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Tuesday, 17 December, 2024
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ध्रुव राठी का सवाल अच्छा है, बस थोड़ा बदल कर पूछें कि भारत किस क़िस्म के ‘अ-लोकतंत्र’ में बदल रहा है

भारत में भले ही आदर्श लोकतंत्र कभी नहीं रहा लेकिन अभी चीजें इस हद तक रसातल को पहुंच गई हैं कि भारत को न्यूनतम अर्थों में भी लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद बेहतर नाम है.

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क्या भारत तानाशाही में बदलते जा रहा है? इस शीर्षक वाला वीडियो अगर एक हफ्ते के भीतर एक करोड़ साठ लाख व्यूज बटोर ले तो फिर एक बात दावे के साथ कही जा सकती है कि सवाल तो पूछना बनता है. लेकिन हम ये बात दावे के साथ नहीं कह सकते कि जवाब भी मिल गया है.

ध्रुव राठी के सुपर-वायरल वीडियो से जुड़ी दिलचस्प बात ये है कि उसमें ऐसी कोई नई बात नहीं कही गई या ऐसा कोई सनसनीखेज खुलासा नहीं किया गया जिससे रोजमर्रा के समाचारों की सुर्खियों पर गौर करने वाला व्यक्ति वाकिफ न हो. वीडियो में हर वह बात सीधी-सरल भाषा में दोहरायी गई है जिसे लेकर देशवासी और भारतीय लोकतंत्र के हितैषी चिन्ता में हैं, जैसे: चुनावी-बांड, चंडीगढ़ मेयर के चुनाव में हुई धांधली, सीबीआई/ईडी का दुरूपयोग, मीडिया की आजादी में आयी कमी, साजिशन निशाने पर लिये जाते विपक्षी नेता, विपक्षी दलों की सरकार का गिराया जाना और ऐसी ही वे तमाम बातें तो जिनसे आप आये-दिन दो-चार होते हैं. फिर भी, वीडियो इतना ताकतवर बन पड़ा है कि बीजेपी के छवि-निर्माता और उस छवि की रखवाली में चौबीसों घंटे तैनात खैरख्वाह प्रतिक्रिया के लिए बाध्य हुए. वीडियो में मौजूद प्रेज़ेंटर की विश्वसनीयता, मोदी-विरोधी जुमलेबाजी से परहेज और कहानी की सरलता के कारण दर्शक न सिर्फ पहले से ज्ञात तथ्यों से अपने को जोड़ सके बल्कि इन तथ्यों को आपस में जोड़कर बनती जाहिर सी तस्वीर को भी देख और समझ पाये. एक सटीक सवाल का पीछा करना इस तथाकथित सत्याभासी युग में भी आपको सच्चाई की राह पर बड़ी दूर तक ले जा सकता है.

फड़कते हुए सवाल के साथ एक खतरा भी लगा रहता है. ऐसे सवाल हमें आसान जवाब के लालच में फंसाते हैं कि झटपट ‘हां’ या ‘न’ में उत्तर सुना दिया जाये. हालांकि ध्रुव राठी अपने वीडियो में इस खतरे को लेकर चौकस हैं फिर भी वीडियो की व्याख्या के सहारे ये अर्थ निकाला जा सकता है कि भारत दरअसल एक तानाशाही में बदल रहा है. मौजूदा सरकार के ज्यादातर आलोचक भी ऐसा ही मानते हैं. मुश्किल ये नहीं कि मौजूदा सरकार को ‘तानाशाह’ बताना अतिशयोक्ति है. असल, मुश्किल तो ये है कि ऐसा जवाब मौजूदा सत्ता-तंत्र को कठघरे से बाहर निकलने में मदद करता है.

अलोकतांत्रिक व्यवस्था ‘तानाशाही’ हो ज़रूरी नहीं

‘क्या भारत तानाशाही में बदल रहा है–‘ यह सवाल आमंत्रित करता है कि हम देश की राजनीतिक व्यवस्था को लोकतंत्र की मान्य कसौटियों पर परखकर देखें. यह सवाल हमें आज की सच्चाइयों और लोकतंत्र की कसौटियों के बीच जो खाई लगातार बढ़ती जा रही है, उसके बिल्कुल आमने-सामने ला खड़ा करता है. लेकिन साथ ही यह सवाल हमारे सामने तानाशाही की पुरानी छवि पेश करता है जैसे- मार्शल लॉ (सैन्य शासन), सेंसरशिप, चुनावों तथा संविधान का स्थगन आदि. चूंकि इन कसौटियों से उभरती छवि और मोदी के मौजूदा भारत के बीच पूरा मेल नहीं बैठता इसलिए मौजूदा शासन-तंत्र के समर्थकों को आसानी हो जाती है. दरअसल मौजूदा शासन-तंत्र के समर्थकों का तर्क तो यही है: चूँकि भारत की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था तानाशाही की शास्त्रीय कसौटियों पर खरी नहीं उतरती इसलिए भारत में लोकतंत्र ज़िंदा है. अगर तानाशाही नहीं है तो लोकतंत्र ही होगा.

तो, ऐसे में हमें 21वीं सदी के राजनीति विज्ञान का एक बुनियादी पाठ याद कर लेना होगा कि: हर अ-लोकतांत्रिक व्यवस्था तानाशाही ही हो, यह कत्तई जरूरी नहीं. हम जिस युग में रह रहे हैं उसमें अ-लोकतांत्रिक राज-व्यवस्थाओं के लिए पुराने तर्ज की तानाशाही का जामा पहनना न तो जरूरी रह गया है और न ही वे ऐसा करती हैं. ऐसे में, हमारे लिए असल का सवाल ये नहीं कि क्या भारत अब एक जीवंत लोकतंत्र नहीं रह गया बल्कि व्याख्या की चुनौती देता असल सवाल ये है कि: भारत में अ-लोकतांत्रिक राजव्यवस्था का कौन-सा रूप प्रचलित हो चला है?

‘अधिनायकवादी राज-व्यवस्था'( अगर हम तमाम किस्म की अलोकतांत्रिक राज-व्यवस्थाओं के लिए इस एक शब्द का प्रयोग करें तो) के भीतर कई किस्म की राजनीतिक व्यवस्थाएं शामिल हैं. तुलनात्मक राजनीति विज्ञान के मशहूर विद्वान प्रोफेसर हुवान लिंज़ ने 1975 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध कृति टोटलिटेरियन एंड ऑथोरिटेरियन रिजीम्स में ऐसी अलोकतांत्रिक राज-व्यवस्थाओं की एक शुरूआती पड़ताल की है. तब की तुलना में अब का संदर्भ बुनियादी तौर पर बदल चुका है. शीत-युद्ध खत्म हो गया है और उदारवाद के दबदबे का वह छोटा सा दौर भी बीच गया है जो तमाम सरकारों पर लोकतंत्र बने रहने के दवाब बनाया करता था. अब के समय में तो घर-घर बनने वाली खिचड़ी की तरह जगह जगह अ-अलोकतांत्रिक राज-व्यवस्थाएं पनप रही हैं बशर्ते वे अपने अ-लोकतांत्रिक होने का ढोल-नगाड़ा न पीटें. तो, अभी हमें एक संकर प्रजाति की राज-व्यवस्था देखने को मिल रही है जिसमें लोकतंत्र के कुछ तत्वों को मिलाकर एक निरंकुश शासन-व्यवस्था कायम कर ली जाती है.

प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की अवधारणा

ऐसी मिलवां राज-व्यवस्थाओं की एक क़िस्म है “प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद“ जो हमारे लिए खास तौर पर गौरतलब है. साल 2002 में जर्नल ऑफ डेमोक्रेसी में ‘द राइज ऑफ कम्पिटिटीव ऑथोरिटेरियनिज्म’ शीर्षक से प्रकाशित पथ-प्रवर्तक लेख से लेकर लगातार अपने ऐसे कई अध्ययनों में विद्वान स्टीवन लेवित्स्की तथा ल्यूकन वे ने इस तर्ज के अधिनायकवाद को परिभाषित और वर्गीकृत करने तथा व्याख्या देने का प्रयास किया है. इन दो विद्वानों ने प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की परिभाषा करते हुए इसे एक ऐसी राज-व्यवस्था माना है जिसमें सत्ताधीश को लोकतंत्र की तमाम औपचारिक क्रियाविधियों को खत्म करने की जरूरत नहीं होती बल्कि ऐसी राज-व्यवस्था में सत्ताधीश ‘लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को बनाये रखते हुए नियंत्रण और जोर-जबर्दस्ती के अनौपचारिक तरीके अपनाता’ हैं. शासन के इस रूप को प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद का नाम देने के पीछे तर्क ये याद दिलाना है कि ऐसी राज-व्यवस्था लोकतंत्र का लचर रूप नहीं बल्कि अपूर्ण अधिनायकवाद होती है.

ऐसे शासन में ‘राजनीतिक ताकत हासिल और इस्तेमाल करने के लिए लोकतंत्र की औपचारिक संस्थाओं का सहारा लिया जाता है. सत्ताधीश (लोकतंत्र के) ऐसे नियमों का बहुधा और इस हद तक उल्लंघन करते हैं कि (शासन) लोकतंत्र के लिए जरूरी न्यूनतम कसौटियों पर भी खरा नहीं उतर पाता. … हालांकि चुनाव नियमित रूप से होते हैं और उनमें बड़े पैमाने की धांधली भी नहीं होती तो भी सत्ताधीश रोजमर्रा के तर्ज पर राजकीय संसाधनों का दुरूपयोग करते हैं, विपक्ष को समुचित मीडिया कवरेज से वंचित रखते, विपक्ष के उम्मीदवारों और समर्थकों को सताते और कई मामलों में चुनाव के नतीजों के साथ हाथ की सफाई का कमाल दिखाते हैं.’

प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की यह अवधारणा भारत की मौजूदा शासन-व्यवस्था के बारे में बात करने के लिए प्रासंगिक है या नहीं, इस पर विचार करने से पहले हमें एक बात और याद रखनी होगी. प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद के भी दो रूप देखने को मिलते हैः प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद का एक रूप वह है जो विभिन्न किस्म की निरंकुश राज-व्यवस्थाओं के अधूरे ‘लोकतंत्रीकरण’ के कारण उठ खड़ा होता है. ऐसी अधिनायकवादी शासन के लिए कम-ओ-बेश लोकतांत्रिक साख और संस्था की बनावट का बनाये रखना जरूरी होता है लेकिन बस उसी हद तक कि सत्ता के हाथ से फिसलने का कोई गंभीर खतरा न खड़ा हो जाये. जर्नल ऑफ डेमोक्रेसी में प्रकाशित

स्टीवन लेवित्स्की तथा ल्यूकन वे के ऊपर दर्ज लेख में इस तर्ज के प्रतिस्पर्धी अधिनायकवादी शासन के उदाहरण के रूप में जिन देशों को शामिल किया गया है उन में किर्गिस्तान, बोलीविया, सर्बिया, नाइजीरिया, केन्या और जिम्बॉव्बे शामिल हैं.
दूसरी तरफ, प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद का एक रूप और भी देखने को मिलता है जब खुली प्रतिस्पर्धा वाली कोई मजबूत जान पड़ती लोकतांत्रिक व्यवस्था पतन का शिकार होकर व्यवहार में अधिनायकवादी व्यवस्था में बदल जाती है. हंगरी, फिलिपीन्स, तुर्की तथा वेनेजुएला इसके सम-सामयिक उदाहरण हैं. लेवित्स्की और वे के मुताबिक ऐसी शासन-व्यवस्था के प्रमुख लक्षण ये हैः शासक को मजबूत बहुमत हासिल होता है और वे खुले चुनाव तथा संविधान के नियमों को बदलने के लिए उग्र-बहुसंख्यकवादी रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं ताकि विपक्षी कमजोर हों और शासक की पकड़ सत्ता पर मजबूत बनी रहे. ‘रोजमर्रा के तर्ज पर इस्तेमाल होने वाली ऐसी तरकीबों में शामिल हैः सत्ता के आलोचक तथा विरोधियों को अपने अनुकूल आचरण करने के लिए रिश्वत खिलाना, साथ मिलाना और ‘कानूनी’ तौर पर फंदे में फंसाने के लिए टैक्स वसूली की संस्थाओं, दब्बू न्यायपालिका तथा अन्य राजकीय संस्थाओं का सहारा लेना.


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भारत में प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद

प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद के ऊपर वर्णित रूप से भारत के शासन की तुलना करने पर गजब का मेल दिखता है. भारतीय लोकतंत्र का कोई भी गंभीर अध्येता आज ये दावा करने को तैयार नहीं कि मोदी के शासन-काल में भारत एक आदर्श या उससे कमतर लोकतंत्र की तरह काम कर रहा है. विद्वानों में इस बात को लेकर सहमति है कि भारत में भले ही आदर्श लोकतंत्र कभी नहीं रहा लेकिन अभी चीजें इस हद तक रसातल को पहुंच गई हैं कि भारत को न्यूनतम अर्थों में भी लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता. लोकतंत्र के मापन के जो दो प्रसिद्ध वैश्विक सूचकांक हैं उनसे भी यही बात झलकती है. बेशक, पश्चिम की दुनिया में बनाये गये लोकतंत्र के ये संख्यात्मक सूचकांक किन्हीं अर्थों में वस्तुनिष्ठ प्रतीत न हों तो भी उनके सहारे ये तो तुलनात्मक रूप से देखा ही जा सकता है कि कोई देश लोकतंत्र को कायम रखने के लिहाज से कालक्रम में कहां से कहां तक पहुंचा. फ्रीडम हाऊस ने देशों की लोकतांत्रिक सेहत का पता देते अपने सूचकांक में भारत को ‘मुक्त’ लोकतंत्र से नीचे के दर्जे में खिसकाकर अब ‘आंशिक रूप से मुक्त’ लोकतंत्र की श्रेणी में रखा है जबकि वी-डेम (V-Dem) ने भारत को ‘चुनावी लोकतंत्र’ के दर्जे से खिसकाकर अब ‘चुनावी निरंकुशता’ वाले देश की श्रेणी में रखा है. विद्वानो में असहमति बस इस बात पर रह गई है कि भारत की मौजूदा शासन-व्यवस्था को नाम क्या दिया जाये—अनुदारवादी शासन-तंत्र कहा जाये, लोक-लुभावन का नाम दिया जाये, बहुसंख्यकवाद या नस्ली लोकतंत्र कहा जाये अथवा सीधे-सीधे फासीवाद कह दिया जाये.

प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की अवधारणा इस मामले में मददगार साबित होती है. इसके सहारे हम जान पाते हैं कि भारत में लोकतंत्र को चलाये रखने का औपचारिक ढांचा मौजूद है और इस ढांचे को पूरी तरह से नकारा नहीं कहा जा सकता और यह भी कि भारत में चुनावी मुकाबले अब भी पूरी तरह से गोरखधंधे में नहीं बदले. इसी नाते जब-तब सत्ताधारी पार्टी को कुछ नुकसान भी उठाना पड़ता है. साथ ही, प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की अवधारणा के सहारे हम ये भी समझ पाते हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में सेंधमारी की जा रही है और दो चुनावों के बीच की अवधि में दर-हकीकत अधिनायकवादी शासन चलाया जा रहा है. इसी कारण जेम्स मेनर और राहुल मुखर्जी जैसे विद्वान और मुझ जैसे कार्यकर्ता भारत के मौजूदा शासन-तंत्र को समझने के लिए प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की धारणा का इस्तेमाल कर रहे हैं.

प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद का कोई ठोस रूप-आकार नहीं होता और हमारे देश में जारी प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की कुछ खास भारतीय विशेषताएं हैं. हम लोग चुनावों को बहुत ज्यादा अहमियत देते हैं और चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए एक धुरी बने चले आ रहे हैं. सो, अचरज नहीं कि राजनीतिक मुकाबले की बस यही एक चीज मौजूदा शासन में जीवित बची रह गई है. विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया अब प्रतिस्पर्धा का कोई मानीखेज अखाड़ा नहीं रह गये. ऐसी शासन-व्यवस्था में बस चुनावों के चंद हफ्ते में जब-तब लोकतंत्र की एक झलक देखने को मिल जाया करती है.

प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की इन भारतीय विशेषताओं के भीतर से हमारे लिए आशा की एक किरण भी फूटती है. प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद वाले ऊपर वर्णित अन्य देशों की तुलना में देखें तो भारत में लोकतंत्र की भावना देश के लोगों के मन-मानस में बड़ी गहराई तक पेवस्त हो चुकी है. शिव विश्वनाथन के शब्दों में कहें तो भारत ने लोकतंत्र को “बाई हार्ट” कर लिया है . बेशक, फिलहाल भारत के लोगों के दिल में एक मजबूत नेता की चाह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा जोर मार रही है लेकिन लोगों को ये भी लगता है कि ऐसी चाहत का लोकतंत्र से कोई विरोध नहीं है. भारत के लोगों ने आपातकाल (इमरजेंसी) का स्वाद चखा है, जान लिया है कि लोकतंत्र को खो देने और उसे वापस पाने का अनुभव कैसा होता है. एक बार लोगों को लोकतंत्र का स्वाद लग जाये तो वे इसे छोड़ने को तैयार नहीं होते — कम से कम जान बूझकर और स्वेच्छा से तो नहीं.

(योगेन्द्र यादव भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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