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Tuesday, 17 September, 2024
होममत-विमतनॉर्थ-ईस्ट में अपनी नीतियों से नई आग भड़काने और पुराने जख्मों को कुरेदने के बावजूद BJP बाज आने को तैयार नहीं

नॉर्थ-ईस्ट में अपनी नीतियों से नई आग भड़काने और पुराने जख्मों को कुरेदने के बावजूद BJP बाज आने को तैयार नहीं

मणिपुर मसला उत्तर-पूर्वी क्षेत्र को लेकर भाजपा की ‘जिउ-जित्सु’ मार्का राजनीति का इस्तेमाल करते हुए शासन चलाने की एक अनूठी मिसाल है. वहां वह जो काम कर रही है उससे हालात सुधरे नहीं बल्कि और बिगड़े ही हैं लेकिन यह पार्टी यह काम जारी रखने पर आमादा है

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मोदी सरकार की नीतियों पर पिछले दशक में जो भी बहसें हुई हैं उनमें उनकी नीतियों के लिए ‘मजबूत’ विशेषण का जम कर प्रयोग किया जाता रहा है. लेकिन आज सवाल यह है कि यह एक ताकतवर सरकार है या एक कमजोर सरकार है? इस सवाल पर चर्चा की शुरुआत मणिपुर की मिसाल से की जा सकती है. 

अगर आप मोदी-भाजपा के समर्थक हैं तो आप यही कहेंगे कि इस सरकार ने मणिपुर मसले पर मजबूती से कार्रवाई की है. और इस सरकार के आलोचक इस मसले को इस सरकार की सबसे बड़ी नाकामी बताएंगे. लेकिन हम अगर यह कहें कि इस सवाल का जवाब इन दोनों विचारों से अलग है, तब आप क्या कहेंगे? और यहां यह घिसा-पिटा तर्क भी नहीं पेश किया जा रहा है कि इन दोनों विचारों में कुछ-न-कुछ सच्चाई तो है ही. यह इस कॉलम की शैली नहीं रही है. 

उपरोक्त सवाल का जवाब यह है कि मणिपुर मसला इस क्षेत्र को लेकर भाजपा की जापानी मार्शल आर्ट ‘जिउ-जित्सु’ मार्का राजनीति का इस्तेमाल करते हुए उत्तर-पूर्वी क्षेत्र का शासन चलाने की एक अनूठी मिसाल है. इस राजनीति में अगर उत्तर-पूर्वी राज्यों का शासन चलाने में पहचान की कोई छोटी सियासत एक चुनौती के रूप में सामने आती है तो हम उसका मुक़ाबला पहचान को लेकर एक बड़ी सियासत से करेंगे. इसलिए हमने ‘जिउ-जित्सु’ का उदाहरण दिया. इस युद्धकला में आप प्रतिद्वंद्वी की ताकत और शारीरिक रचना का ही इस्तेमाल करके उसे हराते हैं. भाजपा के मुताबिक वहां अभी काम जारी है. लेकिन जो काम हो रहा है उससे हालात सुधरे नहीं बल्कि और बिगड़े ही हैं फिर भी पार्टी यह काम जारी रखने पर आमादा है.  

उसके विचार से काँग्रेस ने उत्तर-पूर्व और खासकर जनजातीय राज्यों में पिछले दशकों में पहचान की सियासत करने में भारी भूल की. इस तरह की बातें मैं उत्तर-पूर्व में काम कर चुके आरएसएस के कई नेताओं (जो अब काफी वरिष्ठ हो चुके हैं) से ही नहीं बल्कि भाजपा के भी कुछ नेताओं या सरकार के कुछ लोगों से भी सुन चुका हूं, जो अब भी वहां की जा रही कार्रवाई से कम-से-कम दूर से भी जुड़ने को राजी हैं.

कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि काँग्रेस ने कभी आग का मुक़ाबला आग से नहीं किया. उसने जनजातीय समूहों और ईसाई प्रभावों को मजबूत होने दिया. अलगाववाद को कुचलने के लिए उसने केंद्रीय ताकत का इस्तेमाल तो किया मगर राजनीतिक रूप से उसने ‘स्थानीय’ तत्वों को छूट दी. और यह नीति भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में काँग्रेस की ‘दोषपूर्ण’ समझ का नतीजा थी.

वह हिंदू धर्म और व्यापक हिंदू बहुमत को इस राष्ट्रीय आकांक्षा की अभिव्यक्ति से काट कर रखने के प्रति इतने प्रतिबद्ध थी कि उसने कई गहरे जख्मों को और गहरा होने दिया और भारत को उसकी संकटग्रस्त उत्तर-पूर्वी सीमाएं सौंप दी.

हम इस तर्क को और सरल रूप में पेश करते हुए कह सकते हैं कि काँग्रेस ने अपने फायदे के लिए छोटी एवं स्थानीय पहचानों की सियासत की और उन्हें अपने वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करके ये समस्याएं हमारे लिए छोड़ दी. संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्रों में विविधता जो है वह काफी खूबसूरत और आकर्षक है लेकिन अगर उसे हम हिंदू नजरिए से देखेंगे तो वह राष्ट्रहित के लिए नुकसानदेह होगा. ऐसी गहरी समस्या को दूर करने में समय लगता है. इसलिए, इस बीच कुछ झटकों के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

मणिपुर के संकट को भी ऐसी ही एक समस्या में गिनिए, लेकिन यह भी देखिए कि हम वहां कर क्या रहे हैं. छोटी पहचान (कुकी-ईसाई-म्यांमारी) को बड़ी पहचान (मैतेई-हिंदू-भारतीय) से लड़ा रहे हैं. और हर किसी को पता है कि केंद्र किसके पक्ष में है. आप पहचान की सियासत करना चाहते हैं तो मेरे मेहमान बन जाइए. लेकिन तब बेशक आप कुछ समस्याओं में उलझ जाते हैं.

सबसे ताजा समस्या तो आपके अपने मुख्यमंत्री हैं, जो एक हिंदू हैं और भाजपाई खेमों में उनके बारे में कानाफूसियों में यही कहा जाता है कि ‘मैतेई लोगों के तो अब वे ही भगवान हैं’. वे राज्यपाल को ज्ञापन देकर मांग कर रहे हैं कि वहां केंद्रीय सुरक्षा बलों की कमान उन्हें सौंपी जाए, जबकि उनके दामाद इन बलों को वापस बुलाने की मांग कर चुके हैं. मुझे तो ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला कि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के किसी मुख्यमंत्री ने उसी केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपाल से यह मांग की हो कि केंद्रीय बलों की कमान उसे सौंपी जाए; और दूसरी ओर, परोक्ष रूप से उन बलों को वापस बुलाने की भी मांग की हो.

उनकी मंशा को समझिए. वे कह रहे हैं कि अगर आप यह चाहते हैं कि हम मैतेई हिंदुओं और कूकियों की लड़ाई लड़ें तो यह हमारे भरोसे छोड़ दीजिए; हमारे पास हथियार हैं, लोग हैं और पूरी तैयारी है, केवल केंद्रीय बलों को हमारे रास्ते से हटा लीजिए. यहां पर हमारा यह सवाल फिर उभरता है : यह एक ताकतवर सरकार है या एक कमजोर सरकार है?  

यह खुद को तब जरूर ताकतवर महसूस करती होगी जब उसके दायरे में यह मांग मजबूती से उठ रही है कि वह संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करके पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को बरखास्त करे क्योंकि उसके खिलाफ वहां लोग गुस्से में लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं, भले ही वे प्रदर्शन पूरी तरह शांतिपूर्ण रहे हैं. वहां के राज्यपाल कैमरे के सामने आकर पढ़ाया हुआ पाठ दोहरा रहे हैं और संविधान की शान को बहाल करने के लिए बागडोर अपने हाथों में लेने को तैयार हैं.

इसके बरअक्स, पश्चिम बंगाल की आबादी के 5 प्रतिशत के बराबर आबादी वाले एक राज्य के उसके ही मुख्यमंत्री अपने राज्यपाल से मांग कर रहे हैं कि केंद्रीय बलों की कमान मुझे सौंपिए या उन्हें वापस बुलाइए.   

मणिपुर के मामले में भाजपा का सियासी नजरिया यह है कि यह राज्य हथियारबंद विदेशी (म्यांमारी) घुसपैठी ईसाई कुकी जनजातीय समूहों के हमलों का शिकार है, और उसकी सरकार वहां के मुख्यतः कमजोर हिंदू मैतेई बहुसंख्यकों की सुरक्षा का शानदार काम कर रही है. भले ही उनकी आबादी कूकियों की आबादी से तीन गुना बड़ी क्यों न हो. इस मजबूत लड़ाई को रोकने के लिए आप अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं करते. 

अगर आप सरकार के आलोचक हैं तो आप इसे उसकी पूरी नाकामी बताएंगे. वह राज्य हथियारबंद अराजकता की चपेट में फंस गया है. माना कि तकनीक के लिहाज से यह एक अलग दौर है, लेकिन कश्मीर, पंजाब, या पूर्ण बगावत की आग में फंसे नगालैंड और मिजोरम या पूर्वी-मध्य भारत के माओवादग्रस्त इलाकों में भी हमने कभी 10 किमी तक मार करने वाले रॉकेटों और बमबारी करने वाले ड्रोनों का इस्तेमाल नहीं देखा था.

इन सबके जवाब में आपको यह सुनने को मिल सकता है कि जरा यह देखिए कि सीमा के उस पार क्या हो रहा है. खतरा वहीं से आ रहा है, देखिए कि म्यांमार किस तरह से टूट चुका है. लेकिन म्यांमार तो हमेशा से ऐसा रहा है, खासकर उसका वह विशाल उत्तरी वन क्षेत्र, जो भारत की सीमा से सटा हुआ है. आज म्यांमार की सेना अपनी पकड़ नाटकीय गति से खोती जा रही है. कोई भी कह सकता है कि भारत हालात काबू में करने के लिए अपनी सेना सीमा पार भेजे. लेकिन हमें अपनी सीमा के अंदर कई काम करने बाकी हैं. 

उत्तर-पूर्व के मामले में भाजपा का रुख हिंदूवादी पहचान की राजनीति और राष्ट्रवादी विचारधारा से तय होता रहा है और वह कभी स्वीकार नहीं करेगी कि उसकी नीति कारगर नहीं रही है. लेकिन इस नीति ने कुछ नये शोलों को भड़काया है, पुराने जख्मों (मणिपुर) को कुरेदा है और दूसरे जख्मों को गहरा होने दिया है. 

मोदी की पहली सरकार ने नगा बागियों के साथ अंतिम सुलह करने के लिए ‘एनएससीएन’ के साथ समझौते की ‘रूपरेखा’ पर दस्तखत करके उत्तर-पूर्व में एक नाटकीय शुरुआत की थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने निवास पर हुए एक आयोजन में नगा नेताओं की मौजूदगी में इसे एक ऐतिहासिक घटना कहा था. उनकी सरकार के दस साल पूरे हो चुके हैं लेकिन इस दिशा में आगे कोई कदम नहीं बढ़ाया गया है. केंद्र की ओर से पहले वार्ताकार, खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक आर.एन. रवि आज प्रोन्नति पाकर चेन्नैई में राज्यपाल बने बैठे हैं, जबकि ‘एनएससीएन’ 2020 में ही उन पर आरोप लगा चुका है कि उन्होंने समझौते की ‘रूपरेखा’ के साथ ‘छेड़छाड़’ की है.

उनके उत्तराधिकारी ए.के. मिश्र (वे भी खुफिया ब्यूरो के निदेशक रह चुके हैं) निष्क्रिय हैं, और इसी बृहस्पतिवार को नगालैंड सरकार की एक बड़ी बैठक में, जिसमें सिविल सोसाइटी के साथ-साथ जनजातीय एवं ईसाई नेता भी शामिल थे, उन्होंने मांग की कि वार्ता अब मंत्रिस्तर की और राजनीतिक स्तर की होनी चाहिए. ‘एनएससीएन’ ने भी हां में हां मिलाते हुए कहा कि इसमें ‘देरी हुई तो लाभ से ज्यादा नुकसान ही होगा’. 

नगालैंड ने नौ साल में अगर शून्य प्रगति की है और उसके कदम पीछे की ओर ही सरके हैं, तो मुख्यतः एनआरसी/सीएए के विरोध में नयी चिनगारियां अप्रत्याशित जगहों से फूट रही हैं. ख़ासी छात्र संघ ने बहिरागतों के खिलाफ आंदोलन तेज किया है. पिछले महीने मेघालय विधानसभा ने प्रवासी कामगारों से संबंधित ‘प्रवासी कामगारों के लिए मेघालय पहचान, पंजीकरण (हिफाजत व सुरक्षा) संशोधन विधेयक, 2024’ पास किया. अब इंस्पेक्टरों को ‘बाहर’ से आए कामगारों की पहचान, पंजीकरण और निशानदेही के लिए ज्यादा अधिकार हासिल हो जाएंगे. 

1986 में हुए शांति समझौते के बाद से शांत रहे मिजोरम (जिसे भारत के सबसे शांतिपूर्ण और कानून का पालन करने वाले क्षेत्रों में गिना जाता है) में भी पहचान को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं, और इन्हें सीमा पार से भी जोड़ा जा रहा है. मुख्यमंत्री ललदुहोमा ने ‘ज़ो’ (मिजोरम की जनजातियों के लिए एक व्यापक नाम) के पक्ष में आवाज़ उठाकर ‘ग्रेटर मिजोरम’ की मांग को जिंदा किया है. असम में भाजपा जबकि एक पहचान (बंगाली मुसलमान) का मुक़ाबला दूसरी पहचान (हिंदू) से कराने में जुटी है, वहां हाल में ही खूनी संघर्ष हुए हैं. 

2014 के बाद से भाजपा ने इस क्षेत्र के मामले में केंद्र के रुख में वैचारिक तथा दार्शनिक किस्म का परिवर्तन किया है. लेकिन उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए इसके परिणाम अब तक बुरे ही साबित हुए हैं. मणिपुर इसकी जलती हुई मिसाल है. लेकिन भाजपा के लिए यह उसकी ओर से जारी काम का हिस्सा है. उसके लिए यह एक वैचारिक, दार्शनिक, और बेशक राजनीतिक काम है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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