जिस समस्या की वजह से देश की राजधानी में आग लगी हो, तब क्या उस समस्या के मूल कारणों पर विचार करना सही माना जा सकता है? खासकर तब, जबकि मारे गए लोगों की संख्या 40 के पार कर चुकी हो, जो कि देश के बंटवारे के बाद दिल्ली में अब तक हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों में मारे जाने वालों की सबसे बड़ी संख्या है? वह भी देश के सबसे सुरक्षित शहर में, गणतंत्र के सत्ता शिखर राष्ट्रपति भवन से मात्र आठ से दस किलोमीटर के दायरे में, जिसके आस-पास के देश और इसके आवाम की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार सैनिक व असैनिक सुरक्षा मशीनरी के विशालकाय दफ्तर नॉर्थ एवं साउथ ब्लॉक खड़े हों?
क्या इसके मूल कारणों पर विचार करना तब तक के लिए मुलतवी नहीं किया जा सकता, जब तक कि भावनाएं शांत न हो जाएं और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए जिम्मेदार सभी संस्थाओं, सरकार और न्यायपालिका को स्वतंत्र रूप से अपना तात्कालिक काम करने दिया जाए? बौद्धिक बहसों को आग के बुझने और जज़्बात के ठंडा होने तक टाला जा सकता है. किसी टकराव, जन आक्रोश, अलगाववाद या आतंकवाद पर बहस प्रायः इस सवाल पर आकर अटक जाती है कि उनके मूल कारण क्या हैं. बहस में शामिल पक्ष या विपक्ष प्रायः अटल और जिद्दी रुख अपना लेते हैं और गतिरोध पैदा हो जाता है. उदाहरण के लिए, सीमा पार के आतंकवाद के सवाल पर पाकिस्तान के रुख और उसके जवाब में भारत की प्रतिक्रिया को लिया जा सकता है.
वैसे, आज के दौर में असुविधाजनक सवाल उठाने के साथ खतरे भी जुड़े हैं. कोई मंत्री या सोशल मीडिया पर बातों को ‘दिशा’ देने वालों की फौज आपके ऊपर भड़काऊ बातें कहने से लेकर राष्ट्रद्रोह तक के आरोप लगा सकती है और जैसा कि आप देख ही रहे होंगे कि ऐसे में कोई अदालत आपको नोटिस भी जारी कर सकती है. यही वजह है कि टीवी चैनलों को सख्त चेतवानी दी गई कि वे प्रसारण की आचार संहिता का पालन करें. हालांकि, तब तक जो नुकसान होना था वह हो चुका था. अब हम इतने संयत और भयभीत हो गए हैं कि सरकार की इस बात के लिए आलोचना से भी परहेज कर रहे हैं कि वह अपनी पहुंच से मात्र छह किमी दूर रह रहे नागरिकों की रक्षा करने में विफल रही.
वैसे, हम इतने कायर भी नहीं हैं कि हम एक दूसरी संस्था से इस बात पर बहस करें कि वह भी उन नागरिकों की रक्षा करने में विफल रही और यह संस्था तो उन नागरिकों से महज 5 किमी की दूरी पर ही थी. ध्यान रहे कि यहां मामला मिलीभगत, अक्षमता या विचारधारा से जुड़ा नहीं है, जिनके नाम पर हम सरकारों को आड़े हाथों लेते रहे हैं. यह मामला उस संस्था द्वारा अपने विवेक का इस्तेमाल न करने, अपनी संस्थागत एवं नैतिक पूंजी को बरबाद करने का है, जो संस्था तब महत्वपूर्ण हो जाती है जब कोई सहारा नहीं रह जाता और सारा दारोमदार उसके ऊपर आ जाता है. देश की राजधानी को आगजनी और शर्म के हवाले किए जाने और देश भर में सुलगती इस आग के मूल कारण उस संस्था में निहित हैं जिसे उन कारणों की ज्यादा बेहतर जानकारी होगी. सुप्रीम कोर्ट को चलाने वाली सबसे बुद्धिमान और सम्मानित हस्तियां अप्रत्याशित परिणामों से निश्चित ही बेखबर नहीं होंगी.
यह भी पढ़ें : केजरीवाल ने मोदी-शाह के हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और जनकल्याणवाद वाले फार्मूले से ही भाजपा को मात देने का करिश्मा किया
सीएए-एनपीआर-एनआरसी के जिस जहर ने आज पूरे भारत को दूषित कर दिया है, वह दुर्भाग्य से उस विषबेल से फैला है जिसे भारत के सुप्रीम कोर्ट ने तब बोया था जब न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और रोहिंटन नरीमन की बेंच ने अपनी निगरानी में असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) बनाने का काम शुरू करने का अहम फैसला सुनाया था. हमें इस तथ्य को रेखांकित करना होगा कि जजों ने अचानक उपजी किसी सूझ के तहत यह फैसला नहीं सुनाया था. असम में ‘विदेशी नागरिक’ का अपना एक खास मसला है और वहां आव्रजन का एक उलझा हुआ इतिहास रहा है. 1980 के दशक में इसके खिलाफ उभरे जबरदस्त जनांदोलन ने पूरे राज्य को इस हद तक ठप कर दिया था कि तीन साल से ज्यादा तक सरकार की कुछ नहीं चली थी. हालत यह हो गई थी कि सरकार असम में निकाले जाने वाले कच्चे तेल का एक बूंद भी वहां से बाहर के तेलशोधक कारखानों तक नहीं भेज पाई थी.
स्थानीय असामियों में इस बात का गुस्सा भरा था कि बांग्लाभाषी ‘घुसपैठियों’ (यह शब्द भी वहीं से उपजा) ने वहां की मूल संस्कृति, राजनीतिक सत्ता और अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर लिया है. ऐसी स्थितियों में प्रायः जो होता है, वही हुआ. एक शांतिपूर्ण आंदोलन से कुछ शैतानी, उग्र तत्व भी पैदा हो गए. बहरहाल, 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और आंदोलन के नेताओं के बीच हुए एक समझौते के बाद अमनचैन बहाल हुआ. इस समझौते के तहत एक वादा यह किया गया था कि एनआरसी के जरिए अवैध विदेशी नागरिकों की जांच और पहचान की जाएगी और उनके नाम मतदाता सूची से निकालकर उन्हें वापस भेजा जाएगा.
चूंकि मामला सिर्फ असम का था. इसलिए एक ‘कट-ऑफ’ तारीख 25 मार्च 1971 तय की गई. इसी तारीख को पाकिस्तानी फौज ने तब के पूर्वी पाकिस्तान में कार्रवाई शुरू की थी. इसके पीछे विचार जो कि आज भी कायम है. यह था कि पूर्वी पाकिस्तान में जुल्म के कारण 1947 से ही लाखों हिंदू भाग कर असम में आते रहे हैं. उन्हें भारत में शरण दिया जाना जायज था. सीधी-सी बात यह थी कि जब तक वह हिस्सा पाकिस्तान था तब तक यहां आने वालों पर तो कोई सवाल नहीं उठाना था, न ही उन पर शक किया जाना या उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी थी. लेकिन 25 मार्च 1971 के बाद वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं की ज़िम्मेदारी दोस्ताना बांग्लादेश की हो गई.
इसका निष्कर्ष यह हुआ कि इस ‘कट-ऑफ’ तारीख के बाद यहां आने वाला शख्स अवैध विदेशी हो गया, जिसे वापस भेजा जाना जरूरी माना गया और यह बांग्लादेश की जिम्मेवारी मानी गई कि वह उसका पुनर्वास करे, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान. उस समझौते में इस तरह का कोई भेद करने की बात नहीं है. बेशक, उपरोक्त जजों की भी ऐसी कोई मंशा नहीं थी. वह बेंच उस याचिका पर फैसला सुना रही थी जिसमें मांग की गई थी कि समझौते की उस प्रमुख शर्त को लागू किया जाए, जिसे समझौते पर दस्तखत करने वाले अपनी सुविधा के लिए भूल गए थे. आप चाहे तो बिलकुल कानूनी नजरिया अपनाते हुए जायज रूप से यह सवाल कर सकते हैं कि जजों ने विस्मृत असुविधाजनक तथ्य की सिर्फ इसलिए अनदेखी क्यों की कि वह राजनीति और व्यवहारकुशलता के लिहाज से सुविधाजनक था?
बाकी तो हाल का फ्लैशबैक है जिस पर हम फटाफट नज़र डाल सकते हैं. एनआरसी के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में प्रक्रिया शुरू हुई और पूरी की गई. इसमें ऐसा उत्साह देखा गया जो उच्चतम न्यायालय की ऐतिहासिक क्रिकेट बेंच में देखा जाता है और मैं हिम्मत करके यह कह रहा हूं कि दोनों के नतीजे अंततः एक जैसे रहे, सिवा इसके कि एक तो मज़ाक बन गया और दूसरा एक त्रासदी बन गई.
अदालत ने एनआरसी के प्रभारी को सीधे अपने अधीन रखा और उसके मुंह पर ताला जड़ दिया कि वह मीडिया से भी बात न करे. इसने उस पूरी प्रक्रिया पर भय और धुंध की चादर डाल दी. अदालत ने यह भी आदेश दे दिया कि इस प्रक्रिया में जो लोग अवैध पाए जाएं उनके लिए नज़रबंदी केंद्र बनाए जाएं और जब गंदगी फैली या हकीकत सामने आया तब सब कुछ बदल गया. जो तथ्य सामने आए उनसे कुछ लोगों को आग लग गई, तो उनके मुक़ाबले जो ज्यादा ताकतवर थे उन्हें इसमें अपनी रोटी सेंकने का मौका नज़र आया.
पहला तथ्य तो यह सामने आया कि पहचाने गए ‘विदेशियों’ की संख्या उनकी पुरानी काल्पनिक संख्या का महज एक छोटा-सा अंश था. इसके अलावा, जिन लोगों को अभी भी वैध नहीं साबित किया जा सका उनमें से दो-तिहाई से ज्यादा तो हिंदू बंगाली ही हैं. स्थानीय असमी लोग हिंदुओं को स्वीकार नहीं करेंगे और न ही वे 1985 के समझौते के आधार को या उसे लागू करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कबूल करेंगे और भाजपा कभी हिंदुओं को बाहर निकालेगी भला?
यह भी पढ़ें : मंत्री के रूप में अमित शाह का प्रर्दशन तय करेगा कि मोदी-शाह की जोड़ी कितनी सफल होती है
तो अब हम किस स्थिति में पहुंच गए हैं? भाजपा को इसमें एक मौका नज़र आ गया. असम में ‘घुसपैठ’ करने वाले हिंदुओं को बचाने के लिए नया नागरिकता कानून सीएए लाकर मुसलमानों से निबटा जा सकता है और जब देश की सबसे ऊंची अदालत ने इसे एक राज्य के लिए वैध ठहरा दिया और इसके साथ ही आगे तक का, नजरबंदी केंद्र बनाने तक का रास्ता सुझा दिया, तो क्यों न इसे पूरे देश में लागू कर दिया जाए? इस तरह यह सबको परास्त करने वाला ध्रुवीकरण मंत्र बन गया.
सो, हम यहां तक आ पहुंचे हैं. सीएए की संवैधानिकता अब एक ऐसी नई गेंद बन गई है जो एक ही पाले में उछल रही है. इस बीच, इसने भली मंशा से जो जहर बोया वह पूरे भारत में फैल रहा है. यहां तक कि असम में भाजपा सरकार अब कह रही है कि वह एनआरसी से खुश नहीं है और वह इसे दोबारा तैयार करना चाहती है. अदालत की निगरानी और सुरक्षा में जिस अधिकारी ने इस प्रक्रिया को लागू किया था उसे परेशान किया जा रहा है. शायद इसलिए कि उसने मनमाफिक आंकड़े नहीं जुटाए. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में हुए उस काम का अब तक तो बचाव नहीं ही किया है, न ही उसने यह कहा है कि वह असम में एनआरसी की प्रक्रिया दोबारा करने की अनुमति नहीं देगा या अपने इरादों को सीएए के जरिए खारिज किए जाने की इजाजत नहीं देगा.
दिल्ली का दंगा तो एक घटना है. इसमें बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश को जोड़ लीजिए तो मारे जाने वालों की संख्या और बड़ी दिखेगी. अफसोस की बात यह है कि यह भारत के लिए एक बहुत लंबे, अंधेरे दौर की शुरुआत कर सकता है. इसीलिए इसके मूल कारणों पर विचार करने का वक़्त यही है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)