अमेरिकी जनप्रतिनिधि सदन की स्पीकर नैन्सी पेलोसी की संभावित ताइवान यात्रा उन मौकों में तब्दील हो सकती है जब यह बहस बेमानी हो जाती है कि कौन गलत है और कौन सही. क्यूबा के मिसाइल संकट के चरम चरण में सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव ने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी को पत्र लिखा था कि अगर दोनों पक्ष ‘रस्सी को दोनों छोर से अपनी-अपनी तरफ खींचते रहेंगे’ तो बीच में पड़ी गांठ और कसती ही जाएगी और संकट को सुलझाना कठिन होता जाएगा. अब, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और चीनी नेता शी जिनपिंग के बीच हुई तनावपूर्ण टेलीफोन वार्ता यही दर्शाती है कि फिर वह मौका आ गया है जब दोनों पक्ष रस्सी को दोनों छोर से अपनी-अपनी तरफ खींच रहे हैं. मिसाइल संकट ने अमेरिका-सोवियत संघ के बीच कोल्ड वॉर के पहले गंभीर दौर को खत्म किया था. अब ताइवान संकट अगले बाइपोलर कोल्ड वॉर की शुरुआत का संकेत दे सकता है. ताइवान संकट का चाहे जैसे समाधान किया जाए, दुनिया महाशक्तियों में वर्चस्व की होड़ के बीच फिर से फंस चुकी है. बाइपोलर व्यवस्था, विश्व में एक ऐसी प्रणाली है जिसमें शक्ति का वितरण होता है और इसमें दो से अधिक राष्ट्र-राज्यों का सैन्य, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभाव लगभग एक जैसा ही होता है.
यह होड़ फिर से बाइपोलर ही होगी, भले ही इसके बाइपोलर चरित्र को परिभाषित करना कितना भी मुश्किल क्यों न हो. इसे समझना जरूरी है क्योंकि बाइपोलर होड़ का स्वरूप उन स्थितियों का निर्माण करेगा जिनके अंदर पूरी दुनिया को रहना और आपसी संवाद करना पड़ेगा. विश्व के इस बाइपोलर चरित्र को समझना भारत के लिए खास तौर से अहम है क्योंकि ऐसा लगता है कि भारत में फैसले करने वाले लोग दुनिया को मल्टीपोलर मानते हैं. बाइपोलर दुनिया और इस की शर्तें अलग-अलग होती हैं साथ ही इस दशा की गलत पहचान काफी खतरे में डाल सकती है.
इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच पिछली होड़ और आज की बाइपोलर होड़ के बीच समानताएं भी हो सकती हैं और अंतर भी हो सकते हैं. कम-से-कम तीन समानताएं और तीन अंतर तो ऐसे हैं जिन पर ध्यान देना जरूरी है.
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समानताएं क्या हैं
1991 से पहले के दौर की तरह आज भी दो पोलर शक्तियों के बीच जबरदस्त होड़ है, इस बार अमेरिका और चीन के बीच, जो तमाम दूसरे देशों को प्रभावित करेगी. यह दुनिया को बांट देगी, उसी तरह जिस तरह पिछले कोल्ड वॉर ने बांट दिया था. यह विभाजन अधिकतर अंतरराष्ट्रीय मसलों को भी प्रभावित करेगा. कुछ देश एक पक्ष के साथ हो लेंगे, तो कुछ देश दूसरे पक्ष के साथ लेकिन हम यह भी अपेक्षा रख सकते हैं कि जो देश सीधे निशाने पर नहीं हैं, जो इन दोनों महाशक्तियों में से किसी से दूर हैं वे इस होड़ से पहले की तरह लाभ उठाएंगे. ऐसे ही, एक तरह की गुटनिरपेक्षता फिर उभरेगी लेकिन यह दो नावों की सवारी जैसी होगी जिसमें दोनों पक्षों से लाभ उठाने के लिए एक नाव से दूसरे नाव की ओर उछलकूद चलती रहेगी और एक ताकत का दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा. साथ ही यह भी शिकायत की जाएगी कि कोल्ड वॉर उन्हें किस तरह बरबाद कर रहा है. भारत तो इस कहानी से परिचित होगा ही क्योंकि पिछले कोल्ड वॉर में उसने इस खेल में महारत हासिल कर ली थी.
जैसा कि हम देख रहे हैं यह भी एक वैचारिक संघर्ष बन जाएगा. यह स्वाभाविक भी है. ई.एच. कार दशकों पहले कह गए हैं कि देश जो फैसले करते हैं, खासकर ऐसे संघर्षों के मामले में, उन्हें विचारधारा एक सतही औचित्य प्रदान करती है. चाहे वे उदार लोकतंत्र का विचार हो या राष्ट्रीय संप्रभुता का तमाम देशों के आचरण इन विचारों से भले न निर्देशित होते हों मगर ये उनके लिए जरूरी नैतिक दावे करना का बहाना तो बनते ही हैं. लेकिन आम तौर पर ये निराधार ही होते हैं. सोवियत संघ को तीसरी दुनिया के कई देशों और उनकी जनता का भी समर्थन हासिल था लेकिन इससे अंतिम नतीजे पर शायद ही कोई फर्क पड़ा.
दूसरी समानता यह है कि हम देखेंगे कि दो ध्रुव बनी दो महाशक्तियों में दूरी बढ़ती जाएगी. पिछले कोल्ड वॉर में पूरब और पश्चिम के बीच न्यूनतम आर्थिक या दूसरे संबंध थे जबकि आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिका और चीन एक-दूसरे से गहरे जुड़े हैं. इससे फर्क नहीं पड़ेगा. यह स्थिति बदल जाएगी, धीरे-धीरे बदल भी रही है क्योंकि वर्चस्व की होड़ में यह होना ही है. संदेह, गलतफहमियां, संकीर्ण स्वार्थ व्यापारिक और दूसरे संबंधों को प्रभावित करेंगे. इससे पूरी तरह बचने का कोई ‘आसियान’ जैसा उपाय या बीच का कोई बड़ा रास्ता नहीं है. टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में प्रतियोगिता जटिलताओं को और बढ़ाएगी. इसका नतीजा यह होगा कि स्पष्ट रूप से कम-से-कम दो प्रतियोगी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक खेमे बन जाएंगे जो अपनी-अपनी परिधि पर एक-दूसरे से आदान-प्रदान करेंगे मगर एक-दूसरे से कुल मिलाकर स्वतंत्र रहेंगे. यह अलगाव उस स्तर शायद न पहुंचे जिस स्तर पर पिछले कोल्ड वॉर के दौरान हमने देखा था, मगर वह महाशक्तियों के बीच होड़ का अलग ही मामला था.
आखिरकार परमाणु अस्त्रों के कारण यह होड़ भीषण होने के बावजूद ‘कोल्ड वॉर’ तक ही सीमित रहेगी. कुछ लोगों को चिंता है कि चीन और अमेरिका उस जाल में फंसने जा रहे हैं जो उन्हें टकराव और युद्ध की ओर ले जाएगा लेकिन परमाणु युद्ध में सबसे ज्यादा नुकसान इन दोनों को ही होगा. इसी तर्क ने अमेरिका और सोवियत संघ को युद्ध से रोका था. न तो युद्ध अपरिहार्य है और न उससे बचना. कोल्ड वॉर की शुरूआत में, टकराव के कई मौकों पर खासकर मिसाइल संकट के दौरान भारी खुशकिस्मती ने अमेरिका और सोवियत संघ की मदद की थी. इससे अंततः यही साबित हुआ था कि राजनेताओं में काफी संयम होता है और वे तनाव को दबा दे सकते हैं.
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अंतर क्या हैं
अमेरिका और सोवियत संघ के बीच पिछले कोल्ड वॉर और आज के बीच पहला और सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि आज सत्ता समीकरण अपेक्षाकृत अधिक संतुलित है. सोवियत संघ अमेरिका के मुकाबले जितना समृद्ध प्रतिद्वंद्वी था उसकी तुलना में चीन अमेरिका का उससे कहीं ज्यादा समृद्ध प्रतिद्वंद्वी है. वह अपनी सैन्य ताकत भी तेजी से बढ़ा लेगा. यह होड़ के स्वरूप को प्रभावित करेगा और चीन को अमेरिका का ज्यादा कठोर प्रतिद्वंद्वी बना देगा.
दूसरा अंतर यह है कि इतिहास और भूगोल भी अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं. यूरोप संघर्ष का स्पष्ट रूप से विभाजित केंद्र था, केवल जर्मनी ही शुरू में कुछ सिरदर्द बना हुआ था. हिंद-प्रशांत क्षेत्र, खासकर दक्षिण-पूर्व एशिया काफी खुला हुआ है और वहां कोई भी अपना वर्चस्व बना सकता है. वह छोटी-छोटी, कमजोर ताकतों से बना है और उनसे एकमात्र खतरा यही रहता है कि वे किसी भी तरफ झुक सकते हैं. जैसा कि विद्वान लेखक आरोन फ्रीडबर्ग ने तीन दशक पहले ही कहा था, यह संघर्ष का एक अहम स्रोत है और इस क्षेत्र को वे फायदे नहीं मिल सकते हैं जो यूरोप को हासिल हैं. चीन से करीबी इसके लिए चीन को बड़ा खतरा बनाता है और यह इसे अमेरिका का स्वाभाविक सहयोगी बना देता है. लेकिन नजदीकी और ताकत का अंतर चीनी वर्चस्व को एक मजबूत संभावना बनाता है.
तीसरा अंतर यह है कि चीन एक उभरता प्रतिद्वंद्वी है. इसलिए यह कोल्ड वॉर वाले सोवियत संघ से ज्यादा 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के जर्मनी जैसा है, या नेपोलियन के अधीन फ्रांस जैसा. यह बीजिंग को मॉस्को से ज्यादा उग्र और आक्रामक बनाता है. यह गलत अनुमानों और हादसों का खतरा भी बढ़ाता है.
द्विध्रुवीय प्रतियोगिता भारत के लिए हालात मुश्किल बना देती है. गुटनिरपेक्षता या इस मूल विचार को जो भी नाम दिया गया हो, वह कुछ देशों के लिए एक विकल्प हो सकता है मगर भारत के लिए नहीं क्योंकि वह एक ध्रुव बनी महाशक्ति, चीन से सुरक्षा के मामले में लंबे समय से प्रतियोगिता में शामिल है. इसके साथ ही हिमालय और समुद्री क्षेत्र पर चीन का फौजी दबाव बना हुआ है. इसलिए भारत को एशिया पर चीन के भावी दबदबे के बारे में चिंता करनी ही पड़ेगी. भारत की भ्रमित, स्वच्छंद विदेश नीति चीनी वर्चस्व को बढ़ाने में मदद ही करेगी.
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लेखक जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. वह @RRajagopalanJNU से ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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