अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के दिन जब खबर आई कि लॉकडाउन या तालाबंदी की वजह से देश के अलग-अलग राज्यों में फंसे मजदूरों को अपने घर लौटने की इजाजत सरकार ने दे दी है तो इसे एक बड़ी राहत की तरह देखा गया. राजस्थान, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र या किसी अन्य राज्य से हजार डेढ़ हजार या दो हजार किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव की ओर मजबूरी में पैदल ही चल पड़े हजारों लोगों की भीड़ के बीच मजदूरों के लिए ट्रेन या बस की व्यवस्था राहत की बात है भी.
कोरोनावायरस या कोविड-19 महामारी के हवाले से 24 मार्च को जब अचानक ही देशभर में लॉकडाउन लगा तो उसके बाद सबसे बड़ी चुनौती उन लोगों के सामने खड़ी हो गई, जिनका रोजी-रोजगार छिन गया और वे कुछ घंटे के भीतर ही हर जगह से लाचार और बेठौर हो गए. पहले से ही असुरक्षित और अस्थायी नौकरियों से लेकर हर स्तर की दिहाड़ी छिन जाने और मकान मालिकों की बेरुखी के बाद हजारों लोगों के सामने सड़क पर आ जाने के सिवा कोई चारा नहीं बचा. अकेला विकल्प अपने गांव लौट जाना था, जहां जाने के लिए सारे साधन बंद हो चुके थे.
उस दुख का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है कि वे हजारों लोग किन हालात में अपने कमजोर बच्चों को लेकर पैदल ही ‘अपने गांव’ की ओर चल पड़े. हालांकि लॉकडाउन की वजह से मुख्यधारा का मीडिया कोरोना केंद्रित सरकारी रुख के महिमामंडन में लगा हुआ था, लेकिन सोशल मीडिया और समांतर समाचार वेबसाइट पर हजार-दो हजार किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर भूख-प्यास से जूझते और रास्ते में पुलिस से मार खाते चल पड़े हजारों लोगों की तस्वीरें और वीडियो घरों में सुरक्षित बैठे लोगों के सामने आने लगे.
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जब ऐसी खबरें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार की फजीहत की वजह बनने लगी, तब जाकर सरकारों ने इस ओर ध्यान दिया और लॉकडाउन के करीब डेढ़ महीने बाद मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की विधिवत घोषणा हुई और आधी-अधूरी व्यवस्था की गई. इसके लिए कुछ राज्य सरकार सहित केंद्र सरकार की भी मुख्यधारा के मीडिया ने तारीफ की, लेकिन सवाल है कि ट्रेन या बस से घर पहुंचाए जाने की व्यवस्था के लाभार्थी मजदूर क्या सचमुच अपने अपने गांव ही जाना चाहते थे!
क्यों आए थे वे शहर में
इस सवाल का जवाब इस बात में छिपा है कि ज्यादातर मजदूर अपने-अपने गांव घर को छोड़कर हजार दो हजार किलोमीटर दूर आखिर क्यों गए थे. अगर कोई व्यक्ति ग्रामीण इलाकों के सामंती सामाजिक ढांचे से अनजान है या उसका समर्थक है तो वह ‘अपना गांव’ छोड़कर ‘परदेस’ गए लोगों को ‘शौकिया दुख’ का वाहक मानेगा. लेकिन एक संवेदनशील और यहां तक कि एक औसत सामान्य समझ वाला व्यक्ति भी इसे गांव में आर्थिक लाचारगी और सामाजिक वंचना का नतीजा मानेगा. यानी परदेस गए लोगों के लिए गांव भूख, अघोषित बंधुआ मजदूरी और जातिगत दुर्व्यवहारों का कुआं है, जिससे बाहर निकले बिना सम्मान से जीने की उम्मीद करना मुमकिन नहीं है
बाबा साहब अंबेडकर ने भी कहा था कि भारतीय गांव क्रूरता, जातिगत पूर्वाग्रहों, कूपमंडूकता के परनाले और सांप्रदायिकता के गढ़ हैं. इस लिहाज से देखें तो हो सकता है कि इस ढांचे में कहीं पीड़ित और भुक्तभोगी तो कहीं इसके ‘हथियार’ के रूप में इसका खमियाजा दलित-पिछड़ी जातियां और स्त्रियां ही उठाती रही हैं. ऐसे में चेतना के स्तर पर सशक्तीकरण के अभाव ने भल़े ही वंचित जातियों को अपने सामाजिक और राजनितिक अधिकारों के प्रति लंबे समय तक उदासीन बनाए रखा, लेकिन शहरीकरण और औद्योगीकरण ने कम से कम भूख या मुश्किल से दो जून की रोटी की समस्या का एक हल सामने रखा. दरअसल, शहर ने उन्हें गांव के सामाजिक या जातिगत दुर्व्यवहारों से भी कम से कम तात्कालिक तौर पर राहत दिलाई.
शहरों में मिला रोजगार और अपमान से मुक्ति
यह आर्थिक और सामाजिक वंचना के शिकार लोगों और समुदायों के लिए नया आसमान था, जिसने गांव में उनकी सामाजिक -आर्थिक जड़ता और यथास्थिति की त्रासदी की मजबूत दीवारों को बहुत धीरे-धीरे ही सही, तोड़ना शुरू किया था. गांव में भूख और जातिगत अपमान से दो-चार दुनिया के बरक्स वह शहरों में अपेक्षया संतोषजनक मेहनताना हासिल करने लगे और इसके अलावा उन्हें वहां प्रत्यक्ष जातिगत दुर्व्यवहार और उत्पीड़न का शिकार आमतौर पर नहीं होना पड़ता था. गांव में जातिगत पहचान की वजह से ‘दोयम दर्जे’ या ‘बंधुआ मजदूरी’ जैसी स्थितियों को जीने वाले लोगों ने ‘मजदूर’ की पहचान हासिल की और अब यह ‘मजदूर’ दोनों शाम पेट भरने लायक भोजन के साथ-साथ अपने गांव में घास-फूस की झोपड़ी की दीवार को ईट-सीमेंट से भी बनाने लगा था!सवाल है कि ‘वास्तविक विकास’ की ओर बढ़ते कदम से किसे दिक्कत थी?
अगर हम पिछले पांच-सात सालों के दौरान सामाजिक रूप से सत्ताधारी जातियों और वर्गों के सार्वजनिक व्यवहार और गतिविधियों पर गौर करें तो इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना मुश्किल नहीं होगा. रोजी-रोटी या रोजगार के हालात लगातार खराब होते जाने से लेकर तंत्र में भागीदारी के एक उपाय यानी जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को व्यवहार में मार डालने की स्थितियां हमारे सामने हैं. इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में जातिगत वंचना और उत्पीड़न एक रिवायत की तरह आज भी कौन-सी तस्वीर रचते हैं, यह छिपा नहीं है.
रिवर्स माइग्रेशन का सामाजिक संतुलन पर असर
अब जब शहरों में रोजी-रोटी या रोजगार से लाचार कर दिए गए लाखों लोग मजबूरन गांव लौट रहे हैं तो ऐसे में ग्रामीण इलाकों में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर कैसे हालात पैदा होंगे, इसका हम अंदाजा भर लगा सकते हैं. हाल ही में एक अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (SWAN) की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा लाचारी में फंसे करीब 64 फीसद मजदूरों के पास 100 रुपए से भी कम बचे थे. इस हालत में अपने गांव लौट कर वे कितने दिनों तक पेट भर पाएंगे? कितने दिनों तक सम्मान से जी पाएंगे?
अब तक ग्रामीण इलाकों से शहरों और महानगरों की ओर भारी तादाद में लोगों के जाने को विस्थापन या पलायन की एक बड़ी समस्या के रूप में देखा जाता रहा है. ग्रामीण इलाकों में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर इसके दुष्प्रभाव को लेकर चिंता जताई जाती रही है. लेकिन अब रिवर्स या उल्टी दिशा में विस्थापन यानी शहरों से ग्रामीण इलाकों की ओर जो व्यापक विस्थापन हो रहा है वह ग्रामीण इलाकों में कैसी आर्थिक और सामाजिक तस्वीर रचेगा, यह समझने के लिए बहुत मेहनत करने की जरूरत नहीं है!
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साथ में यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि उलटी दिशा में होने वाले इस विस्थापन के असर से शहर बचे रहेंगे. लाखों की तादाद में मजदूरों के अपने गांव लौट जाने के बाद शहरों की बुनियाद शायद तहस-नहस हो जाए! शहर कारोबार या व्यावसायिक गतिविधियों और उद्योग-धंधों के बूते जिंदा रहे हैं और उन्हें जीवन देने वाले वे सस्ते मजदूर ही रहे हैं. इसलिए अब चिंता यह उभरी है कि सस्ते मजदूरों से खाली होने वाले शहरों की बुनियाद कैसे बचेगी! यह बेवजह नहीं है कि लॉकडाउन के शुरुआती दौर में मजदूरों और उनकी तकलीफों से पूरी बेरहमी से पल्ला झाड़ लेने वाले लोग और सरकारें इस नए विस्थापन से चिंतित नजर आ रही हैं. कई राज्य सरकारों ने अब मजदूरों को सब कुछ शुरू और ठीक होने का आश्वासन देना शुरू कर दिया है!
सवाल है कि हर ठौर से बेठौर कर दिए जाने वाले मजदूरों की फिक्र अब किसी को हो रही है तो ऐसा क्यों है? कब तक है और किस हद तक है? उत्पादन और व्यापार का ढांचा, रोजगार के अवसर, काम के हालात, काम के घंटे, मेहनताना और उसका भुगतान, सुरक्षा की शर्तें या आश्वासन क्या सब कुछ कम से कम पहले की तरह बने रहने देंगे और क्या अब पुराने ‘मजदूर’ की पहचान मजदूर के रूप में रह सकेगी? या फिर क्या वह अघोषित ‘दास’ की हालत में जाने पर मजबूर होगा?
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)