हमारे दो पड़ोसी देशों पाकिस्तान और श्रीलंका ने चीनी कर्ज पर आधारित कई इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए करार किए और आर्थिक संकट में फंस गए. और अब वे राजनीतिक उथल-पुथल के कारण परेशान हैं. तीसरे पड़ोसी देश म्यांमार में 14 महीने पहले फौजी तख्तापलट के बाद चीन ने वहां फिर कदम रखा और अब वह आर्थिक कॉरिडोर के वास्ते परियोजनाओं के लिए दबाव डाल रहा है. मालदीव में भी चीनी पैसे से चलने वाली परियोजनाओं और कर्जों में सरकार में परिवर्तनों के साथ बढ़ोत्तरी या कमी होती रही है. मालदीव को चीन से मिले कर्ज के अनुमानों में भरी अंतर दिखता रहा है. यह अपारदर्शिता इसलिए है क्योंकि चीन कर्जों को व्यापार के उधार के रूप में छिपाता रहा है या उन्हें विशेष प्रयोजन के रूप में देता रहा है. और चीनी कर्ज सस्ता नहीं होता. उन पर ब्याज दरें दूसरे देशों के द्वारा दी जाने वाली द्विपक्षीय सहायता पर ब्याज दरों की करीब तीन गुनी ज्यादा होती हैं.
अमेरिका ने इस चलन को कर्ज-जाल की कूटनीति नाम दिया है. इस क्षेत्र में अच्छी प्रगति कर रहा बांग्लादेश चीनी पैसे से चलने वाली परियोजनाओं से बहुत सावधान रहा है. पाकिस्तान के मुक़ाबले ज्यादा बड़ी अर्थव्यवस्था वाले बांग्लादेश ने पाकिस्तान के मुक़ाबले ऐसी एक चौथाई परियोजनाओं को ही अपनाया है जो चीनी कर्ज से चलती हैं. नेपाल भी सावधानी बरतता रहा है. इस क्षेत्र के उन्हीं देशों में उथल-पुथल मची है जिन्होंने ज्यादा चीनी कर्ज लिये हैं.
फिर भी, सारा दोष चीन के मत्थे मढ़ना गलत होगा. पाकिस्तान और श्रीलंका में मुख्य समस्या लंबे समय से जारी आर्थिक कुप्रबंधन ही है. इसके कारण वे कोविड और यूक्रेन युद्ध के असर के ज्यादा शिकार हुए हैं. पाकिस्तान अपनी अर्थव्यवस्था के साथ किस तरह खिलवाड़ करता रहा है यह सबको मालूम है. 30 वर्षों में उसने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) से 13 कर्जे लिये लेकिन कर्ज की शर्तों का पालन न करने के कारण उनसे चलने वाले ज़्यादातर कार्यक्रम बीच में ही बंद करने पड़े. आईएमएफ ने 6 अरब डॉलर का ताजा कर्ज भी रोक दिया है, और चीन को पाकिस्तान के अनुरोधों को पूरा करने के लिए आगे आना पड़ा है. उसने परियोजनाओं के लिए दिए गए कर्ज की कठोर शर्तों को बदलने से माना कर दिया है लेकिन एक ग्राहक देश के अंतिम सहारे के रूप में उसकी मदद करने को बेमन से राजी हुआ है जबकि सऊदी अरब जैसे देश ने मना कर दिया. लेकिन पाकिस्तान कर्ज के नशे से उबरने को तैयार नहीं दिखता. इमरान खान ने हाल में ‘व्यापार कर्ज’ के रूप में 4.2 अरब डॉलर दिए जाने की मांग की है. चीन इसके लिए तैयार हुआ तो इमरान खान ने कर्ज की सीमा दोगुनी करने की मांग कर दी. चीन पाकिस्तान का सबसे बड़ा कर्जदाता है.
श्रीलंका की कहानी अधिक बुरी है. उसका जीडीपी में टैक्स का अनुपात तीन सालों में एक तिहाई घट गया क्योंकि इस दर में कटौती की गई. जाहिर है, देश की क्रेडिट रेटिंग गिर गई, बजट घाटा जीडीपी के 14 फीसदी के बराबर जा पहुंचा, वित्तीय घाटे को पूरा करने के लिए विदेशी कर्जों का रोल-ओवर असंभव के स्तर पर जा पहुंचा. इसके कारण विदेशी मुद्रा का संकट खड़ा हो गया और मुद्रा की कीमत धड़ाम से गिर गई. राजपक्षे सरकार ने रातोरात रासायनिक खाद पर रोक लगाकर देशभर में ऑर्गेनिक खेती शुरू करने का आश्चर्यजनक फैसला कर डाला. ऑर्गेनिक खेती की वंदना शिवा जैसी पैरोकारों के समर्थन से उत्साहित होकर सरकार ने इस तथ्य की अनदेखी कर दी की खाद्य सामग्री की महंगाई की समस्या के लिए ऑर्गेनिक खेती एक सजावटी समाधान ही है. फसल की जबर्दस्त खराबी के कारण सरकार को अपने कदम खींचने पड़े, लेकिन अब उसके पास रासायनिक खाद मंगाने के लिए डॉलर नहीं हैं. अब भारत और बांग्लादेश से अनाज भेजे जा रहे हैं.
इसमें चीन की भूमिका और ज़िम्मेदारी कितनी है? शातिर कर्जदाता के रूप में उसने वहां-वहां झोला खोला जहां उसे अच्छा मौका नज़र आया. और उसने सावधानी से निशान साधा. परियोजनाएं और कर्ज उन देशों को दिए गए जो संसाधन से अमीर हैं और सामरिक दृष्टि से उपयुक्त स्थान पर स्थित हैं. उनमें से 70 फीसदी ऐसे थे जिनकी क्रेडिट रेटिंग खराब थी या थी ही नहीं. इसलिए उनके पास बाहरी वित्त के कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं थे. उसने परियोजना की परिसंपत्तियों को जमानत पर रखकर अपने हितों की रक्षा की और कुछ परियोजनाओं को तो अपने कब्जे में ही कर लिया. इस तरह, संपत्ति हड़प कर कर्ज दिए. राजनीतिक नेताओं (मसलन श्रीलंका का राजपक्षे परिवार) को सहयोगी बनाना इस रणनीति का जरूरी हिस्सा रहा.
इसलिए, चीन ने समस्या को जन्म नहीं दिया बल्कि उसे बढ़ाने का काम किया, जिसकी जड़ें कर्ज लेने वाले देशों की कमजोर राजनीतिक तथा आर्थिक प्रबंधन में थीं. चीनी कर्ज से कुछ समस्याओं का समाधान हो सकता था, जैसे पाकिस्तान का गहरा बिजली संकट. लेकिन इसके साथ किए जाने वाले सुधारों के अभाव में अच्छी परियोजनाएं भी वित्तीय बोझ बन जाती हैं. यही कारण है कि निजी तौर पर वित्त पोषित इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं अक्सर एक बुरा विचार होती हैं, और महंगे कर्ज़ों के विदेशी-वित्त पोषित परियोजनाएं तो और भी ख़राब होती हैं. अगर आपने मूर्खतावश ऐसी परियोजनाएं शुरू कर दी हैं, तो बीजिंग को क्यों दोष देते हैं?
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