दोनों पक्षों के नकारात्मक विरोधियों की मौजूदगी के बावजूद भारत-अमेरिका संबंध दिन-पर-दिन और मजबूत होते जा रहे हैं. इसका बहुत कुछ श्रेय बीजिंग को भी जाता है जिसने इस रिश्ते को आगे बढ़ाने का सारा बोझ अपने कन्धों पर उठाया हुआ है और वह इस कारण इसके लिए पैदा होने वाली कठिनाइयों या यूं कहें कि सामान्य बुद्धि ज्ञान से भी अप्रभावित बना हुआ है.
इस बीच, कूटनीति विशेषज्ञों का एक अन्य वर्ग लगातार भारतीय टिप्पणीकारों को भारत-अमेरिका साझेदारी के मूल/केंद्रीय उद्देश्य और दायरे पर अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए कह रहा है, क्योंकि ऐसा करना आवश्यक भी है. दूसरी तरफ कुछ लोग इस साझेदारी को चीन का मुकाबला करने के लिए आपसी सहयोग के इसके प्राथमिक उद्देश्य से भटकाने के आशय से इन संबंधों पर अतिरिक्त बोझ डालने की कोशिश करना चाहते हैं. न तो अफगानिस्तान की स्थिरता, और न ही भारत का कमजोर उदारवाद ऐसी समस्याएं हैं जिन्हें भारत-अमेरिका साझेदारी के द्वारा हल किया जा सकता है. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की हाल की भारत यात्रा से यह साफ-साफ दिखाता है कि दोनों देशों की सरकारें अब ऐसे बाहरी दबावों से निपटने में काफी हद तक सक्षम हैं, लेकिन सार्वजनिक बहस, विशेष रूप से भारत में, में इसे समझा नहीं जा सका है.
भारत-अमेरिका सम्बन्ध और अफगानिस्तान
अफगानिस्तान के मामले में पहले तो नई दिल्ली के लिए इस बात की उम्मीद करना भी मूर्खता थी कि अमेरिका अफगानिस्तान को तालिबान के हाथों में जाने से बचाने के लिए हमेशा अपना खून और पैसा बहता रहेगा. दरअसल, कम-से-कम तीन कारणों से अमेरिका का अफगानिस्तान में बने रहना भारत के हित में भी नहीं है. सर्वप्रथम, अफगानिस्तान में टिके रहना और वहां लगातार अपनी ऊर्जा शक्ति खर्च करना अमेरिका की उस शक्ति को कमजोर करता है जिसे वह चीन को संतुलित करने में प्रयुक्त कर सकता है. आज के सन्दर्भ में यह भारत के लिए अपेक्षाकृत कहीं अधिक महत्वपूर्ण रणनीतिक उद्देश्य है.
दूसरा, जब तक अमेरिका अफगानिस्तान में फंसा रहेगा, तब तक वह रावलपिंडी का भी बंधक बना रहेगा. उसके अफगानिस्तान छोड़ने का मतलब यह होगा कि वह (अमेरिका) पाकिस्तानी ब्लैकमेल (भयादोहन) की काफी काम परवाह करेगा, यह एक ऐसी चीज होगी जो भारत के लिए बहुत अधिक लाभप्रद है. तीसरा, जब भारत ने स्वयं अफगानिस्तान के लोगों की रक्षा के लिए अपनी सेना भेजने के प्रति काफी कम इच्छाशक्ति दिखाई है, तो भारतीयों का अमेरिका से अफगानिस्तान में डटे रहने के लिए कहना काफी कम विश्वसनीय लगता है.
हालांकि, अमेरिका अब तक अफगानिस्तान में भारत की और अधिक अथवा बड़ी भूमिका निभाने की अनुमति देने से हिचकता रहा है, फिर भी सच कहा जाए तो उसकी इस तरह की आपत्तियां भी भारत के लिए एक अच्छा बहाना साबित होती रही हैं. इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल है कि भारतीय नीति निर्माता या सामरिक चिंतक अफगानिस्तान में किसी भी भारतीय सैन्य अभियान का समर्थन करेंगे. इसबारे में आम लोगों की राय की तो बात करना हीं बेकार है.
यहां इस तरह के विचार के दो विपरीत बिन्दुओ (काउन्टर्पॉइन्ट) पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है. सबसे पहले, अफगानिस्तान और उसके लंबे समय से पीड़ित लोगों का भविष्य. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अगर तालिबानी ठग अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमा लेते हैं तो यह उस देश के लिए एक बड़ी आपदा के सामान होगा. जाहिर है, अफगानिस्तान पर तालिबान को कब्ज़ा करने से रोकने के लिए भारत और अमेरिका दोनों को अफगान राष्ट्रीय सैन्य बलों को मजबूत करने के लिए जितना हो सके उतनी मदद करनी चाहिए. काबुल की सरकार का साथ छोड़ कर और तालिबान के साथ रिश्ते की राह तलाशना मूर्खता हीं होगी क्योंकि इस बात की बहुत कम संभावना है कि तालिबान रावलपिंडी के पल्लू से खुद को अलग कर पाएगा. लेकिन यह लड़ाई अंततः कमोबेश अफगानों को ही लड़नी पड़ेगी.
दूसरा मुद्दा है अफगानिस्तान से उत्पन्न होने वाला आतंकवाद का खतरा, जिसको तुलना उस तरह के हालात से की जा रही है जिसका सामना भारत ने 1990 के दशक में किया था. यह कोई गंभीर आपत्ति नहीं है. भारत जिस तरह के आतंकवादी खतरे का सामना कर रहा है, वह पाकिस्तान की हरकतों का परिणाम है, न कि अफगानिस्तान के कारण. सीधे शब्दों में कहें तो भारत किसी भी तरह की अफगानिस्तान समस्या का सामना नहीं कर रहा है; इसकी असल समस्या तो पाकिस्तान है. लेकिन इसका समाधान पाकिस्तान पर हीं केंद्रित होना चाहिए, जो एक छोर पर कूटनीतिक प्रयासों से लेकर दूसरे छोर पर सैन्य जवाबी कार्रवाई तक हो कुछ भी सकता है. वर्तमान में भारतीय नीति इन विस्तृत विकल्पों में से दूसरे वाले छोर (सैन्य कार्यवाही) की ओर हीं ज्यादा बढ़ती दिखाई दे रही है.
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यहां भारत को भी अपनी गलतियों को स्वीकार करना चाहिए. समूचे कश्मीर पर अपने दावों के बावजूद, भारत ने कभी भी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) को ताकत या कूटनीति के माध्यम से पुनः प्राप्त करने की कोशिश नहीं की है. जबकि पाकिस्तान ने बार-बार यह काम किया है. अगर भारत ने गिलगित-बाल्टिस्तान इलाक़े पर अपना कब्ज़ा फिर से हासिल कर लिया होता, तो वह इस क्षेत्र के भू- राजनीतिक हालात को बदल देता और यह अफगानिस्तान के साथ एकमात्र व्यावहारिक क्षेत्रीय संपर्क मार्ग के रूप में पाकिस्तान को मिली महत्वपूर्ण स्थिति को समाप्त कर देता. साथ हीं यह (भौगोलिक रूप से ) पाकिस्तान को चीन से भी काट देता. इसके बजाय, हम अफ़ग़ानिस्तान के मामले में पाकिस्तान द्वारा अपनी लाभप्रद स्थिति का दोहन करने के बारे में कलपते रहते हैं और अफगानिस्तान से अमेरिका की सैन्य वापसी या फिर चीन द्वारा भारतीय-दावे वाले इलाके के माध्यम से (बीचोबीच) सीपीईसी गलियारे के निर्माण के बारे शिकायत करते रहते हैं, जिनमें से कोई भी तरीका हमारे लिए विशेष रूप से उपयोगी नहीं दिखता है.
भारत में लोकतंत्र के हालात
इसी तरह की समस्याएं उस प्रमुख मांग – भारत के उदार लोकतंत्र की रक्षा- के साथ भी हैं जो भारत-अमेरिका संबंधों पर लादी जा रही हैं. यह दो कारणों से एक खोखली आशा लगती है: पहला यह कि भारत के अंदरूनी राजनीतिक मामलों में अमेरिका की कोई भी प्रत्यक्ष भागीदारी प्रतिकूल परिणामों वाली साबित होगी क्योंकि इससे अमेरिका-भारत संबंधों में और अधिक तनाव पैदा होगा और साथ हीं यह नरेंद्र मोदी सरकार के व्यवहार/रवैये को बदलने में बहुत कम कारगर होगा. उदारवादी सिद्धांतों, विशेष रूप से राजकीय शक्ति के मनमाने उपयोग को सीमित करने और व्यक्तिगत अधिकारों एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने, के प्रति भारतीय सरकारों की प्रतिबद्धता हमेशा से संदेह के दायरे में रही है. अगर आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार के संभावित अपवाद को छोड़ दे तो पिछली सरकारों की तुलना में वर्तमान सरकार का भी इस बारे में रिकॉर्ड कतई उत्साहजनक नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में यह और ज्यादा खराब हो गया है.
लेकिन यह कोई ऐसी समस्या नहीं है जिसे अधकचरे बाहरी हस्तक्षेप से हल किया जा सकता है. भारत के घरेलू राजनीतिक मामलों के समाधान के कार्य को किसी विदेशी शक्ति के सुपुर्द करना बेवकूफी हीं है. भारत की राजनीतिक समस्याओं का समाधान निकलने के लिए घरेलू स्तर पर राजनैतिक कार्रवाई और सक्रियता की आवश्यकता है. इस बारे में दुखद सच्चाई तो यह है कि सरकार इस तरह का व्यवहार कर सकने में इसलिए सक्षम हो रही है क्योंकि भारत का विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस पार्टी, काफ़ी दयनीय स्थिति में है. जब तक विपक्ष कमजोर और विभाजित रहेगा, तब तक भारत की राजकीय शक्ति के दुरूपयोग पर लागम लगाने का कोई रास्ता नहीं मिलने वाला.
बेशक, यह अपने आप में एक अच्छा सवाल है कि अमेरिका ऐसा करना चाहेगा भी या नहीं! हालांकि अमेरिका पर लोकतंत्र को अपनी विदेश नीति के केंद्र में रखने का आरोप लगाया गया है, फिर भी वाशिंगटन आमतौर पर इस बारे में काफी ‘व्यावहारिक’ रवैया अपनाता रहा है कि कब वह (किसी और देश में) लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहता है और यह आमतौर पर तभी होता है जब अन्य अधिक महत्वपूर्ण अमेरिकी हित ऐसा करने के रास्ते में बाधा नहीं बनते हैं. ऐसे मुद्दों पर अमेरिकी बयानबाजी शायद ही कभी इसकी वास्तविक नीति का संकेतक होती है. जो बाइडेन प्रशासन ने भी पिछले कुछ महीनों में खुद को बेहद सावधान, संवेदनशील और रणनीतिक रूप में पेश किया है, जो निस्संदेह चीन के साथ इसकी तेजी से उभरते हुए शक्ति संघर्ष द्वारा उत्पन्न किये गए ‘अनुशासन’ का परिणाम है.
भारतीय राजनीति में आई इस गिरावट को हमारे जैसे इससे संबंधित लोगों को हीं ठीक करना होगा, न कि किसी बाहरी शक्ति द्वारा. भारत और अमेरिका दोनों हीं कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं, लेकिन भारत एवं अमेरिका की साझेदारी उनमें से अधिकांश का समाधान करने के लिए नहीं है, बल्कि यह दोनों के सामने मौजूद एक ताकतवर संयुक्त चुनौती का सामना करने के लिए है.
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. वे @RRajagopalanJNU से ट्वीट करते है. प्रस्तुत विचार निजी हैं.)
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