भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार और उसके समर्थक ‘अच्छे दिन’, ‘विकास’, ‘पांच खरब वाली अर्थव्यवस्था’ जैसे जुमले उछाल रहे हैं तब यह सवाल लाजिमी है कि ‘विकास’ का सच में मतलब क्या है? प्रायः आम धारणा यही होती है कि सरकार के कामकाज का आकलन जीडीपी वृद्धि दर या अर्थव्यवस्था के कुल आकार सरीखे पारंपरिक आर्थिक सूचकांकों के आधार पर किया जाता है. लेकिन ये सीधे-सीधे यह नहीं बताते कि भारत के नागरिकों की वास्तविक स्थिति क्या है. उनके लिए तो महत्वपूर्ण यह है कि रोजगार के अवसर कितने बढ़े हैं या उनकी निजी आमदनी कितनी बढ़ी है, पर्यावरण का क्या हाल है, सामाजिक रिश्ते किन हालात में हैं, जीवन कितना बेहतर हुआ. यह सब उनके लिए ज्यादा महत्व रखता है, हालांकि ये बातें आम आर्थिक सूचकांकों में दर्ज़ नहीं होतीं.
कुछ देशों ने इस चुनौती का सामना करने के लिए अपने नागरिकों की बेहतरी का आकलन करने के दूसरे पैमाने तय किए हैं. इन्हें अक्सर ‘कल्याणकारी बजट’ के खाने में इकट्ठा कर दिया जाता है.
खुशहाली का पैमाना
इस साल मई में न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जाकिंदा आर्डेन के नेतृत्व में उस देश का पहला ‘वेलबींग (कल्याणकारी) बजट’ पेश किया गया, जो पारंपरिक आर्थिक नियोजन और वित्तीय संसाधनों के आवंटन से हटकर उस व्यवस्था को लागू करता है जिसमें नीति निर्धारण का आकलन दीर्घकालिक सामाजिक ‘कल्याण’ के नजरिए से करती है. इस बजट में प्रमुख ज़ोर मानसिक सेहत, बच्चों के विकास के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे, देशी समुदायों के लिए अवसरों में वृद्धि और गरीबी उन्मूलन जैसे मामलों पर दिया गया है.
केवल न्यूजीलैंड वाले ही पारंपरिक आर्थिक पैमानों से आगे जाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं. अस्सी के दशक में संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास सूचकांक का विचार प्रस्तुत किया था. इसके लगभग 50 साल बाद भूटान ने ‘सकल खुशहाली सूचकांक’ की घोषणा करके तहलका मचा दिया था. यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) जैसे पारंपरिक सूचकांकों से आगे जाता था और अपनी जनता के कल्याण पर समग्र दृष्टि डालता था. इसी तरह यूएई ने अपने मंत्रिमंडल में खुशहाली राज्यमंत्री के तहत एक नया विभाग बनाया (जिसे फिलहाल मेरे मित्र शेख नाहयान बिन मुबारक संभाल रहे हैं). इसके अलावा खुशहाली एवं सकारात्मकता का राष्ट्रीय कार्यक्रम हर बड़े सरकारी संस्थानों और कार्यक्रमों में शामिल किया गया है. वेल्श लोगों ने ‘भावी पीढ़ियों की खुशहाली का कानून’ बनाया है जिसका लक्ष्य सरकारी नीतियों के सामाजिक व पारिस्थितिकीय प्रभावों पर नज़र रखना है और अपने भारत देश में मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने ‘खुशहाली विभाग’ बनाने का प्रयोग किया जिसे सीमित सफलता ही मिली.
जरूरी काम की अनदेखी
पारंपरिक नीतियों से अलग रास्ता चुनना ज़्यादातर अर्थशास्त्रियों को जमता नहीं है, वे जनकल्याण जैसे मसलों के साथ जुड़े ‘निजी आग्रहों’ से खासकर ज्यादा सतर्क दिखते हैं. यह चिंता भी होती है कि ऐसे प्रयास वृद्धि दर, उपभोग प्रवृत्ति, औद्योगिक उत्पादन, जैसे पारंपरिक सूचकांकों से मापे जाने वाले आर्थिक लक्ष्यों से खतरनाक भटकाव पैदा करते हैं. लेकिन, इस तरह की चिंता समझ में आती है. भारत जैसे देश में, जहां जनकल्याण की नीतियों के साथ कई लोगों का, गरीबी रेखा के आसपास जी रहे बड़े सामाजिक तबके का वजूद गहरे जुड़ा हो वहां हम ‘खुशी’ जैसी भ्रामक चीज़ के लिए भटकाव का जोखिम नहीं उठा सकते. खासकर तब जब मोदी सरकार और उसके पैरोकार भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत से ध्यान हटाने के लिए तमाम तरह के भटकाव पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं.
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हम ‘व्यवसाय करने की आसानी वाले सूचकांक’ में टॉप 100 देशों में शामिल किए जाने का जश्न जरूर मनाएं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र वैश्विक खुशहाली सूचकांक के मामले में अपने लिए बज रही खतरे की घंटी को अनसुनी नहीं कर सकते, जिसमें हम 156 देशों में 140वें नंबर पर आ गए हैं और साथ ही हम दक्षिण-पूर्व एशिया में सबसे ज्यादा आत्महत्या दर वाला देश बन गए हैं, जो इस बात का सबसे चिंताजनक प्रमाण है कि हमारे यहां मानसिक सेहत से जुड़ी जो महामारी है (हरेक तीन में से एक आदमी अवसाद से जूझ रहा है) वह हमारी पारंपरिक आर्थिक वृद्धि को पटरी से उतार सकती है.
इससे निपटने के लिए सबसे पहले तो हमें यह कबूल करना होगा कि ‘जनकल्याण बजट’ कोई ‘अगर-मगर’ वाला मामला नहीं है. यह पारंपरिक अर्थनीति का विकल्प नहीं है बल्कि एक ऐसी परियोजना है जो हमें ऐसे औज़ार और संकेतक बनाने में मदद करेगी जो आर्थिक उपलब्धियों को उनके प्रकट मूल्य से आगे ले जाएंगे और अर्थशास्त्री रिचार्ड लायर्ड (यूएन वैश्विक खुशहाली सूचकांक के एक मुख्य संपादक) के मुताबिक हमारे नागरिकों की अवस्था का बेहतर आकलन करने का पैमाना बनाने में भी मदद करेंगे. आखिर, किसी सरकार का यही तो फर्ज़ होता है.
जनकल्याण का रास्ता
जैसा कि टीकाकार मार्टिन वुल्फ़ ने कहा है, जनकल्याण बजट को लागू करने के दो तरीके हैं. एक तो वह है जिसे न्यूजीलैंड ने अपनाया और जिसके तहत सरकार के सभी अहम फैसलों को खुशहाली लाने के प्रयासों को और नीतियों को इस कसौटी पर कसने से जोड़ा गया है कि उनका समुदायों पर क्या दीर्घकालिक सामाजिक एवं पारिस्थितिकीय प्रभाव पड़ता है (नीतियों के आकलन में अक्सर इसे भुला दिया जाता है). यह तरीका भारत जैसे देश में अपनाना आसान नहीं है, जहां एक ही राज्य हिमाचल प्रदेश की आबादी न्यूजीलैंड से ज्यादा है. इसलिए दूसरे तरीके पर विचार करना ठीक रहेगा, जिसके तहत सिर्फ नागरिकों के कल्याण पर ही केंद्रित बजट बनाया जाता है.
इसलिए, भारत जबकि पारंपरिक आर्थिक नियोजन और अपने महत्वाकांक्षी जनकल्याण कार्यक्रमों को जारी रख सकता है, एक अलग ‘कल्याण बजट’ लागू करना हमें उन मसलों पर ज़ोर देने की सुविधा दे सकता है जो सभी भारतीयों की बेहतरी से गहरे जुड़े हैं. अपने पर्यावरण को सुधारने (मसलन वायु प्रदूषण से निबटना, जो जाड़े में उत्तर भारत को घरों के भीतर रहने को मजबूर करता है) के प्रति ज्यादा मजबूत प्रतिबद्धता या मानसिक सेहत पर ज्यादा खर्च करना (केवल भारत में स्वास्थ्य सेवा पर बड़े खर्च के एक हिस्से के तौर पर नहीं बल्कि केवल उस मसले पर खर्च में वृद्धि जो इस बीमारी के डॉक्टरों की कमी को दूर करे और मजबूत सहायक बुनियादी ढांचा तैयार करे) और भारत के युवाओं (देश में जो बहुसंख्या में हैं) को जरूरी हुनर और अवसर मुहैया कराने के सतत प्रयास करना.
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जनकल्याण के लिए समर्पित खर्च की संवैधानिक ज़िम्मेदारी से इतना तो जरूर होगा कि उन बातों को कुछ तरजीह मिलेगी, जिनकी पारंपरिक बजट में प्रायः अनदेखी की जाती है या जिनमें कटौती की जाती है. करीब 250 साल पहले अमेरिकी आज़ादी के घोषणापत्र को ‘जीवन, स्वाधीनता और खुशी के लिए जद्दोजहद’ के नाम समर्पित किया गया था. क्या अब समय नहीं आ गया है कि जीवन के स्तर को सुधारा जाए, स्वाधीनता की रक्षा की जाए और हम अपनी खुशी की तलाश में जुट जाएं ?
लेखक तिरुवनंतपुरम से सांसद हैं और पूर्व विदेश तथा मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री हैं. वे तीन दशकों तक यूएन में एडमिनिस्ट्रेटर तथा पीसकीपर रहे हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज में इतिहास की और टफ्ट्स यूनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों की पढ़ाई की. वे कुल 18 पुस्तकें दे चुके हैं, उनकी सबसे नई पुस्तक है—‘द पाराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर’. ये उनके निजी विचार हैं.
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