scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतहमें कांचा इलैया शेफर्ड को क्यों पढ़ना चाहिए?

हमें कांचा इलैया शेफर्ड को क्यों पढ़ना चाहिए?

Text Size:

प्रोफेसर कांचा इलैया को पढ़ना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि वे मुख्यधारा के समानांतर अपना एक प्रतिपक्ष यानी काउंटर नैरेटिव खड़ा करते हैं. ऐसे वैचारिक संघर्षों से ही दुनिया में ज्ञान का विकास हुआ है. उन्हें पढ़ने के लिए उनसे सहमत होना बिल्कुल ज़रूरी नहीं है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी के शैक्षणिक मामलों की स्टैंडिंग कमेटी ने सिफारिश की है कि राजनीति विज्ञान के एमए कोर्स के एक ऑप्शनल पेपर से प्रोफेसर कांचा इलैया की किताबें हटा ली जाएं. ये किताबें हैं –व्हाइ आई एम नॉट ए हिंदू और पोस्ट हिंदू इंडिया. इस बारे में दिल्ली यूनिवर्सिटी आखिरकार क्या फैसला लेती है, उस बात को छोड़ भी दें, तो यह बात अपने आप मे आश्चर्यजनक है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुछ टीचर्स एक ऐसे स्कॉलर की किताबों का विरोध कर रहें हैं जिनकी किताबें सेज जैसे बड़े प्रकाशन से छपी हैं और जिनकी किताबें बरसों से सोशल साइंस की सबसे लोकप्रिय किताबों में हैं.

कांचा इलैया की किताबें दिल्ली यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ पॉलिटिकल साइंस के एक ऑप्शनल कोर्स में पढ़ने के लिए सजेस्ट की गई हैं. इस पेपर का नाम दलित-बहुजन पॉलिटिकल थॉट है और इसे प्रोफेसर एन. सुकुमार ऑफर करते हैं. ऑप्शनल कोर्स होने के नाते स्टूडेंट्स के पास चुनने का मौका होता है कि वे इस कोर्स को पढ़ें या न पढ़ें. इसलिए कांचा इलैया की किताबों पर लगे इस आरोप को अगर मान भी लें कि इससे तथाकथित हिंदू भावनाएं आहत होती हैं, तो कोई चाहे तो इस कोर्स की जगह कोई और कोर्स पढ़कर अपनी भावनाओं को आहत होने से बचा सकता है. बुद्ध, कबीर, रैदास, ज्योतिबा फुले, आंबेडकर, पेरियार जैसे विचारक, चिंतक इस कोर्स का हिस्सा हैं.

कांचा से असहमत हैं तो उनकी आलोचना कीजिए

लेकिन असहमत विचारों को न पढ़ना एकेडमिक तरीका नहीं है. शैक्षणिक जगत में किसी किताब या विचार को खारिज करने या उसके खंडन की एक मान्य विधि है. जो कोई भी प्रोफेसर कांचा की किताबों से असहमत हैं वे इसके खिलाफ़ कोई रिसर्च पेपर या किताब लिख सकते हैं, या उनकी किताबों की समीक्षा लिख कर उसकी कमज़ोरियां बता सकते हैं. इसके बाद, दोनों तरह के टेक्स्ट को पढ़ने वाला अपने निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र होगा.

यह बात स्पष्ट है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में एमए के जो स्टूडेंट्स दलित-बहुजन पॉलिटिकल थॉट्स का पेपर पढ़ना चाहते हैं, सिर्फ उनसे ही यह कहा जा रहा है कि वे चाहें तो कांचा इलैया की किताबें पढ़ें. ये किताबें मूल सिलेबस का हिस्सा नहीं हैं. ये सजेस्टेड रीडिंग्स हैं. दुनिया भर के यूनिवर्सिटी सिस्टम में प्रोफेसर्स कोर्स ऑफर करते हैं और स्टूडेंट्स उनमें से अपनी पसंद के कोर्स चुनते हैं.

प्रोफेसर सुकुमार को अगर लगता है कि उन्होंने जो कोर्स डिज़ाइन किया है, उसमें कांचा इलैया को पढ़ा जाना चाहिए तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए, जब तक कि वे कोई प्रतिबंधित टेक्स्ट पढ़ने के लिए नहीं कहते. कांचा इलैया की किताबें गैरकानूनी नहीं हैं. वे देश के छोटे-बड़े बुकस्टॉल पर बिकती हैं. देश भर की लाइब्रेरी में ये किताबें मिल जाएंगी. उनकी एक किताब पोस्ट हिंदू इंडिया के एक लेख को लेकर जब विवाद हुआ तो मामला कोर्ट में पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने किताब पर पाबंदी लगाने से मना कर दिया. लेखकीय आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया.

कांचा इलैया को लेकर हंगामा है क्यों बरपा?

अगर हम कांचा इलैया की किताब ‘व्हाइ आई एम नॉट अ हिंदू’ को पढ़ें तो हमें अंदाज़ा हो जाएगा कि वे इतनी उत्तेजना क्यों पैदा करते हैं.

अपनी किताब की प्रस्तावना में वे साफ लिखते हैं कि ‘मैंने ये किताब शक करने वाले ब्राह्मणों के लिए नहीं लिखी है. मैंने ये किताब उनके लिए लिखी है जो खुले दिमाग से सोच सकते हैं. मेरा ब्राह्मण, बनिया और नवक्षत्रीय बुद्धिजीवियों से एक अनुरोध है कि पिछले तीन हज़ार साल से आप ये जानते हैं कि दलित-बहुजनों को कैसे पढ़ाना है और क्या पढ़ाना है. अब यह आपके और इस महान देश के हित में हैं आप वह सुनें और सीखें, जो हम आपको बता रहे हैं. जो भी समुदाय नए सवालों और और नए जवाबों को सीखने से इनकार करता है, वह तरक्की नहीं करता और बर्बाद हो जाता है.’

इसी किताब में वे आगे कहते हैं कि ‘भारत के हम जैसे दलित-बहुजनों ने अपने बचपन में हिंदू नाम का कोई शब्द नहीं सुना, न ऐसी किसी संस्कृति या धर्म के बारे में सुना. हमने मुसलमानों, ईसाईयों, ब्राह्मणों और बनियों के बारे में सुना, जो हमसे अलग हैं… इनमें से जिन लोगों के साथ हमारा कोई लेनादेना नहीं था, वे थे ब्राह्मण और बनिया. आज हमें अचानक बताया जा रहा है कि हमारा और ब्राह्मणों-बनियों का धर्म एक हैं.’

पूरे समाज को हिंदूवादी बनाने के जवाब में कांचा इलैया दलितवाद की वकालत करते हैं और लिखते हैं कि – ‘मंदिरों के दलितकरण की मांग हो रही है, हालांकि इससे पूरी व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाने में खास मदद नहीं मिलेगी. (फिर भी) ब्राह्मणवादी ताकतें इसका तीखा विरोध कर रही हैं. चाहे इसका सीमित मतलब ही क्यों न हो, मंदिरों से ब्राह्मणों को बाहर निकालकर उन पर कब्ज़ा करना ज़रूरी है, क्योंकि मंदिरों में सोना, चांदी और ज़मीन की शक्ल में काफी संपत्ति है. इस संपत्ति पर कब्ज़ा करना है लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि दलित-बहुजन संस्कृति में ब्राह्मणवादी देवसंस्कृति की मिलावट न हो जाए.’


यह भी पढ़ें: सुनो लड़कियों, तुम मंदिर क्यों जाना चाहती हो?


हिंदूकरण के मुकाबले दलितकरण की व्याख्या करते हुए कांचा इलैया आगे लिखते हैं कि – ‘इसका अगला चरण ब्राह्मणों और बनियों को उत्पादक कामों में लगने के लिए मजबूर करना है. ब्राह्मण और बनिया समुदायों के औरत और मर्द दोनों इसका जान लगाकर विरोध करेंगे. इसकी वजह यह है कि हिंदूवाद ने इनके अंदर उन सकारात्मक गुणों को नष्ट कर दिया है, जो इंसानों में आम तौर पर पाए जाते हैं. उनके दिमाग में ये ज़हर भरा है कि उत्पादक काम नीच होते हैं और उत्पादक जातियां नीची जातियां होती हैं. दुनिया का कोई भी शासक वर्ग उतना अमानवीय नहीं है, जितना कि भारत का ब्राह्मणवादी वर्ग. उनको फिर से मानवीय बनाने के लिए उन्हें उत्पादक कामों में लगाना होगा और उनके दिमाग से मंदिर, पद और सत्ता की ललक जैसी बातों को निकालना होगा.’

आखिर में वे कहते हैं कि-‘समाज के दलितकरण करने और उसमें से हिंदूवाद को समाप्त करने के लिए ज़रूरी है कि ब्राह्मणवादी विचारकों, लेखकों, राजनेताओं, इतिहासकारों, कवियों और कला समीक्षकों समेत किसी भी क्षेत्र के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा है उनके हर शब्द और हर वाक्य की पूरी पड़ताल की जाए.’

ऐसे कांचा इलैया को पढ़ने के लिए वाल्टेयर का साहस चाहिए जो कहते हैं कि–’मैं आपसे असहमत हो सकता हूं, फिर भी आप अपनी बात कह सकें इसका अधिकार आपको हो, इसके लिए मैं अपनी जान देकर भी संघर्ष करूंगा.’

कांचा इलैया के सिलेबस में होने से दिक्कत क्या है?

कांचा इलैया हालांकि कई किताबों के लेखक हैं. लेकिन उनकी मूल स्थापना एक है. वे मानते हैं कि भारत में श्रमिक और श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण-बनिया संस्कृति आपस में मुकाबला कर रहे हैं और भारत में ज्ञान-विज्ञान का विकास इसलिए नहीं हुआ क्योंकि यहां लंबे समय से ब्राह्मण-बनिया संस्कृति हावी है.

कांचा इन दोनों के बीच खुद को श्रमिक और श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधि मानते हैं और अपनी किताबों और लेखन में लगातार इसके पक्ष में तर्क रखते हैं. इसी क्रम में वे तथागत गौतम बुद्ध को दुनिया का श्रेष्ठ विचारक मानते हैं. उनकी पीएचडी थीसिस गॉड एज पॉलिटिकल फिलॉसफर में वे बुद्ध को कई मायने में अरस्तू, प्लेटो, कनफ्यूशियस और कौटिल्य से बड़ा दार्शनिक और राजनीतिक विचारक बताते हैं और इसके लिए तर्क देते हैं कि बुद्ध के दर्शन में श्रम और श्रमिकों की जितनी प्रतिष्ठा है, वह और कहीं नहीं है.

कांचा इलैया का मानना है कि भारत ही नहीं, दुनिया में ज्ञान और विज्ञान का सृजन मेहनतकश समुदाय करता है और निठल्ले समुदाय उसका सिर्फ उपभोग करते हैं. प्रोफेसर इलैया का मानना है कि ज्ञान का सृजन टेक्सट यानी लिखे या बोले हुए शब्द से नहीं, उत्पादन प्रक्रिया के दौरान होता है. इसलिए वे शास्त्र और शास्त्रीय ज्ञान को खारिज करते हैं और किसानों से लेकर कारीगरों तथा आदिवासियों तक की ज्ञान परंपरा को स्थापित करते हैं.

कांचा इलैया ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति या अनुत्पादक संस्कृति और उत्पादक संस्कृति के बीच खान-पान, भाषा, आचार-व्यवहार और स्त्री-पुरुष संबंधों आदि का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए जाने जाते हैं. प्रोफेसर इलैया की किताबों में संदर्भों के साथ बातें लिखी गई हैं, और इनके आधार पर ही अपना तर्कशास्त्र तैयार करते हैं.

कांचा इलैया की इन बातों से किसी को असहमति हो सकती है. पॉलिटिकल साइंस के जिस पेपर की बात हो रही हैं, उसमें पढ़ाए जाने वाले अन्य लेखक और विचारक जैसे रैदास, कबीर, फुले, आंबेडकर, पेरियार, गेल ऑम्वेट, कांशीराम ये सब या इनमें से कुछ लोग, किसी को नापसंद हो सकते हैं. लेकिन यूनिवर्सिटी सिस्टम में क्या सिर्फ वे चीज़ें पढ़ाई जाएंगी, जो किसी को पसंद होंगी? और वह कौन होगा, जिसकी पसंद या नापसंदगी से सिलेबस तय होगा?

ज्ञान का सृजन हमेशा स्थापित विचारों को चुनौती देने से होता है. अगर ऐसा न होता तो हम आज भी यही पढ़ रहे होते कि धरती चपटी हैं और सूरज धरती के चक्कर लगाता है. जो ज्ञान मुख्यधारा को पसंद है या स्थापित है, उसे हर ज़माने में चुनौती दी गई है. जो लोकतांत्रिक समाज हैं, वहां विरोधी विचारों को सुना और पढ़ा जाता है. जो समाज स्थिर और पोंगापंथी हैं, वे अपने नज़रिए को ही अंतिम सत्य मानते हैं और विरोधी विचारों का दमन करते हैं. विचारों की विविधता और विचारों के टकराव से ही नए विचारों का जन्म होता है. यूनिवर्सिटीज इसी के लिए बनी हैं. वे गुरुकुलों से इस मायने में भिन्न हैं कि वहां स्थापित ज्ञान को रटने पर ज़ोर होता था. इसलिए नए ज़माने के आने के साथ ही गुरुकुलों का अंत हो गया.

कांचा इलैया अगर आपको नापंसद हैं तो भी आपको उनका लिखा हुआ पढ़ना चाहिए. अगर कांचा इलैया को यूनिवर्सिटीज़ में नहीं पढ़ा जाएगा, तो इससे भारत में सामाजिक ज्ञान और विज्ञान का नुकसान ही होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

share & View comments