दिल्ली की पिछली सर्दी में एक बड़ा मशहूर नारा चला था- ‘हम कागज नहीं दिखाएंगे‘. यह नारा किसी मंचीय कवि के कविता से निकला और शाहीन बाग़ से होते हुए देखते ही देखते कांग्रेस और कॉमरेड खेमे को पसंद आने लगा. कोरोना ने असमय आकर ‘कागज़ नहीं दिखाएंगे’ से उभरे आंदोलन की तासीर पर तुषारापात कर दिया. यह ‘तुषारापात’ भी विलक्षण था. सर्दी बीतने के बाद भला चिलचिलाती गर्मी में कहीं तुषारापात होता है? लेकिन कांग्रेसी सलाहकार सैम पित्रोदा के मिजाज में कहें तो ‘हुआ सो हुआ’. अब कर क्या सकते हैं.
दरअसल ‘कागज़ नहीं दिखाएंगे’ एक मनोविकृति को बढ़ावा देने वाला नारा था. कोरोना काल ने उस मनोविकृति के दुष्परिणामों से हमें आगाह किया है. दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून तथा नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) को लेकर देश का राजनीतिक तापमान उफान पर था. कांग्रेस सहित तमाम विरोधी दल एनपीआर का विरोध कर रहे थे. सरकार द्वारा बार-बार स्पष्ट करने के बावजूद कुछ भी सुनने को विरोधी दल तैयार नहीं थे.
गृह मंत्री अमित शाह ने 25 दिसंबर को एएनआई को दिए साक्षात्कार में एनपीआर पर बोलते हुए कहा, ‘एनपीआर की जरूरत इसलिए है कि हर 10 साल में अंतरराज्यीय स्तर पर जनगणना में जबर्दस्त उथल-पुथल होती है. एक राज्य के लोग दूसरे राज्य में जाकर बस जाते हैं. जो लोग दूसरे राज्य में बसे हैं, उनकी जरूरतों के मुताबिक योजनाओं का आधार एनपीआर होगा.’
अमित शाह की कही बात को सही और जरूरी साबित होने में अधिक समय नहीं लगा. कोरोना की परिस्थिति ने शाह के तर्कों को खरा साबित किया है. चूंकि वर्तमान परिवेश में जनसांख्यिकी के समीकरण बदल रहे हैं. दस वर्षों में जनसंख्या में ‘अंतरराज्यीय उथल-पुथल’ की स्थिति को बड़े पैमाने पर देखा जा रहा है.
एक अनुमान के मुताबिक 2001 में लगभग 30 करोड़ श्रमिक एक राज्य से दूसरे राज्य में गए थे. 2011 की जनगणना में यह संख्या 45 करोड़ आंकी गयी है. ये आंकड़े बड़े पैमाने पर जनसांख्यिकी ‘उथल-पुथल’ की तरफ इशारा करने वाले हैं.
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साठ-सत्तर के दशक में जो श्रमिक पूरब के राज्यों का रूख करते थे, उनका रुझान नब्बे के दशक के बाद पश्चिम के राज्यों की तरफ हुआ तथा दिल्ली, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्य श्रमिकों के लिए रोजगार के बड़े ठौर बनते गये. कोरोना की विकट स्थिति में श्रमिकों की अपने गांव वापसी की कठिनाइयों ने इस ‘जनसांख्यिकी उथल-पुथल’ की चुनौती को नए ढंग से समझने की जरूरत को महसूस कराया है.
एकतरफ कोरोना की त्रासदी तथा दूसरी तरफ प्राकृतिक आपदा के रूप में पैदा होती साइक्लोन जैसी स्थितियों ने भी हमें नए सिरे से सोचने पर मजबूर किया है. कोरोना काल ने जनसंख्या की वास्तविक भौगोलिक स्थिति की सटीक और केंद्रीकृत जानकारी नहीं होने से उपजी खामियों को उजागर किया है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सही जनसांख्यिकी स्थिति को जाने बिना आकस्मिक विपदाओं से निपटना संभव हो पायेगा? शायद नहीं हो पायेगा. इतनी बड़ी संख्या में जब लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में जा रहे हैं तो इसका सटीक ब्यौरा होना चाहिए. सामान्य परिस्थितियों में प्रवासी श्रमिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, जैसी सुविधाओं के लिए संरचना तैयार करने हेतु उनकी सही स्थिति की जानकारी जरूरी है. वहीं आकस्मिक आपदाओं तथा महामारी की स्थिति से निपटने के लिए भी इस आंकड़े का केंद्रीकृत ढांचा होना अत्यंत आवश्यक है.
गंभीर सवाल है कि जन-जीवन की सुविधा और सुरक्षा से जुड़ी इस जरूरत पर विरोध के बिंदु क्यों उभरते हैं? दरअसल लोकनीति के विषयों में दलीय हित की राजनीति जब अपना हस्तक्षेप करने लगती है तो अतार्किक विरोध के ऐसे बिंदु उभरने की संभावना अधिक होती है.
कांग्रेस का नीतिगत विरोध एनपीआर से होता तो 2011 में वो इसे नहीं लाती. लेकिन उसका एनपीआर से कोई नीतिगत विरोध नहीं है. उसका विरोध इस बिंदु पर है कि उसे मोदी सरकार का विरोध करना है इसलिए एनपीआर का विरोध करती है. उसकी इस राजनीति में कम्युनिस्ट भी साझेदार हैं. देश की राजनीति में यह भी एक विरोधाभाषी चरित्र उभर कर आया है. एनपीआर में तो सरकार ने सिर्फ जानकारी मांगी थी, कागज़ भी नहीं मांगे, किंतु ‘कागज़ नहीं दिखाएंगे’ की जिद ने महीनों तक राजनीतिक हंगामे को हवा दिया.
लोकनीति के मसलों पर राजनीतिक विरोध अब ‘आरोग्य सेतु एप’ के विरोध तक आ पहुंचा है. ‘कागज़ नहीं दिखाएंगे’ का झंडा उठाने वाले ही आरोग्य सेतु एप को लेकर ‘निजता पर खतरा’ जैसे सवाल खड़े कर रहे हैं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तो इसे सीधे-सीधे ‘सर्विलांस सिस्टम’ तक बता दिया. तकनीक के इस दौर में फेसबुक, ट्विटर, मेलिंग साइट्स सहित अनेक काम जरूरी वेबसाइट भी अपने उपभोक्ताओं से संपर्क संबंधी निजी जानकारियां मांगती हैं. लोग स्वेच्छा से देते भी हैं. क्या वे सभी वेबसाईट ‘सर्विलांस’ कर रही हैं?
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कांग्रेस की खुद की वेबसाइट भी सदस्यता के लिए नाम, मोबाइल नंबर, ई-मेल आईडी, मतदाता पहचान पत्र तथा फोटो की मांग करती है. तमाम टैक्सी सेवा प्रदाता कंपनियां हमारे गूगल मैप लोकेशन के आधार पर ही काम करती हैं. क्या उसको संदिग्ध नजर से देखना चाहिए? ई-बैंकिंग से जुड़े एप आधार और पैन की जानकारी मांगते हैं तो क्या इस आधार पर ई-बैंकिग को नकार दिया जाए? जिस जनधन-मोबाइल-आधार का कांग्रेस सहित अनेक दलों ने निजता का हवाला देकर विरोध किया, वह महामारी के इस दौर में डीबीटी के रूप में गरीबों के लिए रामबाण बना है.
दरअसल समस्या का समाधान खोजने की आदत की बजाय समाधान में से समस्या खोजने का अभ्यास राजनीति में एक बुरे चलन की तरह प्रवेश कर चुका है. देश के सभी राजनीतिक दलों को इस मनोविकृति से निकलने की जरूरत है. वर्तमान की चुनौतियों के अनुसार कानूनी, संवैधानिक तथा तकनीकी प्रणालियों पर सवाल खड़े करके हम देश को आगे ले जाने की मंशा में कामयाब नहीं हो सकते हैं. बदलते परिवेश और भविष्य की चुनौतियों के लिहाज से जनसांख्यिकी के नए तौर-तरीकों के प्रति प्रगतिशील दृष्टि रखना होगा.
‘कागज़ नहीं दिखाएंगे’ किसी कवि की तुकबंदी में तो तालियां बटोर सकता है किंतु उसका वास्तविकता के धरातल पर अर्थ खोजने की भूल हमें अंधकार के गर्त में धकेलने का काम करेगी. यह देश हमारा है, लोकतंत्र आपसे है, सरकार हमसे है….लिहाजा जरूरत पड़ने पर देश व नागरिक हित में ‘कागज़’ दिखाने से परहेज नहीं करना चाहिए. भविष्य की चुनौतियों के लिए यह जरूरी है कि हम भरोसेमंद नागरिक व विश्वसनीय सरकार वाले देश बनें.
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो हैं और ब्लूम्सबरी से प्रकाशित गृहमंत्री अमित शाह की राजनीतिक जीवनी ‘अमित शाह एंड द मार्च ऑफ़ बीजेपी के लेखक हैं. यह उनके निजी विचार हैं)