आज से तकरीबन सौ साल पहले भारत में दो किताबें ऐसी आईं, जो अलग-अलग कारणों से आज हमारे राजनैतिक-सामाजिक विमर्श का केंद्र बन गयी हैं. 1909 में गांधी की किताब आई ‘हिंद स्वराज’ और 1923 में सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व’. दोनों ही आज हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन दोनों के बीच वैचारिक घमासान चल रहा है. इस घमासान को हम अपने सामाजिक-राजनैतिक जीवन में कई रूपों में महसूस कर सकते हैं. हम बारी-बारी से इनके बारे में संक्षिप्त चर्चा करेंगे.
गांधी और सावरकर में एक समानता है कि दोनों हिंदू केंद्रित रहे हैं. गांधी के लिए हिंदू एक जीवन-दर्शन है, एक दृष्टिकोण है, जिसे उन्होंने अपने पूर्वजों से बिना किसी प्रयास के हासिल किया है. इसलिए यह उनका संस्कार है. इस संस्कार के बूते वे आधुनिक सामाजिक-जीवन के बीच एक रास्ता बनाने की कोशिश करते हैं. वह दुनिया के समस्त ज्ञान के बीच अपने हिंदू संस्कारों को रख एक ऐसी जीवन नौका बनाना चाहते हैं, जिस पर उनके देश के लोग जीवन यात्रा कर सकें.
लेकिन सावरकर का हिंदुत्व उनका अभिमान है. वह दुनिया से सीखना नहीं, उसे सिखाना चाहते हैं. वह इतना मजबूत होना चाहते हैं कि लोग उनका वर्चस्व क़बूलें और उनसे डरें. वह दुनिया से मैत्री नहीं, उस पर वर्चस्व चाहते हैं जिसमें वे ऊपर रहें, बाकी नीचे. यह गांधी और सावरकर के हिंदू का मूल फर्क है.
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हिंद स्वराज का ऐतिहासिक संदर्भ
‘हिंद-स्वराज’ की रचना गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर की थी, और यह पहली दफा दक्षिण अफ्रीका से ही छपने वाले ’इंडियन ओपिनियन’ में प्रकाशित हुई थी. गांधी के अनुसार लंदन में रहने वाले अराजकतावादी, अतिवादी और हिंसक प्रवृति के लगभग सभी प्रमुख हिन्दुस्तानियों से उनकी मुलाकात हुई थी. इस मुलाकात के बाद गांधी ने महसूस किया वे सही राह पर नहीं हैं और उनके रास्ते हिंदुस्तान में स्वराज नहीं आ सकता.
गांधी का मन उद्विग्न था. उन अतिवादियों और हिंसावादियों को इकट्ठे जवाब देने के खयाल से ही 72 पेज की यह किताब लिखी गयी थी. किताब प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गयी है. गांधी ने प्रस्तावना में इसकी विशेषता भी रेखांकित कर दी है- ‘यह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखलाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है.’
उस जमाने के लिए यह बिलकुल नयी बात थी, लेकिन इसकी एक पृष्ठभूमि थी. 20वीं सदी का पहला दशक भारत में जोशीले और हिंसक विचारों के जोर का था. इसी दशक में बंगाल में क्रान्तिकारी कही जाने वाली अनुशीलन समिति का गठन हुआ था, जो खून के बदले खून की विचारधारा में विश्वास करता था. कांग्रेस में तिलक का प्रभाव था, जो गर्मदली कहे जाते थे. मॉडरेट लोग कुछ समय के लिए हाशिये पर चले गए थे.
गांधी के विचारों में अहिंसा और आम जन का महत्व
किताब में एक प्रश्न के जवाब में गांधी कहते हैं, न मैं गर्मदली हूंं और न ही मॉडरेट. वह स्पष्ट करते हैं गर्मदली लोगों की हिंसा और मॉडरेट लोगों की अंग्रेजपरस्ती अथवा अंग्रेजों से सीखने की नीति पर मेरा भरोसा नहीं है. वह न केवल अंग्रेजी सत्ता; बल्कि अंग्रेजी सभ्यता का भी विरोध करते हैं. गांधी का नजरिया विश्व से अलग-थलग नहीं है. वह पूरी दुनिया के मुक्ति-संघर्षों से सीखने की बात करते हैं.
गांधी की यह किताब अपने आज़ाद विचारों के कारण कुछ अंशों में अटपटी लग सकती है, लेकिन एक मामले में गांधी स्पष्ट हैं कि उनका हिंद या भारत किसी राजा या शासक का नहीं, जनता का है, किसानों का है. वह किसानों के नजरिये से देश या राष्ट्र को देखते हैं, राजनीति को देखते हैं. गांधी ने अपने जीवन भर कुछ मूल्यों को लेकर राजनीति की. उसमें अहिंसा, प्रेम और आमजन केंद्रीय तत्व रहे. हिंसा के निषेध के साथ ही शारीरिक ताकत की जगह आत्मबल को उन्होंने आगे किया.
यह लोकतांंत्रिक राजनीति की बुनियाद है. हथियारों के साथ लोकतंत्र विकसित नहीं हो सकता. हिंसा को केंद्र में रख कर जब राजनीति होगी, तो वीरभोग्या वसुंधरा का भाव हावी हो जायेगा. ताकतवर लोगों की सत्ता हो जाएगी. जनतंत्र के बुनियादी भाव विकसित ही नहीं होंगे. इसलिए गांधी हिंद स्वराज को किसानों का स्वराज बनाना चाहते हैं, न कि शक्तिमान और विशिष्ट लोगों का स्वराज. स्वराज में कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी अपनी भागीदारी महसूस करे, ऐसी उनकी कल्पना थी.
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सावरकर की विचार भूमि
लेकिन सावरकर की सोच इससे ठीक उलटी है. उनकी किताब ‘हिंदुत्व’ उस नजरबंदी के दौरान लिखी गयी जब वे कुछ शर्तों के साथ कालापानी यानि अंडमान से लाकर रत्नागिरी में रखे गए थे. किताब 1923 में छपी और दो वर्षों के भीतर ही इसके विचारों के अनुरूप एक संस्था इस देश में बन गयी. वह संस्था है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसकी स्थापना 1925 में हुई.
लम्बे समय तक इस किताब और इस संस्था पर मुख्यधारा के विचारकों ने ध्यान नहीं दिया. लेकिन आज स्थिति है कि इसी विचार को मानने वालों के नेतृत्व में भारत की केंद्रीय सत्ता और राजनीति है. इसके विचारों की अवहेलना हम अब और नहीं कर सकते. इसे जानना इस कारण आवश्यक हो गया है कि इसके बिना समकाल की राजनैतिक गुत्थियों को समझना मुश्किल होगा.
सावरकर की रचना हिंदुत्व का महत्व
सावरकर की यह किताब उनके समस्त विचारों की कुंजिका है, जैसे गांधी की ‘हिंद-स्वराज’ है. गांधी ने हिंद स्वराज में व्यक्त कुछ विचारों से बाद के दिनों में स्वयं को अलग भी किया; जैसे पार्लियामेंट्री ढांंचे की सख्त आलोचना करने वाले गांधी बाद में उसके प्रस्तावक बन गए. लेकिन सावरकर अपने विचारों पर आखिर तक कायम रहे. गांधी-हत्या काण्ड में नाथूराम गोडसे के साथ जिन लोगों को मुजरिम बनाया गया था, उनमें सावरकर भी थे. लेकिन वे कोर्ट से बरी कर दिए गए. उसके बाद से 1966 में अपनी मृत्यु तक वह उपेक्षित ही रहे.
लेकिन अपने विचारों को लेकर आज वह एक बार फिर विमर्श के केंद्र में हैं. सावरकर का हिंदुत्व, गांधी के हिंद व हिंदू से भिन्न है, बल्कि उनके ही शब्दों में हिन्दुवाद से भी भिन्न है. उनका हिन्दुस्थान, जिसे भारत कहना उन्हें नापसंद है, उनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि है. पुण्यभूमि की बात करते ही वे उन धर्मावलंबियों को अलगाव में डाल देते हैं, जिन धर्मों की स्थापना भारतीय भूगोल के बाहर हुई. उनकी आज़ादी की लड़ाई न केवल अंग्रेजों से बल्कि मुसलमानों और ईसाईयों से भी है. गांधी की तरह वह अहिंसा में विश्वास नहीं करते. बुद्ध उन्हें प्रिय हैं, क्योंकि वह ज्ञानी थे, लेकिन उनके की कारण यह देश गुलाम हुआ, उनका ऐसा मानना था. उनके ही शब्दों में- ‘उनका गौरव हमारा है, तो पतन भी तो हमारा है’.
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सावरकर की राष्ट्र की कल्पना में धर्म
सावरकर का राष्ट्र धर्म-केंद्रित है, वह हिंदू राष्ट्र है, जहां गैर-हिन्दुओं के लिए या तो कोई जगह नहीं है, या है तो दोयम दर्जे की है. वह विविधता के नहीं, एकरूपता के आग्रही हैं. उनके अनुसार- ‘हिंदुत्व के लक्षण हैं- एक राष्ट्र, एक जाति तथा एक संस्कृति.’ इन सभी लक्षणों को संक्षेप में इस भांति प्रस्तुत किया जा सकता है कि वही व्यक्ति हिंदू है जो सिन्धुस्थान (हिन्दुस्थान) को केवल पितृभूमि ही नहीं अपितु पुण्यभूमि भी स्वीकार करता है. हिंदुत्व के प्रथम दो लक्षणों राष्ट्र तथा जाति का समावेश पितृभूमि शब्द में हो जाता है और तृतीय लक्षण एक संस्कृति की अभिव्यक्ति ‘पुण्यभूमि’ शब्द से होती है.’ ( हिंदुत्व: पृष्ठ 112 )
सावरकर और गांधी के रास्ते अलग
सावरकर इस पुण्यभूमिवासियों को अपने हिसाब से राजनैतिक और ताकतवर देखना चाहते हैं. ताकतवर तो गांधी भी देखना चाहते हैं, लेकिन मन और आत्मा से, न कि शरीर से. सावरकर शारीरिक शौर्य के आग्रही हैं, इसलिए वह राजनीति का हिन्दुकरण और हिंदू का सैनिकीकरण चाहते हैं. गांधी और सावरकर का मतभेद यहीं प्रकट होता है.
गांधी राजनीति का हिन्दुकरण नहीं, अपितु हिन्दुओं का राजनीतीकरण चाहते हैं. उनका हिंदू सांप्रदायिक नहीं, आधुनिक नागरिक होना चाहिए. गांधी का हिंदू शारीरिक बल का नहीं, आत्मबल का धनी होना चाहिए, जो पूरी दुनिया से मैत्री कर सके और वर्चस्व का आग्रही नहीं बने. गांधी का हिंदू लाठी-डंडा का नहीं, ज्ञान-आध्यात्म का आग्रही है. वह भारत में रहते हुए वैश्विक भाव रखता है. वह नफरत के सहारे नहीं प्रेम के सहारे जीना चाहता है. सावरकर और गांधी के हिंदू का बुनियादी फर्क यही है.
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नाजीवाद के करीब हैं सावरकर
सावरकर के हिंदुत्व की जड़ें अप्रत्यक्ष रूप से उस वर्चस्ववाद में है, जो द्विज हिंदू सामाजिक दर्शन के आधार मनुस्मृति में दर्ज़ है, या फिर यूरोपियन दार्शनिक नीत्शे के उस सामाजिक डार्विनवाद में, जो योग्य लोगों को सुपरमैन (महामानव) बनाना चाहती है. वह समानतामूलक संस्कृति के आग्रही नहीं हैं. जब वे हिन्दुओं के सैनिकीकरण की बात करते हैं तब वह सैनिक और असैनिक रुचि, देहयष्टि और दूसरे सरोकारों का विभाजन भी करते हैं.
पेशे से किसान, कारीगर, मजदूर और देहयष्टि से विकलांग और अन्य कमजोर लोग उनकी राजनीति से स्वतः बाहर हो जाते हैं. ऐसी ही योजना नाज़ी और फासीवादी शक्तियों ने विकसित की थी. हिटलर और मुसोलिनी ने इसी तरह जर्मन और इतालियन जनता का सैनिकीकरण किया था. उसके नतीजों से हम परिचित हैं.
इसीलिए आज हमें गांधी और सावरकर के हिंदू के फर्क को देखना-समझना चाहिए. विचारों के खयाल से हमारा वक़्त एक मुश्किल घड़ी से गुजर रहा है. हमें गहराई से विचार करना है कि तालियों की गड़गड़ाहट और चकाचौंध के बीच आखिर हम जा किस ओर रहे हैं?
लेखक साहित्यकार और विचारक हैं. बिहार विधानपरिषद के सदस्य भी रहे हैं.)
(यह लेख लेखक के निजी विचार हैं.)