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Friday, 1 November, 2024
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ख़तीजा रहमान ने क्या खुद तय किया है कि वे नकाब पहनेंगी?

महिलाएं कैसे कपड़े पहनेंगी, ये बचपन की ट्रेनिंग और संस्कृति के दबाव में तय होता है. कहने को वे खुद तय करती हैं, कि वे क्या पहनेंगी, लेकिन ये फैसला अक्सर पितृसत्ता का होता है.

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ए. आर. रहमान की बेटी खतीजा के नकाब पर हाल ही में हंगामा बरपा हुआ है. रहमान ने अपने ट्विटर अकाउंट पर एक तस्वीर शेयर की. इस तस्वीर में उनकी तीनों बेटियां नीता अम्बानी के साथ खड़ी हैं. उनकी एक बेटी ख़तीजा ने नकाब पहना है. बाकी दो बेटियां बिना नकाब के हैं. इस तस्वीर के साथ रहमान ने एक ट्वीट किया है, ‘मेरे परिवार की अनमोल महिलाएं ख़तीजा, रहीमा और शायरा, नीता अम्बानी जी के साथ.’ साथ में उन्होंने हैशटैग डाला है #freedomtochoose यानी चुनने की आजादी.


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इस पर सोशल मीडिया में हंगाम मच गया. रहमान के समर्थन और विरोध में दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं आयीं. इसी बहाने कुछ सांप्रदायिक लोग मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने लगे. वहीं दूसरी तरफ कुछ रूढ़िवादी मुसलमान संस्कृति के नाम पर खतीजा के नकाब को सही ठहराने लगे. इस नकाब विमर्श में बहुत से मर्दों की मर्दवादी सोच भी बेनकाब हुई. हंगामा बढ़ता देख ख़तीजा ने फेसबुक पर लिखा कि, ‘मैं ये कहना चाहूंगी कि अपनी जिंदगी में मैं जो भी कपड़े पहनती हूं या फैसले लेती हूं, उसका मेरे माता-पिता से कोई लेना देना नहीं है. नकाब पहनना मेरा निजी फैसला था.’

लेकिन इस हंगामे के बीच एक महत्वपूर्ण सवाल दब गया कि क्या सचमुच महिलाओं के पास स्वतंत्र रूप से ‘चुनने की आजादी’ है?

महिलाओं की ‘चुनने की आजादी’ न्यूट्रल या निरपेक्ष नहीं है. महिलाएं उन्हीं विकल्पों में से चुनने पर मजबूर होती हैं, जो उन्हें एक मर्दवादी या पितृसत्तात्मक समाज उपलब्ध कराता है. नकाब या घूंघट महिलाओं ने खुद नहीं बनाये. ये तो मर्दों द्वारा संचालित एक पितृसत्तामक समाज की देन है. पितृसत्तामक समाज की नजर में एक आदर्श और संस्कारी स्त्री वह है जो नकाब या घूंघट में हो. नकाब या घूंघट महिलाओं का अपना स्वतंत्र चुनाव नहीं है. चुनने की आजादी का मतलब ये होता है कि आप ‘आदर्श नारी’ बनना चाहती हैं या नहीं.

इसको फ्रीडम ऑफ़ चॉइस नहीं, बल्कि कंडीशनिंग कहते हैं. कंडीशनिंग का नतीजा ये होता है कि महिलाएं मर्दों द्वारा बनाये नियम का स्वेच्छा से पालन करने लगती हैं. 1986 में राजस्थान के देवराला में रूप कंवर नाम की महिला अपने पति की चिता पर जलकर स्वयं भी सती हो गयी. इसको प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार ने ‘चुनने की आजादी’ या परंपरा के नाम पर सही ठहराया था. जोशी जी का मानना था कि रूप कंवर ने किसी के दबाव में ऐसा नहीं किया, बल्कि उसने स्वयं की मर्जी से, त्याग और बलिदान की महान परम्परा की रक्षा के लिए ऐसा किया.

लेकिन रूप कंवर अपनी चॉइस या इच्छा से सती नहीं हुई, बल्कि उसके लिए हमारा ये पितृसत्तात्मक समाज एवं वातावरण जिम्मेदार था. जिस समाज में सती को महिमामंडित किया जाता हो, सती को आदर्श स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया जाता हो वहां स्त्री का अपना स्वतंत्र विवेक बनना मुश्किल हो जाता है, जिससे वह निर्णय ले सके.

जब भी नकाब और घूंघट की बात आती है तो मामला हिन्दू बनाम मुस्लिम का बन जाता है. लेकिन ये हिन्दू बनाम मुस्लिम का मामला नहीं बल्कि मर्द बनाम स्त्री का मामला है. भारतीय पितृसत्ता के निर्माण में ब्राह्मणवादी व्यवस्था, इस्लामिक रूढ़िवाद और औपनिवेशिक-विक्टोरियाई नैतिकता, तीनों का संयुक्त योगदान रहा है. इन्ही तीनों मर्दवादी नैतिकताओं से भारतीय महिलाओं का ड्रेस कोड निर्धारित होता रहा है. कुछ उदाहरण नीचे हैं.

19वीं शताब्दी में बंगाल की महिलाएं साड़ी के नीचे ब्लॉउज नहीं पहनती थीं. उनकी छाती बेलिबास होती थी अर्थात वक्षस्थल खुले होते थे. लेकिन उस समय भारत पर रानी विक्टोरिया (1837 -1900) का शासन था. और विक्टोरियाई नैतिकता के हिसाब से किसी भी तरह का शारीरिक खुलापन या नग्नता अनैतिक मानी जाती थी. इसलिए विक्टोरियाई अंग्रेजी संस्कृति के प्रभाव में बंगाल की महिलाओं ने साड़ी के नीचे ब्लाउज पहनना शुरू किया. सत्येन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी और रवींद्रनाथ टैगोर की भाभी ज्ञानदानंदिनी देबी ने ब्लाउज, बंडी, कुर्ती और आज के दौर की साड़ी को फैशन में लाया.

कहा जाता है कि एक बार ज्ञानदानंदिनी देबी को अंग्रेजों के बनाये क्लब में जाने से रोक दिया गया, क्योंकि उन्होंने साड़ी के नीचे कुछ नहीं पहना था, उनके वक्षस्थल खुले और नग्न थे. यह अंग्रेजों के हिसाब से अनैतिक था. उसके बाद से ही ज्ञानदानंदिनी ने ब्लॉउज पहनना शुरू किया. इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाली महिलाओं को अपने पसंद का कपड़ा चुनने की आजादी नहीं थी. ब्लाउज और पेटीकोट भी विक्टोरियाई युग में ही भारतीय लोगों के जुबान पर चढ़े.

केरल के त्रावणकोर राज (1500 -1949) में दलित और पिछड़ी जाति की महिलाओं को ऊंची जातियों के पुरुषों के सामने वक्षस्थल ढंकने की आजादी नहीं थी. दलित-पिछड़ी या अवर्ण जाति की महिलाएं कमर के ऊपर कपड़ा नहीं पहन सकती थीं, जो पहनना चाहतीं थीं, उन्हें ब्रेस्ट टैक्स यानी वक्षस्थल ढंकने के लिए कर देना पड़ता था. इसे खत्म करने के लिए अपर क्लॉथ मूवमेंट केरल में चला., तब जाकर यह अमानवीय प्रथा ख़त्म हुई. यह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का एक उदहारण है, जहां निम्न समुदाय की महिलाओं को परिधान ‘चुनने की आजादी’ सीमित थी.

एक जमात रूढ़िवादी मुसलमानों की भी है. ये लोग मुस्लिम महिलाओं को हिजाब, बुर्का और नक़ाब पहनने की हिदायत देते रहते हैं. ऐसे लोग खुद आरामदायक कुर्ता पायजामा, जीन्स, टी-शर्ट पहनेंगे और महिलाओं को चेहरा ढंक के निकलने का उपदेश देंगे. मर्दों के लिए कोई ऐसा ड्रेस या परिधान नहीं है, जिसमें उनका पूरा चेहरा ढंक जाता हो. फिर महिलाओं के लिए ये नकाब और घूंघट क्यों?


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अगर कोई महिला अपनी मर्जी से भी नकाब या घूंघट पहनती है तब भी उसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता. मुख्य सवाल ये है कि घूंघट और नकाब जैसे सामंती और पितृसत्तात्मक परिधान अस्तित्व में ही क्यों हैं? नकाब और घूंघट सिर्फ परिधान नहीं हैं, बल्कि एक मूल्यबोध भी हैं जिसे हमारी पितृसत्ता ने तैयार किया है. इस मूल्यबोध की गिरफ्त में महिलाएं भी हैं. जिस दिन ये पितृसत्तात्मक मूल्यबोध ख़त्म हो जायेगा उस दिन से कोई भी महिला नकाब और घूंघट को अपने परिधान के रूप में नहीं चुनेगी. हम ऐसा सामाजिक वातावरण क्यों नहीं बनाते जहां महिलाओं को घूंघट और नकाब पहनना ही न पड़े, चुनना तो दूर की बात है.

आज हम LGBTQ और यूनीसेक्स फैशन के दौर में जी रहे हैं. अब जेंडर या लिंग का पारम्परिक विभाजन मिट रहा है. महिलाएं भी मर्दों जैसे कपड़े पहन रहीं हैं और मर्द महिलाओं जैसे. इसलिए हमें नकाब और घूंघट जैसे महिला विरोधी परिधानों से आगे बढ़ना होगा और पितृसत्ता के नकाब को बेनकाब करते रहना होगा.

(लेखक जेएनयू में पीएचडी स्कॉलर हैं.)

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