सभी समुदाय अपने स्वयंसेवी संगठनों का समर्थन करते हैं, जो गरीबों के उत्थान, उनकी फिलॉसफी और सामाजिक कार्य करने के लिए काम करते हैं. ईसाइयों के पास अपने मिशनरी हैं, वह अविकसित देशों में धर्मार्थ संस्थाएं चलाते हैं, ज़रूरतमंदों के लिए काम करते हैं और ईसाई तरीके से शिक्षा का प्रसार करते हैं. सिख सेवा करते हैं और गुरुद्वारों से चलने वाले लंगरों के ज़रिए भूखों को खाना खिलाते हैं. मुसलमान मदरसों के ज़रिए बच्चों को मुफ्त इस्लामी शिक्षा देते हैं. हिंदू धर्म, उपरोक्त सभी धर्मों और समाज की सेवा की गतिविधियों में लगे व्यक्तियों से पहले से ही मौजूद होने के बावजूद, इस तरह के सहयोग और समन्वय के लिए समान मंच नहीं था, जब तक कि 1925 में नागपुर में एक महाराष्ट्रीयन डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शुरुआत नहीं की गई.
स्वयंसेवक का मतलब निस्वार्थ कार्यकर्ता होता है और आरएसएस के पीछे का विचार हिंदू तरीके से समाज की निस्वार्थ सेवा करना था. संस्थापक ने “हिंदू समाज की नींव को मजबूत करने और इसे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक और राजनीतिक स्तरों पर चुनौतियों के लिए तैयार करने की ज़रूरत का अनुमान लगाया”. आरएसएस अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है, तो आइए इस संगठन के पीछे छिपी फिलॉसफी को समझें. पक्षपाती व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे दुर्भावनापूर्ण अभियानों से उत्पन्न चुनौतियों के बावजूद इसने वर्षों से अपनी प्रासंगिकता कैसे बनाए रखी है.
राष्ट्रवाद की नींव
आरएसएस की स्थापना राष्ट्रवादी आंदोलन को एक मजबूत सांस्कृतिक आधार देने के लिए की गई थी. हमारी सदियों पुरानी प्राचीन सभ्यताएं, जो धर्म, अहिंसा और भक्ति के सिद्धांतों पर आधारित थीं, उपनिवेशवाद के शोर में अपनी आवाज़ खो रही थीं. स्वतंत्रता-पूर्व भारत में मुसलमान, देश के बाकी हिस्सों के समान वंश और डीएनए और जातीयता होने के बावजूद, आश्वस्त थे कि खिलाफत आंदोलन नामक एक समर्थक-खिलाफत आंदोलन उनके हितों का सबसे अच्छा प्रतिनिधित्व करता है. यह ब्रिटिश साम्राज्यवादी दर्शन के विभाजन और शासन के अनुकूल था.
आरएसएस ने एक राष्ट्रवादी आंदोलन के तत्वावधान में भारत के लोगों को एक सांस्कृतिक छत्र के नीचे एकजुट करने का प्रयास किया और यह उन अभिजात्य लोगों को बहुत पसंद नहीं आया, जिन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान को त्याग कर अपनी विदेशी शिक्षा और पश्चिमी मूल्यों के संपर्क में पश्चिम की नकल करने के पक्ष में थे. अपनी समृद्ध विरासत से मुंह मोड़ते हुए उन्हें यकीन दिलाया गया कि भारतीय मूल्य आदिम और पिछड़े हैं और देश को केवल हिंदू जीवन शैली की निंदा करके ही बचाया जा सकता है. दरअसल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के नेता इतने भयभीत थे कि उन्होंने अपने सदस्यों को RSS कैडर में शामिल होने से रोक दिया. अपनी राष्ट्रीय पहचान पर गर्व करना RSS की आधारशिला थी.
सांस्कृतिक संबंध
हिंदू राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर ने तर्क दिया कि सांस्कृतिक रूप से, इस गौरवशाली प्राचीन धरती के सभी निवासी एक ही सांस्कृतिक पहचान और वंश के हैं. उन्होंने ‘हिंदुत्व’ की विचारधारा को बढ़ावा दिया, जिसका अर्थ है हिंद (सिंधु नदी के पार की ज़मीन) के लोग. इस विचारधारा का उद्देश्य जाति, पंथ, रंग या धर्म के आधार पर भेदभाव किए बिना, सांस्कृतिक रूप से जुड़े इन सभी लोगों को एकजुट करना था. हिंदुत्व में न केवल हिंदू धर्म के अनुयायी शामिल थे, बल्कि नास्तिक, जैन, बौद्ध, दलित, सिख, आदिवासी, प्रकृति पूजक और इस्लाम और ईसाई धर्म के अनुयायी भी शामिल थे.
अनुशासन और विकास
आरएसएस की नींव वैदिक परंपराओं से प्रेरित अनुशासन और समर्पण में निहित है. 1925 में नागपुर में पहली शाखा स्थापित होने के बाद पूरे देश में शाखाएं बनाई गईं. उन्होंने युवाओं को एक ‘असेंबली’ प्रकार की सभा में इकट्ठा करके अनुशासन को बढ़ावा दिया, जहां वह स्वदेशी खेलों में शामिल हुए, सूर्य नमस्कार के माध्यम से योग किया, प्रवचन (विद्वान लोगों द्वारा सकारात्मक प्रवचन) सुने और फिर राष्ट्रगीत या स्वयंसेवक गान गाया, जो सभी स्कूलों या शैक्षणिक संस्थानों में आयोजित ‘सुबह की सभा’ की प्रणाली के समान था.
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर भी चर्चा होती थी, जिससे ‘स्वयंसेवकों’ को समसामयिक मामलों और राजनीति से परिचित होने का अवसर मिलता था. बैठकें भारत माता की जय या मातृभूमि की जय के एक गूंजते गैर-सांप्रदायिक नारे के साथ समाप्त होती थीं, जो धरती माता के साथ सदियों से चली आ रही पारंपरिक संगति की कहानी है. मेरे दादा एक प्रचारक थे — एक वरिष्ठ नेता जो शाखा लगाते थे. मैं उन्हें आरएसएस की पोशाक, खाकी शॉर्ट्स और सफेद बनियान पहनते और सुबह-सुबह शाखा में भाग लेने के लिए निकलते देखती थी, वे दिनभर की थकान से पहले ऊर्जावान और उत्साहित होकर लौटते थे.
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एकजुट होकर हम खड़े हैं, विभाजित होकर हम गिरेंगे
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पश्चिमीकृत अभिजात्य नेता अंग्रेज़ों के साथ घुलने-मिलने और अपने स्वयं के इतिहास का तिरस्कार करने में व्यस्त थे. पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों के साथ ‘मित्रता’ काफी चर्चा का विषय रही है.
यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि वह सत्ताधारियों के साथ अपने ‘संबंधों’ का लाभ उठाकर अपनी बीमार पत्नी को स्विस सैनिटोरियम में भर्ती कराने में सफल रहे और अपनी सजा पूरी होने से करीब एक साल पहले ही जेल से रिहा हो गए ताकि वह अपनी पत्नी के साथ उनके इलाज के लिए जा सकें. सावरकर और हेडगेवार, दोनों स्वतंत्रता सेनानी, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नेहरू से भी बदतर परिस्थितियों में जेल में बंद थे. फिर भी सावरकर की काला पानी में कैद को नज़रअंदाज़ कर दिया गया, क्योंकि यह ‘राष्ट्र-विरोधी’ आरएसएस के कांग्रेसी नैरेटिव को पूरा नहीं करता था.
नेहरू की सत्ता की भूख और कुर्सी पर बने रहने की चाह मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों के लिए अलग मातृभूमि की मांग का संकेत है. शीर्ष पर जिन्ना के लिए जगह बनाने के बजाय, यह नेहरू के कार्य और जिन्ना की महत्वाकांक्षा थी जिसने अंग्रेज़ों की फूट डालो और राज करो की नीतियों को बढ़ावा दिया और अंततः भारत के एक बहुत ही खूनी विभाजन का कारण बना. पश्चिमी मीडिया ने आरएसएस विरोधी बयानबाजी को बढ़ावा दिया, उन्हें गाय की पूजा करने वाले, धूप सेंकने वाले विधर्मियों के रूप में चित्रित किया, वही विचारधाराएं अब पश्चिम में आवाज़ उठा रही हैं. स्वतंत्र भारत के इतिहास में आरएसएस को बहुत अधिक राष्ट्रवादी होने के लिए दंडित किया गया. नवजात संगठन होने और इसके सदस्यों में मुख्य रूप से मध्यम वर्ग के हिंदू शामिल होने के कारण, आरएसएस के पास कभी भी अपने खिलाफ स्थापित किए गए नैरेटिव का मुकाबला करने के लिए वित्तीय साधन नहीं थे.
इतिहास की नींव
आरएसएस की स्थापना इस प्राचीन धरती के इतिहास और भौगोलिक सीमाओं के आधार पर एक सांस्कृतिक ध्वज के तहत राष्ट्र और भारत के लोगों को एकजुट करने के लिए की गई थी. इसका उद्देश्य देशभक्ति को बढ़ावा देना और अपनी परंपराओं में खुद को स्थापित करते हुए अपनी चिरकालिक मान्यताओं पर गर्व की गहरी भावना को बढ़ावा देना था. आरएसएस की स्थापना के सौ बरस बाद, हेडगेवार की बात सही साबित हुई है क्योंकि आज दुनिया हिंदू धर्म के सिद्धांतों को एक मूल्यवान संसाधन के रूप में स्वीकार करती है और पश्चिम के लोग भारत के दर्शन को अपना रहे हैं.
योग हमारा सबसे बड़ा निर्यात है और लैटिन अमेरिका, कनाडा, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के दूर-दराज के कोनों में योग दिवस मनाया जाना उत्साहजनक है. हिंदू दिव्य मंत्र ‘ऊँ’ का आदिम ध्वनि के रूप में उच्चारण दुनिया भर में गूंज रहा है. मेडिकल स्टडीज़ बताती हैं कि श्रव्य ‘ऊँ’ के जाप के दौरान कंपन की अनुभूति होती है. इसमें कर्ण शाखाओं के माध्यम से वेगस तंत्रिका उत्तेजना और उसके मस्तिष्क पर प्रभाव की क्षमता है. ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए शाकाहार एक लोकप्रिय विकल्प बनता जा रहा है और जलवायु परिवर्तन पर मीथेन के प्रभाव को कम किया जा रहा है.
2024 की विश्व वन्यजीव फंड रिपोर्ट में भारत के खाद्य उपभोग पैटर्न को सबसे अधिक टिकाऊ घोषित किया गया है और यह सुझाव दिया गया है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया को भारत की खान-पान की आदतों को अपनाना चाहिए. आज, जब दुनिया भारतीय जीवन शैली को अपना रही है, तो हम आरएसएस के आभारी हैं कि उसने विश्व मंच पर हमारी पीढ़ियों को जोड़ने वाली परंपराओं को उजागर किया है.
आधुनिक समय के मूल्य
जैसा कि हम देखते हैं कि आधुनिक समय के मूल्य हमारे समाज को किस तरह से प्रभावित कर रहे हैं, आरएसएस की विचारधाराएं और भी अधिक मूल्यवान हैं. हमारे समाज का ताना-बाना नशीली दवाओं, प्रदर्शनवाद, ताक-झांक, पोर्न — सभी सामाजिक बीमारियों से छिन्न-भिन्न हो रहा है, जो पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही हैं. आरएसएस के अनुशासन को अपनाना और भी ज़रूरी हो गया है. शाखाओं में भारतीय मूल्यों को शामिल किया जाता है और युवाओं को भारतीय संस्कृति से परिचित कराया जाता है.
संघ कई अलग-अलग सामाजिक गतिविधियों में लगा हुआ है और इसके लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द प्रकल्प है. आरएसएस आज एक लाख से ज़्यादा प्रकल्प चलाता है. इन प्रकल्पों के तहत स्वच्छता से लेकर जलवायु परिवर्तन, शिक्षा से लेकर सशक्तिकरण और स्वास्थ्य से लेकर पानी तक के काम किए जा सकते हैं. ये सभी प्रकल्प स्वैच्छिक सेवाएं हैं और ऐसी गतिविधियों को समर्थन देने के लिए समुदाय की मज़बूत स्वयंसेवी भावना है.
इन सभी प्रकल्पों या सेवा गतिविधियों में महिलाओं की मौजूदगी के अलावा आरएसएस की एक बहुत मज़बूत महिला शाखा भी है. राष्ट्र सेविका समिति के अंतर्गत महिलाओं को अलग से संगठित किया गया है, जिसका अपना कार्य क्षेत्र है, परिवार प्रबोधन से लेकर मेधावी सिंधु सृजन तक. जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां स्वयंसेवक या सेविकाएं मौजूद न हों और इसलिए यह कहना उचित ही है कि वह जीवन के सभी क्षेत्रों में सेवा और कार्य करके मां भारती की सेवा कर रहे हैं.
मैं संघ की प्रार्थना का उल्लेख करके अपनी बात समाप्त करना चाहूंगी, जो सभी स्वयंसेवकों की जन्मजात क्षमता और इच्छा का वर्णन करती है.
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ।।1।।
(मीनाक्षी लेखी भाजपा की नेत्री, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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