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Sunday, 22 December, 2024
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हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास कोविड महामारी से लड़ाई में बाधक है, मोदी सरकार ऐसा कभी नहीं चाहेगी

माहौल को खराब करने की कोशिश करने वालों को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की बातों पर ध्यान देना चाहिए जिन्होंने तुच्छ राजनीतिक उद्देश्यों के ऊपर राष्ट्रीय हितों को तरजीह दिए जाने पर ज़ोर दिया है.

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मारक कोरोनावायरस महामारी के प्रबंधन का भारी दबाव झेल रही नरेंद्र मोदी सरकार कभी नहीं चाहेगी कि ऐसे समय में उसे समुदायों के बीच तनाव की समस्या से भी निपटना पड़े. भारतीय समाज के कुछ वर्गों में मुस्लिम दुकानदारों और विक्रेताओं के बहिष्कार की मांग सीएए के विरोध के दौरान जेएनयू के पूर्व छात्र शरज़ील इमाम द्वारा ‘असम को शेष भारत से काट देने’ के आह्वान के कुछ महीनों के बाद सामने आई है.

समुदायों के बीच इस तरह का अविश्वास कोरोनावायरस के खिलाफ लड़ाई में देश के लिए मददगार साबित नहीं हो सकता. लेकिन यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि ऐसे मतभेदों के बुनियादी कारण क्या हैं.

दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ में तबलीगी जमात के सम्मेलन को मुसलमानों के प्रति विद्वेष के मामलों में अचानक वृद्धि के लिए सीधे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. सम्मेलन को रद्द कर दिया गया था, लेकिन जो प्रतिभागी वहां एकत्रित हो चुके थे उन्हें पूरे भारत में अपने-अपने घरों को लौटने दिया गया– निश्चय ही यह प्रशासन की एक गंभीर भूल थी, जो ना तो इसके सामाजिक प्रभाव और ना ही कोरोनावायरस के प्रसार में इसके योगदान की परिकल्पना कर पाया.

जब तार्किकता काम नहीं करती

इस घटना के विरोध में भारी सामाजिक प्रतिक्रिया देखने को मिली. कोविड-19 संकट से निपटने के एकमात्र प्रभावी उपाय लॉकडाउन के समानांतर रखकर तबलीगियों के व्यवहार को एक असामाजिक कृत्य मान लिया गया. जब जनता इस तरह के मुद्दों पर अपनी राय बनाती है, तो तर्कों और दलीलों को नज़रअंदाज़ किए जाने की आशंका प्रबल हो जाती है.

सोशल मीडिया संदेशों के अलावा डॉक्टरों, नर्सों और अन्य चिकित्साकर्मियों के साथ अत्यधिक घृणित और निंदनीय व्यवहार, पुलिसकर्मियों पर हमले तथा स्वास्थ्य एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं पर पथराव के अनियंत्रित समाचार और वीडियो खुलकर चलाए गए. इनमें से कुछ घटनाएं वर्तमान संकट से असंबंधित पाई गईं, जबकि कुछ समाचार और वीडियो झूठे और फर्जी थे. लेकिन जब विश्वसनीय जानकारी समय पर उपलब्ध नहीं होती है, तो इस तरह के भड़काऊ संदेश विश्वसनीयता हासिल कर लेते हैं.

बहिष्कार के आह्वान को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए, जो इधर-उधर के स्रोतों से आया था और जिसका असर एक सीमित इलाके और प्रभाव क्षेत्र से आगे नहीं जाता है. त्वरित प्रचार की घटिया प्रवृति वाले तत्वों द्वारा ‘आदमी ने कुत्ते को काटा’ पर केंद्रित मीडिया का ध्यान खींचने के लिए ऐसे मुद्दे उठाया जाना असामान्य बात नहीं है.

यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत के विवेकपूर्ण शब्दों को याद करना समीचीन होगा, जिन्होंने तुच्छ राजनीतिक उद्देश्यों के ऊपर राष्ट्रीय हित को महत्व दिए जाने की ज़रूरत बताई है. नागपुर में, 26 अप्रैल को, एक कार्यक्रम में भागवत ने कहा था कि एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाते हुए पूरी आबादी को एक इकाई के रूप में देखना महत्वपूर्ण है, जहां कोई भी राहत प्रयासों से छूट नहीं पाए.

किसी एक व्यक्ति की गलती के कारण पूरे समुदाय से दूरी नहीं बनाने की उनकी अपील, बढ़ते इस्लामोफोबिया और मुसलमानों के बहिष्कार के आह्वान के माहौल में बहुत ही महत्वपूर्ण है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष से आई इस सलाह को उन लोगों द्वारा गंभीरता से लिया जाना चाहिए जो अपने गैर-जिम्मेदाराना बयानों और बेतुके सुझावों से माहौल को खराब करने का प्रयास कर रहे हैं.

व्यापार बहिष्कार: आसान पर प्रतिकूल मार्ग

दुर्भाग्य से व्यापार का बहिष्कार उन देशों के लिए भी आसान उपाय प्रतीत होता है, जो अपने राष्ट्रीय या धार्मिक हितों और मान्यताओं के लिए हानिकर व्यवहार के खिलाफ प्रतिशोधात्मक कदम उठाना चाहते हैं. जापानी हमले के बाद चीन ने 1930 के दशक में जापानी सामानों का बहिष्कार किया था. हाल के वर्षों की बात करें तो 2012 में चीन ने सेनकाकू द्वीप में नौकाओं की टक्कर, जिससे दोनों देशों के बीच संघर्ष की स्थिति बन गई थी, के बाद जापानी सामानों पर प्रतिबंध लगा दिया था.

रंगभेद की सजा के तौर पर दक्षिण अफ्रीका के बहिष्कार की कहानी इतिहास में विस्तार से अंकित है. इसी तरह 2005 में युलांड्स-पोस्टेन अखबार द्वारा विवादास्पद कार्टून के प्रकाशन के बाद कुछ मुस्लिम-बहुल देशों ने डेनिश वस्तुओं का बहिष्कार किया था. यहां तक कि अमेरिका ने भी इराक युद्ध के दौरान फ्रांसीसी वस्तुओं के बहिष्कार की आधिकारिक घोषणा की थी. ईरान के खिलाफ पिछले चार दशकों में कई तरह के अमेरिकी प्रतिबंध, दूसरे परमाणु परीक्षण के बाद भारत के खिलाफ लगाए गए प्रतिबंध और म्यांमार के सैन्य नेताओं के खिलाफ प्रतिबंध, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहिष्कार की उन अनेक घटनाओं में शामिल हैं जो अंततः प्रतिकूल कदम साबित हुए थे.

इसके विपरीत सामाजिक बंधन और एकता तमाम विषम परिस्थितियों में भी समय की कसौटी पर कामयाब साबित हुए है. हालांकि इसे हासिल करने के लिए, हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों के ज़िम्मेदार और समझदार तत्वों को परस्पर साथ आते हुए, विशेष कर मौजूदा संकट की स्थिति में, एकजुटता की ज़रूरत पर लोगों को जागरूक बनाने के प्रयास करने होंगे.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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