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Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतपरिसीमन दिखाता है कि कश्मीर चुनौती के सामने भारतीय लोकतंत्र कैसे संघर्ष कर रहा है

परिसीमन दिखाता है कि कश्मीर चुनौती के सामने भारतीय लोकतंत्र कैसे संघर्ष कर रहा है

केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के लिए परिसीमन आयोग ने जिस तरह से चुनावी क्षेत्रों की मैपिंग की है, उसने डोगरा शासनकाल के सांप्रदायिक घावों को फिर से हरा कर दिया है.

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लंबे बालों वाली बकरियां, छह नर और छह मादा, तीन जोड़ी शॉल और एक घोड़ा हर साल उपहार स्वरूप प्रदान किया जाता, इसके साथ ही पचहत्तर लाख नानकशाही रुपए पहले ही पेश किए जा चुके थे—इसके एवज में ही 1846 में शाही ब्रिटिश शासन ने महाराजा गुलाब सिंह को कश्मीर का अधिकार दिया था. नए शासक ने अमरनाथ और हरिद्वार तीर्थयात्रा की, रघुनाथ मंदिर का निर्माण शुरू कराया और दशहरा और दिवाली पर बलि की प्रथा बंद करा दी. उन्होंने ऐशमुक्कम स्थित दरगाह को चावल और तेल की मदद देना बंद कर दिया, उनके शासनकाल में श्रीनगर की जामिया मस्जिद खंडहर में तब्दील हो गई.

जैसा कि शायर मुहम्मद अमृतसर ने संधि के बारे में लिखा है, ‘उन्होंने किसान और मक्के के खेत बेचे, नदी और बगीचे बेच डाले. उन्होंने लोगों को बेचा और बहुत सस्ते दामों पर बेच डाला.’

गुलाब सिंह और उनके उत्तराधिकारी शासकों ने पूरे भारत के सामंती शासकों की तरह ही जबरन मजदूरी और टैक्स थोपकर किसानों को बेरहमी से लूटा. हालांकि, एक बड़ा अंतर यह था कि कश्मीर के शासक हिंदू थे और प्रजा मुस्लिम.


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चुनाव और सांप्रदायिक असमानता

केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में परिसीमन आयोग की तरफ से की गई चुनावी क्षेत्रों की मैपिंग ने करीब एक सदी चले डोगरा शासनकाल के सांप्रदायिक घावों को फिर से हरा कर दिया है. कश्मीरी राजनेताओं ने प्रतिनिधित्व को लेकर असमानता की ओर ध्यान खींचा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, मुस्लिम बहुल प्रांत की 68.88 लाख आबादी का प्रतिनिधित्व 47 विधायक करेंगे, जबकि जम्मू क्षेत्र के 53.78 लाख लोगों के प्रतिनिधित्व 43 लोग करेंगे.

हालांकि, जम्मू 34.1 प्रतिशत आबादी मुस्लिम हैं लेकिन इस क्षेत्र की मुस्लिम बहुल सीटें 13 से घटकर 10 हो गई हैं. कश्मीर में पूर्व की तुलना में एक सीट बढ़ाई गई है. वहीं, जम्मू में छह सीटें बढ़ी हैं. कश्मीर के तमाम लोगों की राय में, यह इस बात का सबूत है कि भारतीय जनता पार्टी हिंदू-बहुसंख्यक शासन स्थापित करने के प्रयास में लोकतंत्र को कमजोर कर रही है.

हो सकता है कि ऐसी आशंकाओं को अनावश्यक तूल दिया जा रहा हो लेकिन जो सामने है वो बेचैन करने वाला ही है. आयोग ने सार्वजनिक तौर पर यह नहीं बताया है कि वह अपने इस निर्णय पर कैसे पहुंचा. हालांकि, सार्वजनिक बयानों में दावा किया गया है कि कम आबादी वाले दूरवर्ती क्षेत्र, अविकसित क्षेत्रों के आधार पर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया है. यह कोई नया सिद्धांत नहीं है. करनाह 87,627 लोगों की आबादी के साथ लंबे समय तक विधानसभा क्षेत्र रहा है. वहीं, सिर्फ 37,992 लोगों के साथ गुरेज भी एक निर्वाचन क्षेत्र था.

बहरहाल, ऐसा लगता है कि व्यापक स्तर पर हिंदू-बहुल क्षेत्रों को आयोग के फैसले का ज्यादा फायदा मिला है. उदाहरण के तौर पर, 51,279 की आबादी वाला हिंदू-बहुल पाडेर एक नया विधानसभा क्षेत्र बन गया है. हालांकि, यह भी वैसा ही दुर्गम इलाका है जैसा कि मुस्लिम-बहुल सुरनकोट, जिस एक निर्वाचन क्षेत्र की आबादी 188,154 है.

अच्छी-खासी मुस्लिम आबादी वाले पुंछ को तो सीमावर्ती जिले के नाते नियंत्रण रेखा पर कमजोर क्षेत्रों की रक्षा के आयोग के मानदंडों का लाभ मिलना चाहिए था लेकिन उसे कोई अतिरिक्त निर्वाचन क्षेत्र नहीं मिला. करीब 146,859 आबादी वाले, जिसमें 70 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम हैं, रामबन क्षेत्र को भी एक भी अतिरिक्त सीट नहीं मिली है.

किश्तवाड़ जिले में परिसीमन के बाद दो मुस्लिम-बहुल विधानसभा सीटों की जगह इनकी संख्या तीन हो गई है लेकिन इनमें दो हिंदू-बहुल हो गई हैं. इसी से सटे डोडा जिले में भी अब तीन सीटें हो गई हैं और इसमे दो हिंदू-बहुल हैं. जहां पहले यहां दो मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्र थे.

प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में अब 18 विधानसभा सीटें हो गई हैं. अनंतनाग के मामले में आयोग के पास इसके राजौरी के साथ विलय की वजह हो सकती है क्योंकि ये क्षेत्र शोपियां से बुफलियाज तक करीब 100 किलोमीटर की सड़क के जरिए विभाजित होते हैं, जो 4,000 मीटर लंबी पर्वत श्रृंखला के बीच गुजरती है और साल में कई महीनों तक अन्य हिस्सों से कटे रहते हैं.

संभव है, आयोग के पास दुर्गम क्षेत्रीय विषमताओं के आधार पर मूल्यांकन का कोई फॉर्मूला हो लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया है और यही खतरनाक तनाव को जन्म दे रहा है.


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कश्मीर में गहरी हैं सांप्रदायिक विभाजन की जड़ें

कश्मीर में सांप्रदायिक विभाजन की दरारों की गहराई को समझने के लिए हमें इतिहास को खंगालना होगा. इतिहासकार चित्रलेखा जुत्शी की नजर से देखें तो डोगरा शासन की पहचान उसके शासकों की आस्था से जुड़ी थी— ठीक उसी तरह जैसे ब्रिटिशकालीन भारत में हिंदू-बहुल आबादी वाली रियासतों की बागडोर इस्लामी शासकों के हाथों में थी. डोगरा शासन ने अपनी हिंदू पहचान बनाए रखने के लिए समर्पित ट्रस्ट और संस्थानों का एक विस्तृत नेटवर्क स्थापित किया था.

वैसे, कम से कम साधारण अर्थों में गुलाब सिंह को कट्टर नहीं कहा जा सकता. उपनिवेशकाल के एक खिलाड़ी और साहसी यात्री गॉडफ्रे विग्ने के संस्मरणों में यह जिक्र मिलता है कि जम्मू एक समय ‘पंजाब में एकमात्र ऐसा स्थान था जहां मुल्ला मुसलमानों को नमाज के लिए अजान दे सकते थे.’ यहां तक कि रणजीत सिंह— वो सिख सम्राट जिन्हें हटाने में गुलाब सिंह ने अंग्रेजों की मदद की थी— ने कश्मीर के भीतर कुछ हद तक धार्मिक स्वतंत्रता भी दे रखी थी, हजरतबल और मकदूम साहिब दरगाहों को संरक्षण भी दिया था.

हालांकि, शासन की भाषा स्पष्ट तौर पर हिंदुओं वाली थी और नौकरशाही और जमींदार वर्ग में भी इसी समुदाय का बोलबाला था. डोगरा राज्य ने जब हिंदू धर्म के संरक्षण के आधार पर अपनी वैधानिकता हासिल करने की कोशिश की तो, जैसा इतिहासकार मृदु राय का तर्क है, इसने अपनी मुस्लिम आबादी के विरोध को तेज कर दिया.

19वीं सदी के अंत तक व्यापक भूमि सुधारों ने ख्वाजा नक्शबंदी जैसे कुलीन मुसलमानों की भूमि भी छीन ली जो सदियों से उनके पास थी. उनकी जगह पंजाबी और डोगरा प्रशासकों ने ले ली.

1890 के दशक के उत्तरार्ध में स्पष्ट तौर पर संकेत मिलने लगे थे कि मुस्लिमों के विरोध के लिए धर्म का सहारा लिया जा रहा है. अरनिया में मुस्लिमों को अजान से वंचित कर दिया गया था. गोहत्या की अफवाहों पर दंगा भड़क उठा और जैसा कि एक आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज है कि ‘मानो कोई वायरलेस टेलीग्राफी काम कर रही हो’, यह देखते ही देखते पूरे कश्मीर में फैल गया.

शिया मुसलमानों ने भी अपनी पहचान आक्रामक तरीके से सामने लानी शुरू कर दी. 1922 में मातम मना रहे इस समुदाय के लोगों ने मांग की कि मुहर्रम को देखते हुए श्रीनगर के सिनेमाघर को बंद कर दिया जाए लेकिन महाराजा ने अनुरोध ठुकरा दिया.

1889-1894 तक कश्मीर में तैनात रहे एक ब्रिटिश-औपनिवेशिक अधिकारी वाल्टर लॉरेंस के मुताबिक, तथाकथित वहाबी प्रचारक सक्रिय हो गए थे, डोगरा शासन से संतुष्ट परंपरागत-इस्लामी नेताओं और अन्य विशिष्ट लोगों के अधिकार को चुनौती देने लगे थे.

हालांकि, पिछली शताब्दी के आरंभ तक सांप्रदायिक चेतना पूरी तरह सक्रिय नहीं हुई थी. धार्मिक-पुनरुद्धारवादी कवि मकबूल शाह क्रालवारी ने 1912 की अपनी कविता ग्रीजनामा में कश्मीर के किसानों का दर्द बयां किया, जिन्होंने लिखा कि उनकी ‘नजर में मस्जिद और मंदिर समान है, वो मटमैले पोखर और समुद्र के बीच कोई अंतर नहीं देखते.’


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राजनीति और सांप्रदायिकता

आजादी की राह पर बढ़ने के साथ जैसे-जैसे जन राजनीति की शुरुआत हुई, धार्मिक ध्रुवीकरण भी तेज हो गया. श्रीनगर के मीरवाइज रसूल शाह, जो मौजूदा मीरवाइज उमर फारूक के दादा थे, उन्होंने 1899 में मुस्लिमों की शिकायतें उठाने के एक मंच के तौर पर अंजुमन नुसरत-उल-इस्लाम की स्थापना की. सैयद हुसैन शाह बकटू के नेतृत्व में नव-कट्टरपंथी जमीयत अहल-ए-हदीस भी लगभग उसी समय उभरा.

उस समय तक नौकरशाही में अच्छी तरह जड़ें जमा चुके और अपेक्षाकृत संपन्न तबके में शुमार कश्मीरी पंडित भी जाने-अनजाने इस संघर्ष में कूद पड़े. 1923 में श्रीनगर के मल्लाह खान क्वार्टर में एक विवाद शुरू हो गया, जब दावा किया गया कि एक नए मंदिर के निर्माण से मुस्लिम कब्रगाह को नुकसान पहुंच रहा है.

सदी के शुरुआती दशकों में कश्मीर में सांप्रदायिकता ने जोर पकड़ लिया. 1931 में श्रीनगर में डोगरा सैनिकों के हाथों 28 प्रदर्शनकारियों की मौत के बाद हिंदू-स्वामित्व वाले व्यवसायों और घरों को निशाना बनाया गया. उसी सितंबर में और ज्यादा सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी और बड़ी संख्या में घातक हथियारों से लैस भीड़ इसका हिस्सा बनी.

भले ही कश्मीर में विभाजन वाली हिंसा ना देखी गई हो लेकिन हिंसा ने एक अपनी काली छाया जरूर छोड़ दी. स्वतंत्रता आंदोलन के नेता और प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला कहते थे, ‘कपूरथला, अलवर या भरतपुर में एक भी मुस्लिम नहीं बचा है.’ उनके मुताबिक, कश्मीरियों को डर है कि ‘आगे चलकर उनका भी यही हश्र होगा.’

एक भाषण में उन्होंने दावा किया था कि जनसंघ से जुड़ी प्रजा परिषद भारत को ‘एक धार्मिक राष्ट्र में बदलने की योजना का हिस्सा थी जिसमें मुसलमानों के हित खतरे में पड़ जाएंगे.’

1963-1964 के दौरान हजरतबल से एक मजहबी अवशेष की कथित चोरी को लेकर शुरू हुए भारत विरोधी प्रदर्शनों ने इन सांप्रदायिक दरारों को बुरी तरह उभार दिया, उसके दस साल बाद, औपनिवेशिककाल के विश्वकोश में छपी पैगंबर मुहम्मद की एक छवि को लेकर बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे.

कश्मीर के धार्मिक दक्षिणपंथियों ने इसी खाई को भुनाया है. जैसा स्कॉलर योगिंदर सिकंद ने लिखा है, जमात का मानना था कि ‘कश्मीरियों की इस्लामी पहचान को नष्ट करने के लिए भारत की एक सोची-समझी साजिश काम कर रही है.’ मार्च 1987 में श्रीनगर में एक रैली के दौरान सफेद चोंगा धारण किए जमात से जुड़े मुस्लिम संयुक्त मोर्चा के उम्मीदवारों ने कहा कि इस्लाम किसी धर्मनिरपेक्ष राज्य के शासन तले जिंदा नहीं रह सकता.

स्कॉलर नवनीता बेहरा चड्ढा के मुताबिक, इन्हीं सब चीजों ने पूरे समाज और क्षेत्र को ध्रुवीकरण की तरफ धकेल दिया, इसी वजह से सामाजिक स्तर पर दीर्घकालिक और वीभत्स विद्रोह की नींव पड़ी जो 1988 में भड़क उठा था और आक्रोश अभी थमा नहीं है. 2008 के बाद आतंकवाद के स्तर में भले ही कमी आई हो लेकिन कश्मीर धार्मिक पहचान के मुद्दों पर कई बार सामूहिक हिंसा का गवाह बना है.

1950 से 1987 तक नई दिल्ली ने कश्मीर में लोकतंत्र को ताक पर रखकर— असंतुष्ट नेताओं की गिरफ्तारी, राजनीतिक हेरफेर और चुनावों में धांधली— इन तनावों पर काबू पाने कोशिश की है. परिसीमन प्रक्रिया एक बार फिर दिखा रही है कि अपनी कश्मीर चुनौती के आगे भारत का लोकतंत्र किस तरह मात खा रहा है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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