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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतदिल्ली हिंसा न तो मोदी सरकार का डिजाइन है और न ही इस्लामिक साजिश, यह इससे अधिक खतरनाक है

दिल्ली हिंसा न तो मोदी सरकार का डिजाइन है और न ही इस्लामिक साजिश, यह इससे अधिक खतरनाक है

प्रधानमंत्री मोदी को ये बात एक पल भी गवारा नहीं हो सकती कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर हों और उसी वक्त दिल्ली की सड़कों पर हिंसा का तांडव हो. जहां तक मोदी के विरोधियों का सवाल है, वे इस हालत मे थे ही नहीं कि हिंसा की कोई साजिश रचें और उसे अमली जामा पहनायें. लेकिन, हिंसा हुई तो फिर उसे सांयोगिक नहीं माना जा सकता.

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क्या मोदी सरकार ने हिंसा को इस हद तक सहज-सामान्य बना डाला है कि अब हिंसा की यही सहजता उसे डस सकती है? क्या इस सरकार ने हिंसा का एक ऐसा भस्मासुर गढ़ डाला है जो अब उसके नियंत्रण से बाहर हो चला है ?

किसी जनसंहार में बदलने की कूबत वाली दिल्ली की हिंसा के बारे में जब हम सोच-विचार को बैठे हैं तो हमारे आगे असल सवाल यही है जो पूछा जाना चाहिए. रविवार को शुरू हुई यह हिंसा पूरे तीन दिन तक दिल्ली के एक हिस्से को अपनी लपटों में लीलने को आतुर दिखी जिसकी धार बुधवार आते आते मंद पड़ने लगी है. आधिकारिक तौर पर मृतकों की तादाद दो अंको में पहुंच गई है लेकिन अनौपचारिक आकलनों में हिंसा की भेंट चढ़े लोगों की तादाद दोगुनी है. यों सोमवार और मंगलवार के दिन जिस किस्म के जानलेवा हमले हुए उस तर्ज की कोई नयी घटना बुधवार को सामने नहीं आयी. मंगलवार की शाम तक लग रहा था कि हिंसा की आग पूर्वी दिल्ली के कुछ और इलाकों में फैल जायेगी.

शुक्र मनाइए कि हिंसा के तांडव को उत्तर-पूर्वी दिल्ली के उसके मूल स्थान तक सीमित रखने में कामयाबी मिली. मंगलवार तक दंगाई भीड़ सड़कों पर उत्पात मचाती घूम रही थी और पुलिस या तो मूक दर्शक बनी हुई थी या फिर दंगाइयों का साथ दे रही थी लेकिन बुधवार के दोपहर के इस वक्त तक ये साफ हो चला है कि दंगाइयों को खदेड़ दिया गया है. हमने संकट के प्रबंधन और सहायता पहुंचाने के निमित्त एक टोली बनायी थी और हर लम्हे सक्रिय रहने वाली इस टोली ने मुझे बताया कि आधी रात के बाद से पुलिस सहायता मांगने के लिए की गई कॉल पर सकारात्मक कदम उठाने को तत्पर नजर आ रही है. उच्च न्यायालय ने दो बजे रात को बड़े साहसिक अंदाज में हस्तक्षेप किया और इस हस्तक्षेप से निश्चित ही सहायता मिली है. दिल्ली में 1984 में जैसा नरसंहार हुआ था, हम लोग इस बार वैसे नरसंहार के मुहाने पर पहुंचने से बाल-बाल बचे हैं.

दिल्ली एक नरसंहार जैसी घटना की तरफ कदम बढ़ा चुकी थी लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ जो हम उस बड़े विध्वंस से बच गये ? और, इससे भी बड़ा सवाल ये कि आखिर विध्वंस के इस मुकाम तक हम पहुंचे कैसे ? दिल्ली में हुई हिंसा से इस पुरानी समझ की एक बार फिर से पुष्टि हुई है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति मायने रखती है. शासन चाहे जिस दल का हो लेकिन हमारा पुलिस-बल इतना व्यवस्थित और पेशेवेर संगठन नहीं कि हम हिंसा की घड़ी में उसके बारे में ये भरोसा पाल सकें कि वो बेकाबू हालात पर लगाम कस पायेगी.

अफसोस कहिए कि हमारी पुलिस एकदम से रीढ़विहीन है. पुलिस में भर्ती बड़े अपारदर्शी तरीके से होती है, प्रशिक्षण का काम बड़ा लचर है, पुलिसकर्मियों के दिलो-दिमाग पूर्वाग्रह से भरे होते हैं, उनके कामकाज की स्थितियां गयी-बीती हैं और जवाबदेही का कोई सुचारु तंत्र नहीं बन पाया है. ऐसे में, हमारी पुलिस एक ऐसे खिलौने के रुप में नजर आती है जिससे सत्ताधारी दल अपनी मनमर्जी से खेल सकता है. राजनीतिक आका चाहते हैं तो पुलिस हाथ पर हाथ धरे अपने सामने उत्पात होता देखते रहती है और राजनीतिक आका चाहते हैं तो फिर पुलिस लोगों पर लाठी-गोली चलाती है.

राजनीतिक इच्छाशक्ति

पुलिस की इस दशा के मद्देनजर हमें अपने सवाल की गहराई में उतरते हुए ये पूछना होगा कि आखिर दिल्ली को पूरे दो दिन हिंसा की आग में क्योंकर झुलसने दिया गया ? और फिर, हिंसा पर अगर एकबारगी लगाम कसी गई तो ऐसा क्योंकर हुआ ? इन सवालों के दो बड़े प्रकट जवाब हैं. मोदी-शासन के कई आलोचकों का मानना है कि ये सारा कुछ एक बड़ी राजनीतिक बिसात का हिस्सा था जिसका मकसद आलोचकों और सीएए-विरोधी मुहिम की बोलती बंद करना था. इसके उलट मोदी शासन के समर्थकों का मानना है कि ये सारा कुछ मुसलमानों का रचा षडयंत्र था और इस षडयंत्र के पीछे मंशा ट्रंप के भारत दौरे की घड़ी में मोदी शासन को एकदम से सकते में लाने की थी. लेकिन, मोदी शासन के आलोचकों और समर्थकों की ये सोच घटना के तथ्यों से एकदम बेमेल है.

किसे फायदा हुआ

नरेंद्र मोदी और अमित शाह (गृहमंत्री) की जोड़ी के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए साजिश की किसी बात पर विश्वास कर लेना बेहद आसान है. लेकिन तथ्य बना रहेगा कि आखिर हिंसा एक ऐसे वक्त में क्यों हुई जो मौजूदा शासन के लिहाज से एकदम ही बेमतलब है. दिल्ली के चुनाव खत्म हो चुके थे. अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा सरकार के लिए बहुत मायने रखता है, खासतौर से प्रधानमंत्री मोदी के लिए. प्रधानमंत्री मोदी के लिए ये वैश्विक मीडिया के महामंच पर अपनी छवि संवारने का वक्त था और ऐसे किसी भी लम्हे के लिए प्रधानमंत्री हमेशा ताक में रहते हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी ये क्यों चाहेंगे कि देश की राजधानी आग की लपटों में घिर जाये और आग भड़काने को लेकर किसी के जेहन में शक की सूई उनकी तरफ घूमे.


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बेशक, डोनाल्ड ट्रम्प कोई झंडाधारी उदारवादी नहीं और ये मानकर चला जा सकता है कि प्रेस सम्मेलन में धार्मिक सहिष्णुता पर सवाल पूछे जाने पर वे ऊल-जलूल कुछ भी कह डालते. फिर भी, मोदी शासन के सामने ऐसा कोई रास्ता तो ना था कि वो दिल्ली में हुई हिंसा की कड़वी और शर्मनाक सच्चाई छुपा सके. गौर करने की बात ये भी है कि दिल्ली की हिंसा में मौजूदा शासन की धार्मिक असहिष्णुता नहीं बल्कि खुले आम सड़कों पर चलती हिंसा और गुंडागर्दी के प्रति सहनशीलता का भाव सामने आया है. एक विदेशी निवेशक के नजरिए से देखें तो दिल्ली की हिंसा की घड़ी में भारत एकदम से पाकिस्तान या फिर नाइजीरिया की तरह दिख पड़ेगा. राजनयिकों के लिए ही नहीं बल्कि नेतृवर्ग के लिए भी यह किसी दुःस्वप्न से कम नहीं. इसी कारण, ट्रम्प के भारत से जाने के साथ जैसे ही सियासत की नजर दिल्ली पर टिकी, आदेश दिये गये कि हिंसा हरचंद रोकी जानी चाहिए.

षडयंत्र का कोण इधर है

ट्रम्प के दौरे के वक्त भारत की छवि धूल-धूसरित करने की इस्लामी साजिश वाली बात तो और भी ज्यादा हास्यास्पद है. भारत-बंद का आह्वान 23 फरवरी के दिन के लिए था यानि ट्रम्प के दिल्ली पहुंचने के एक दिन पहले का. ये भी ध्यान में रखें कि भारत-बंद का आह्वान सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मसले पर नहीं बल्कि जाति-आधारित आरक्षण के मुद्दे पर किया गया था. सीएए के विरोध में खड़ा कोई भी बड़ा संगठन या गठबंधन इस आह्वान के समर्थन में नहीं था. जाहिर है, भारत-बंद असफल रहा. दिल्ली में दो दर्जन से अधिक जगहों पर सीएए के विरोध में धरना चल रहा है लेकिन इनमें से मात्र तीन ने भारत-बंद के आह्वान के प्रति एकजुटता जाहिर की और पास की सड़कों पर आवागमन बाधित किया. सीएए-विरोधी ज्यादातर प्रदर्शनकारी भारत-बंद के आह्वान से दूर रहे, भले ही उन्होंने दिल्ली के जाफराबाद वाले इलाके में सड़क बंद करने में लगे प्रदर्शनकारियों को रोका नहीं हो.

जाफराबाद में सड़क रोकने वाले प्रदर्शनकारियों को दुस्साहसी या फिर गैर-जिम्मेदार तो बताया जा सकता है लेकिन उनके बारे में ये मान लेना कि वे किसी साजिश का हिस्सा बनकर सड़क रोक रहे थे ताकि ट्रंप के दौरे के वक्त मोदी शासन को शर्मिन्दगी का सामना करना पड़े- दरअसल बहुत दूर की कौड़ी लाना है. और जरा ये भी सोचें कि ऐसी कोई ‘साजिश’ क्या बीजेपी के कपिल मिश्रा तथा सड़कों पर जय श्रीराम के नारे लगाते उत्पातियों के सक्रिय सहयोग के बगैर मुमकिन हो पाती ? अगर ऐसा है तब तो ये भी मानना पड़ेगा कि इस्लामी साजिश अपने तर्ज और तेवर में बड़ी ताकतवर है क्योंकि वो संघ-परिवार को भी अपने दायरे में सहयोगी के तौर पर खींच सकती है.

तीन तत्व

दिल्ली में हुई हिंसा की घटना को लेकर मेरी व्याख्या बड़ी सीधी-सादी है. साजिश रचने की बात तो छोड़ ही दें, प्रधानमंत्री मोदी को ये बात एक पल भी गवारा नहीं हो सकती कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर हों और ऐन उसी वक्त दिल्ली की सड़कों पर हिंसा का तांडव हो. जहां तक मोदी के विरोधियों का सवाल है, वे इस हालत मे थे ही नहीं कि हिंसा की कोई साजिश रचें और उसे अमली जामा पहनायें. लेकिन, हिंसा हुई तो फिर उसे सांयोगिक नहीं माना जा सकता. दिल्ली की हिंसा दरअसल उस गोला-बारुद के एकबारगी सुलग उठने का मामला है जिसे यह शासन बड़े जतन से इक्ट्ठे करता आ रहा था. गोला-बारुद के इस ढेर में तीन चीजें थीं.

पहली चीज थी नफरत का माहौल. हाल के वक्त में बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने मुस्लिम विरोध के नाम पर पर्याप्त विष-वमन किया है और इन नेताओं के मुंह से निकली विषबुझी बातों को बीजेपी की प्रोपगेंडा मशीनरी तथा जी-हजूरी में लगी मीडिया ने चहुंओर फैलाया है. यह बारुद के जमा होने और सुलगने के तुरंत पहले की स्थिति है. ऐसी स्थिति में आम आदमी पार्टी भी चुप्प लगा जाती है क्योंकि उसे दिख रहा है कि विरोध में बोले कि हिन्दू मतदाताओं का समर्थन उसके हाथ से फिसल जायेगा. मोदी के शासन में बीजेपी ने नफरत फैलाने वाले लोगों के लिए करिअर बनाने के भी प्रभूत अवसर जुटाये हैं. योगी आदित्यनाथ का ऊंचा चढ़ता करिअर ग्राफ उनकी तरफ टकटकी भिड़ाकर देखते कपिल मिश्राओं के लिए निश्चित ही एक सीख की तरह है. पार्टी में प्रज्ञा ठाकुर सरीखे लोग पूरे ठाठ से जमे हुए हैं तो अपनी फितरत से नफरती लोगों को लग रहा है कि बीजेपी की तरफ रहोगे तो कुछ भी करो, अभयदान मिला रहेगा. ऐसे में बीजेपी के भीतर दुस्साहसी नेताओं की बाढ़ आ गई है जो चुटकी बजाते सांप्रदायिकता की आग भड़का सकते हैं.


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बीजेपी ने गोला-बारुद का जो सामान इक्ट्ठा किया है उस ढेर की तीसरी चीज है, जी-हजूरी में लगी पुलिस और नौकरशाही. स्वायत्त संस्थानों पर व्यवस्थित तरीके से हुए हमले ने अब माहौल ऐसा बना दिया है कि इन संस्थानों में सब ने अपने होठ सिल लिये हैं. जामिया और जेएनयू पर हुए आपराधिक हमले के बाद पुलिस महकमे का हर अदना और आला जानता है कि सत्ताधारी पार्टी से जुड़े गुंडे अगर उत्पात मचाते नजर आयें तो बेहतर यही है कि उस तरफ से नजरें फेर ली जायें.

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दरअसल यही हुआ. वहां माहौल पर नफरत और अविश्वास की बारुदी भावना हावी हो रही थी. कपिल मिश्रा ने इस माहौल में चिंगारी सुलगायी. आम आदमी पार्टी की सरकार पसोपेश में पड़ी रही. और, जहां तक पुलिस का सवाल है, उसने सड़कों पर तेज होती हिंसा की लपटों की तरफ से उस दिन भी मुंह मोड़ रखा था जिस दिन प्रधानमंत्री ने नहीं चाहा होगा कि दिल्ली में कहीं भी कोई हादसा हो. सहज हो चले ढर्रे पर चलती इस हिंसा को आगे और बढ़ने से रोकने के लिए एकदम शीर्षस्तर से हस्तक्षेप की जरुरत थी.

मन हो तो कभी इस बात पर सोचें किः अपनी बनावट के कारण खुद-ब-खुद भड़क उठने वाली हिंसा सुनियोजित दंगों से कहीं ज्यादा खतरनाक होती है.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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4 टिप्पणी

  1. Yogendra ji jhuth bolna band Kare aap jaise logo ke Karan hi Delhi Mai halat hai….media or aap jaise log apne swarth ke Karan kitana zahar gholte hai yah saaf ddiha Raha hai…..apni Atma ko marker yah kunkar rahe ho…aap ko sharm aani chiye….desh Mai grina ka mahol banane ke liy….

  2. ये लिख देते हैं, प्रिंट छाप देता है, विश्लेषण करते हुए कितने सारे साफ़ साफ़ दिखाई देते हिंसा को उकसाने वाले भड़काऊ बयान और घटना क्रम को बड़ी आसानी से छोड़ दिया गया है
    वो नीयत पर शक करने की जगह बदनीयती के बारे में विश्वास दिलाता है,
    सबको अछी मति भगवान देने को तैय्यार भी हो तो ये लेने के लिए तैय्यार लग नहीं रहे
    शर्मनाक पूर्वागृहों का पुलिंदा शालीन से शब्दों में ढक कर परोस दिया गया है
    क्या ईश्वर इन्हें माफ़ करेगा?

  3. This is a convoluted manner of saying that all those statements, slogans and posters at Shaheen Bagh, proclaiming seditious intent and religious exceptionalism; raking up the ghosts of Partition; dredging up historical memories of utter humiliation and barbaric depradations of the Hindus- were the innocent babblings of clueless children, misguided students and senile women folk deserving of our magnanimous and tolerant indulgence. And the unconscionable attempt to turn a blind eye to the so-called Intifada that followed; of blatant intimidation, rampant arson, pillage; and heart rending violence; and the consequent loss of innocent lives–is more like a covering fire intended to bludgeon the sense of reality of the majority community as well as to emasculate any genuine outpouring of grief and outrage.
    It is said that the first draft of History is written by journalists. Does it hold water today at a time when the much tomtomed freedom of the press has become the much sought after fig leaf to cover up the naked and devilish dance of the fourth estate’s ideological sympathies?
    With smug satisfaction writ large, the author opens up the panorama of his wisdom by alleging that it was the majority community which is responsible for conjuring up the atmosphere of hate and communalism which, according to him, was what led to all those unfortunate, unforgettable and barbaric scenes witnessed during the last few days. And the less said about the criminal misuse of CAA/NPR/NRC and the fetid miasma of lies, distortions, misinformation and fear-mongering that it was clothed with, the better it will be if we are to preserve our sanity as equal citizens of a tolerant nation.

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