकार करने और बीएसपी की जीत के लिए काम करने को कहा.

मीडिया ने पहले दिखाया कि कैसे मायावती अपने मंडल संयोजकों की बैठक बुलाकर अपने काडर की गतिविधियां की फीडबैक लेंगी. यह जरूर है कि बीएसपी राजनैतिक धारणा बनाने के मामले में ज्यादा कुछ नहीं कर रही है और अभी भी जमीनी स्तर पर ही चुनाव लड़ रही है. लेकिन उसका घर-घर प्रचार और छोटी बैठकों की संस्कृति कोविड के दौर में मददगार हो सकती है और यूपी के चुनाव को कई विधानसभा क्षेत्रों में तिकोना बना सकती है. दरअसल घर-घर प्रचार के मामले में बीएसपी शायद बीजेपी के बाद दूसरे नंबर पर है.


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बीएसपी को खारिज न करें

बीएसपी की सबसे ज्यादा गैर-मौजूदगी डिजिटल मामले में है. लेकिन पिछले पांच साल में पार्टी ने अपनी डिजिटल ताकत बढ़ाने की कोशिशें की हैं. इस चुनाव में बीएसपी ने जिला स्तर पर अच्छा डिजिटल वॉर रूम स्थापित किया है और उसे लखनऊ में राज्य डिजिटल वॉर रूम से जोड़ा है.

बीएसपी की राजनीति की कामयाबी हमेशा अपने मूल आधार के वोट से दूसरे वोटों को जोड़ने से होती रही है, इसलिए उम्मीदवार का सामाजिक आधार और जीत की काबिलियत काफी मायने रखती है. पार्टी ऐसे उम्मीदवार उतारने की कोशिश करती है, जो उसके सामाजिक गठजोड़ को बढ़ाएं.

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बीएसपी समाजवादी पार्टी की जगह ले लेगी और बीजेपी से सीधे टक्कर में आ जाएगी. लेकिन वह यूपी में कई सीटों पर मुकाबला तिकोना कर सकती है. अभी तो मायावती को खारिज मत करिए.

लेखक जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद के निदेशक और प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @poetbadri. ये विचार निजी हैं

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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