बॉलीवुड का हर अभिनेता दिलीप कुमार बनना चाहता है- यहां तक कि महानायक अमिताभ बच्चन भी. खैर, पांच दशकों तक दुनिया भर के प्रशंसकों के दिलों पर राज करने के बाद भारतीय सिनेमा के इस निर्विवाद सम्राट ने बुधवार को अपना सिंहासन खाली कर दिया. ऐसा लगता है कि ‘थेस्पियन’ शब्द सिर्फ इसी एक आदमी के लिए गढ़ा और आरक्षित किया गया है. और फिर भी इस सब के बावजूद, पेशावर में पैदा हुए, अपने वालिदों के बारह बच्चों में से एक मोहम्मद यूसुफ खान, अधिकांश के लिए रहस्यमयी इंसान बने रहे- शायद जानबूझ कर.
इस बात पर कई मोटी-मोटी किताबें लिखी जा सकती है कि एक एकांतपसंद, मृदुभाषी और अपने जन्म से ही कुलीन, दिलीप कुमार बॉम्बे टॉकीज के लिए अपनी पहली फिल्म ज्वार भाटा (1944) से शुरू करके पूरी तरह से भूला दिए गए किला (1998) में सुनहरे परदे पर अपनी आखिरी उपस्थिति के साथ समाप्त हुए सफर के दौरान एक ‘अल्टिमेट एक्टर’ बन गए. उनके द्वारा किया गया प्रत्येक प्रदर्शन अपने आप में अभिनय की पूरी पाठशाला है. एक ऐसे युग में जहां भारत के फिल्मी सितारों ने दो दशकों में अक्सर 100 से भी अधिक फिल्मों की फिल्मोग्राफी तैयार की है, वहीं एक पेशेवर ऐसा भी था, जिसके कैमरे के सामने बिताये गए 50 वर्षों में उसने सिर्फ 65 फिल्मों में अभिनय किया- यानी प्रति दशक 13 फिल्में. अपने आप में कुछ भी तो नहीं. और फिर भी, सब कुछ.
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किंवदंती बने चुके अभिनेता के साथ एक मुलाकात
अपने लंबे जीवन काल के दौरान, वह अब तक के सबसे सम्मानित अभिनेता बन गए थे और उन्होंने अनगिनत ऐसे अभिनेताओं की पीढ़ी तैयार कर दी जो ‘दिलीप कुमार’ बनाना चाहते थे और जिसने ‘दिलीप कुमार स्कूल ऑफ एक्टिंग’ को जन्म दिया, जैसा कि यह जाना जाता था. हर नवागंतुक अभिनेता ने गाहे-बगाहे बिना किसी संकोच या झिझक के अपने भीतर के ‘दिलीप कुमार’ को आवाज दी और और बड़ी खुशी से उसे प्रदर्शित किया. जैसे कि संवाद अदायगी (डायलॉग डिलीवरी) के उनके ब्रांड की कई लोगों ने नकल की और कई ने तो इसे विकृत भी कर डाला. एक विशिष्ट सी ‘दिलीप कुमार वाली टकटकी’ एक ऐसा मानक बन गया, जिस तक कोई नहीं पहुंच सका. दिलीप कुमार की नकल करते हुए राह से बेराह हुए लोगों की तो गिनती करने की कोशिश करना भी बेकार है.
आखिर इस आदमी के बारे में ऐसा क्या था? मैं तो इस बारे में उचित प्रतिक्रिया के लिए बेकश हूं. मुझे यह स्वीकार करना होगा कि मैं उनके व्यक्तिगत या पेशेवर जीवन पर टिप्पणी का कोई अधिकार नहीं रखती. जब मैंने मुंबई के क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया के लॉन में (हां, वे क्रिकेट के दीवाने थे) सिर्फ एक बार उनका साक्षात्कार लिया था, तब मैंने उनकी कुछ ही फिल्में देखीं. मेरे दुर्भाग्य से, मेरा पुराना वाला भारी-भरकम टेप रिकॉर्डर ऐन वक्त पर बिगड़ गया, इस के टेप बुरी तरह से उलझ गए. हम क्रिकेट के मैदान के किनारे पर, निचली कगार पर बैठे थे. यह सब मेरे लिए थोड़ा अजीब था क्योंकि मुझे अपने घुटनों पर टेप रिकॉर्डर को संतुलित करना था, एक हाथ से नोट्स लेना था और दूसरे हाथ के साथ मशीन को थामे रहना था.
वह विनम्र, बुलंद और आस-पास की परिस्थितियों और मेरी बेचैनी से भी कतई परेशान नहीं दिख रहे थे. वे थे दिलीप कुमार- अपने फुल लीजेंड मोड में. एक विद्वान, गहन बुद्धि वाले और स्पष्टवादी वह शख्श लगातार उर्दू के दोहे, शेक्सपियर, अंग्रेजी कवियों और जर्मन विद्वानों को उद्धृत किये जा रहे थे (एक भाषाविद् और अच्छी तरह से पढ़े-लिखे व्यक्ति के रूप में उनकी प्रतिष्ठा प्रदर्शित हो रही थी). यह सब कहते करते समय वे स्वप्न में कहीं दूर देखते हुए से लगते थे, मानो वह अपने ही साम्राज्य में सोने के किसी सिंहासन पर विराजमान हो और एक विनम्र सा दरबारी इतिहासकार अत्यंत आज्ञाकारी रूप से उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए उसके कथनों का वर्णन कर रहा हो. उनकी व्यक्तिगत ‘विरासत’ की भावना बरकरार थी.
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हमारे दिलों के शहज़ादे सलीम
हम सभी फिल्मों में दिलीप कुमार के अपने ‘पलों’ को संजोते हैं और अन्य फिल्म प्रेमियों की तरह मेरा भी ‘पल’ कुछ जम सा गया है. यह फिल्म निर्माण की महाकृति माने जानी वाली फिल्म मुग़ल-ए-आज़म (1960) का वह दृश्य है जिसमें वह शहज़ादे सलीम के रूप में अपनी प्रेमिका के चेहरे पर एक सफेद पंख सहलाते हैं (महासुंदरी मधुबाला इसमें उस मुलाजिम औरत की भूमिका निभा रही है जिसे शहज़ादा प्यार करता है) जो गहरी नींद का बहाना करते हुए पलंग पर लेटी हुई है. जिस तरह से दिलीप कुमार इस अति साधारण से दृश्य में अपनी अनूठी गरिमा भरते हैं वह कायल होने के लायक है. वह इस दृश्य में इतना जबरदस्त प्रेमावेग इतनी सरलता से ले कर आते हैं जो अनगिनत महिलाओं को और कुछ पाने/ देखने के लिए तड़पता सा छोड़ देता है.
और उसके बाद ही वह सुंदरी आई जिसने उनके दिल पर कब्जा कर लिया और भारतीय सिनेमा के सबसे वांछित नायक को अपने लिए हासिल किया. 50 से अधिक वर्षों से उनकी समर्पित बेगम रहीं सायरा बानो उनके ‘साहेब’ के अंतिम सांस लेने तक उनके साथ थीं.
मुग़ल-ए-आज़म के उस एक अकेले दृश्य में दिलीप कुमार ने अपनी कलाई की एक सुंदर लचक के साथ जो कुछ हासिल किया, उसकी बराबरी तीनों खानों के सभी हिंसक और अश्लील कूल्हे मटकाने वाले दृश्यों को मिलाकर भी नहीं की जा सकती. दिलीप कुमार ने बॉलीवुड के पहले खान के रूप में अपना ओहदा हमेशा बरकरार रखा. शहज़ादे सलीम हमारे दिलों के निर्विवाद सहजादे बन गए- बादशाह और रोमांस के शहंशाह, सुप्रीम किंग ऑफ ट्रेजेडी और वे अब भी वहीं बसते हैं.
दिलीप कुमार, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (1954) के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाले पहले कलाकार थे और उन्होंने आठ अन्य ऐसे पुरस्कार जीतकर एक रिकॉर्ड बनाया. उनकी जीती हुई ट्राफियों और पाए गए सम्मानों की सूची अंतहीन है. अब उन्हें यहां और सीमा पार के उन्हें पूजने वाले प्रशंसकों द्वारा ‘द एक्टर-ए-आज़म’ के रूप में अमर बनाया जा रहा है.
हालांकि महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे ने घोषणा की है कि इस अजीम अदाकार का अंतिम संस्कार ‘पूरे राजकीय सम्मान’ के साथ किया जाएगा, पर मैं, यदि स्पष्ट रूप से कहूं तो, भारत में एक राष्ट्रीय अवकाश की उम्मीद कर रही थी. झंडे को आधा झुका हुआ देखना या फिर ऐसा कोई अन्य भव्य संकेत. पर मैं भी कितनी बेवकूफ हूं! यह सब इस माहौल में? वह भी एक ऐसे महान अभिनेता के लिए जिसे पाकिस्तान ने भी मान्यता दी थी, जब उन्हें हमारे पड़ोसियों द्वारा उनके सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-इम्तियाज (1998) से सम्मानित किया गया था? तौबा!
याद करिये, उस समय भी हमारे घरेलू अति-देशभक्त आपे से बाहर हो गए थे और इस सारे दुस्साहसी कृत्य पर उनके मुंह से झाग सा निकलने लगा थे. उनका इतना साहस? पाकिस्तान क्या सोचता है? दिलीप कुमार हमारे हैं! वह पूरी तरह से सिर्फ और सिर्फ भारत के हैं! शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे तो आग बबूला ही हो गए थे और करगिल युद्ध के बाद उन्होंने इसे वापस करने (रिटर्न इट) को भी कहा था. पर पूरी समझदारी के साथ दिलीप कुमार ने ऐसा कुछ नहीं किया.
हां, दिलीप कुमार भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण (2015) से सम्मानित हैं. लेकिन यह भारत रत्न नहीं है, ओके
देखो– अभी भी टाइम बाकी है
(लेखिका एक स्तंभकार, सामाजिक टिप्पणीकार, पत्रकार और ओपीनियन शेपर हैं. उन्होंने 20 के करीब किताबें भी लिखी हैं. वे @DeShobhaa से ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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