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शनिवार, 26 अप्रैल, 2025
होममत-विमतदंगों पर दिल्ली पुलिस की चार्ज शीट एक पैरोडी स्क्रिप्ट है जो यह बताने में जुटी है कि बॉस इज़ ऑलवेज राइट

दंगों पर दिल्ली पुलिस की चार्ज शीट एक पैरोडी स्क्रिप्ट है जो यह बताने में जुटी है कि बॉस इज़ ऑलवेज राइट

दिल्ली दंगों के बारे में दिल्ली पुलिस की चार्ज शीट पढ़ें और ज़ेहन में कोई सवाल आए तो उसे परे झटक दीजिए क्योंकि तथ्य की बात करेंगे तो कहानी का मज़ा किरकिरा हो जाएगा.

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छह माह की खूब गहन जांच ! और, इस खूब गहन जांच के बाद दिल्ली के दंगों के बारे में दिल्ली पुलिस ने आखिर खोज ही निकाला कि उसके बॉस दरअसल एकदम सही कह रहे थे !

गृहमंत्री तो सदन (लोकसभा) में बहुत पहले यानि 11 मार्च को ही अपना फैसला सुना चुके थे कि दिल्ली में दंगे किस वजह से हुए. पहले उनका कहना था कि ये दंगे स्वतस्फूर्त थे लेकिन अपने वक्तव्य से पलटते हुए अब उनको लग रहा था कि ये दंगे सीएए-विरोधी धरना-प्रदर्शन से जुड़ी एक गहरी साजिश का नतीजा थे. उन्होंने उमर खालिद के एक भाषण के कुछ हिस्सों का जिक्र किया और उसके संगठन युनाइटेड अगेन्स्ट हेट को मुख्य साजिशकर्ता करार दिया. मतलब, जो दिल्ली दंगे के मुख्य पीड़ित हैं वहीं दरअसल दंगाई हैं !

दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने 16 सितंबर को दाखिल अपनी विशालकाय चार्जशीट में बिल्कुल यही चीज खोजकर पेश की है. इस चार्जशीट का महीनों से इंतजार किया जा रहा था और चार्जशीट ऐसी है कि उसे सभी चार्जशीटों की जननि कहना उचित प्रतीत होता है. इसमें 700 से ज्यादा खास एफआईआर को एक में जोड़ने-गूंथने वाली महाकथा बुनकर परोसी गई है. यह एकलौता मामला है जिसमें मिजाज से निहायत सख्त यूएपीए कानून को आधार बनाया गया है. ध्यान रहे कि ये कानून देश की संप्रभुता की रक्षा के निमित्त बनाया गया था. अगर हिन्दुस्तान मे ली जाने वाली परीक्षाओं को नजीर मानें (जिसमें लिखा क्या गया है ये उतना मायने नहीं रखता जितना ये कि कितना लिखा गया है) तो चार्जशीट बड़ी असरदार मानी जायेगी. जी हां, आपको शायद यकीन ना आये लेकिन चार्जशीट कुल 17,000 पन्नों की है और इन 17000 पन्नों में से कुल 2600 पन्नों में मुख्य कथा परोसी गई है ! मतलब तकरीबन 1 जीबी डेटा में ये बताया गया है कि हाकिम हमेशा सही होता है. अंग्रेजी में कहते हैं ना: बॉस इज ऑलवेज राइट !

कहानी का प्लॉट पहले ही दिया जा चुका था. उस खांचे में कहानी तैयार करने भर की जरुरत थी. कहानी के हिसाब से सबूत गढ़ने थे. ढेर सारे सबूत ऐन आंखों के आगे थे लेकिन उन्हें करीने से किनारे लगा दिया गया. कुछ संवाद जोड़ने की जरुरत थी और कुछ अन्य जरुरी कलाकारी करनी थी. चार्जशीट में ये काम बड़ी कर्तव्य-परायणता से किया गया है और ये मानकर चला गया है कि चार्जशीट के पाठकगण और अदालत अपने अविश्वास को जेहन से परे करते हुए पूरी कथा पर यकीन करने के लिए बस एकदम से तैयार बैठे हैं.


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एक भव्य लेखन

दिल्ली पुलिस चाहती है, आप यकीन करें कि : देश की राजधानी में बड़े पैमाने पर भड़की हिंसा और हिन्दू-मुस्लिम दंगों की योजना तीन महीने पहले ही बना ली गई थी. इस योजना को पहले छोटे पैमाने पर अंजाम दिया गया, इससे मिली सीख के आधार पर योजना को और ज्यादा धारदार बनाया गया. योजना लोगों की नजर में ना आये इसके लिए एक बड़े बहाने की आड़ ली गई, खूब सोच-समझकर हिंसा की जगह तय की गई और फिर आखिर को ट्रंप के भारत दौरे तथा उसके तुरंत बाद योजना को उत्तरी दिल्ली में अंजाम दिया गया. मुझे लगता था कि बड़ी-बड़ी साजिशें खोज निकालने के लिए ख्याली घोड़े दौड़ाने के मामले में मार्क्सवादी सिद्धांतकारों की कोई सानी नहीं लेकिन दिल्ली पुलिस तो उनसे भी कई कदम आगे निकल गई.

दंगे की साजिश किसने रची ? जवाब होगा, छात्र-नेता उमर खालिद ने ,जिसकी हिफाजत में पुलिस पहले से ही तैनात है और साल 2018 से संभवतया दिल्ली पुलिस इलेक्ट्रानिक की अपनी युक्तियों से उसकी निगरानी भी कर रही है, उसी उमर खालिद ने दिल्ली पुलिस की नाक के नीचे दंगे की साजिश रची और उसे अंजाम दिया. अब ये सवाल मत पूछिए कि उमर खालिद ने साजिश रची तो फिर दिल्ली पुलिस क्या कर रही थी ? ऐसा कैसे हुआ कि जनवरी और फरवरी के महीने में उमर खालिद ने दिल्ली में चंद रोज भी ना गुजारे ? मुख्य साजिशकर्ता उमर खालिद है तो फिर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने चार्जशीट तैयार करने से पहले उससे पूछताछ क्यों नहीं की? आखिर 14 सितंबर को उसकी गिरफ्तारी क्यों हुई, उसे रिमांड पर क्यों लिया गया ? ना, ये तथ्यगत बातें मत पूछिए, तथ्यगत बातों से कहानी का मजा बिगड़ता है.

साजिश तो उमर खालिद ने रची लेकिन इसमें उसका मुख्य सहयोगी कौन था ? चार्जशीट चाहती है, आप मान लें जेएनयू का एक अन्य छात्र शर्जील इमाम दिल्ली दंगों की साजिश रचने में उमर खालिद का मुख्य सहयोगी थी. उसने जेएनयू के मुस्लिम छात्रों के लिए ह्वाट्सएप्प ग्रुप बनाया, शाहीन बाग के धरने-प्रदर्शन की शुरुआता की, उसे लंबे समय तक जारी रखा और ये सब उसने अपने ‘उस्ताद’ उमर खालिद के कहने पर किया. अब यहां ये मत याद दिलाइए कि उमर खालिद और शर्जील इमाम विचारधारा के मामले में एक-दूसरे के एकदम ही उलट हैं और शर्जील इमाम ने तो उमर की राजनीति पर हमला भी बोला है, उसने तो अपने ह्वाट्सएप्प ग्रुप में उमर खालिद का नाम भी नहीं लिया. इन सब बातों से दिल्ली पुलिस की चार्जशीट को क्या लेना-देना, दिल्ली पुलिस ये मानकर चल रही है कि उमर खालिद और शर्जील इमाम दोनों मुसलमान हैं तो फिर वे एक-दूसरे का साथ कैसे ना देंगे ? अब इस तथ्य को भूल जाइए कि शर्जील इमाम ने जब शुरुआती तौर पर शाहीन बाग बनाने का सुझाव दिया था तो स्थानीय लोगों ने इस सुझाव का विरोध किया था ( यह तथ्य तो चार्जशीट में ही दर्ज है). और, इस बात को भी भूल जाइए कि शर्जील इमाम ने ‘शाहीन बाग’ की समाप्ति का एकतरफा ऐलान कर किया तो स्थानीय महिलाओं ने अपने दम पर फैसला किया कि नहीं ! विरोध जारी रहेगा. लेकिन ना, ऐसा हो कैसे सकता है ? वो तो मुस्लिम महिलाएं थीं, वो भला अपने बूते कैसे कोई फैसला ले सकती हैं ?

साजिशों की साजिश, इस महा-साजिश को कैसे फैलाया गया, कैसे इसे अंजाम दिया गया ? दिल्ली पुलिस चाहती है, आप यकीन करें कीं यह खुफिया खुराफात दिल्ली प्रोटेस्ट सपोर्ट ग्रुप (डीपीएसजी) नाम के ह्वाटएप्प ग्रुप के जरिये फैला और अंजाम दिया गया. क्या आपने कभी सुना है कि बड़े पैमाने पर भड़की एक हिंसा 100 से भी अधिक लोगों के बीच तीन माह की अवधि में ह्वाटस्एप्प ग्रुप पर बनायी गई साजिश के सहारे फैली हो ? ऐसा कैसे हो सकता है कि ह्वाटसएप्प ग्रुप में साजिश के मुख्य कर्ता-धर्ता या तो नदारद रहें या फिर चुप्पी साधे रहें ? क्या इस ग्रुप में एक भी हिन्दू-विरोधी या मुस्लिम-विरोधी या फिर हिंसा को उकसावा देने वाली बात कही गई है ?

ह्वाट्सएप्प ग्रुप में हुई बातचीज 3000 पन्नों की है. जिन पत्रकारों ने ह्वाटसएप्प ग्रुप के इन 3000 पन्नों को पढ़ा है उनका निष्कर्ष है कि इस बातचीत में ऐसा कुछ नहीं है जिसकी बिनाह पर कहा जा सके कि ‘दंगे से पहले, दंगे के दौरान या फिर दंगे के बाद’ हिंसा को उकसावा देने की बात कही गई.  दंगे की शुरुआत से एक हफ्ते पहले का एक चैट है जिसमें सांप्रदायिक हिंसा की आशंका जतायी गई है लेकिन इसे मानने की कौन कहें, ग्रुप में शामिल लोग इस पर विश्वास तक नहीं करते. आप कह सकते हैं कि ये लोग तो बड़े भोले हैं, लेकिन क्या भोला होना और आपराधिक साजिश में शामिल होना एक ही बात है ?

एंटी-सीएए विरोध की ‘भूमिका’

कथाओं की कथा यानि इस महाकथा की काया के भीतर सीएए-विरोधी आंदोलन को किस कोने अंटाया गया है ? अगर आप इस महाकथा की मानें तो नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ पूरे देश में लगभग तीन महीने तक 24 घंटे के धरना-प्रदर्शन, सभा और विशाल रैली के सहारे चला आंदोलन कुछ और नहीं एक बहाना भर था, एक ऐसा बहाना जिसकी ओट में दिल्ली में दंगे फैलाने की साजिश को छिपाया जा सके. जी, बिल्कुल यही बात चार्जशीट में कही गई है. उसमें लिखा है : गुपचुप रची जा रही साजिश को धरना-प्रदर्शन से आड़ मिली, महिलाओं की आड़, सेक्युलरों की आड़ और मीडिया की आड़. संविधान की प्रस्तावना का पाठ, गांधी और आंबेडकर की तस्वीर, कवियों और कलाकारों की रचनात्मक अभिव्यक्तियों के सहारे कुछ और नहीं बल्कि ‘ अपने मिजाज से निहायत सांप्रदायिक विरोध-प्रदर्शन को ऊपर से एक चोला पहनाया गया, उसे सेक्युलरिज्म, मानवाधिकार और लोकतांत्रिक आजादी का मुखौटा पहनाया गया. ’ लेकिन क्या मिजाज से निहायत सांप्रदायिक’ इस विरोध-प्रदर्शन में किसी एक समुदाय के खिलाफ कुछ कहा नहीं जाना चाहिए था ? ना, आप ये सवाल मत पूछिए नहीं तो कथा का रस भंग हो जाएगा.

लेकिन, कपिल मिश्रा और रागिनी तिवारी के मिजाज से निहायत सेक्युलर तथा बीजेपी के ढेर सारे छुटभैयों के वीडियो का क्या जो कुछ और नहीं बल्कि दिल्ली दंगों के दौरान कानून-व्यवस्था बहाल करने की कोशिश में लगे हुए थे ? ऐसे क्यों हुआ कि जो कथा सुनायी जा रही है उसमें एक क्रम-भंग दिखता है, माननीय केंद्रीय मंत्रियों अनुराग ठाकुर के उन भाषणों का जिक्र तक नहीं जिसमें ऐन वक्त पर जनता-जनार्दन से कहा जा रहा था कि ‘देश के गद्दारों’ के मानवाधिकारों का सम्मान किया जाये ? और, खुद बॉस के बारे में क्या जिन्होंने लोकतांत्रिक आजादी की अपनी रौ में दिल्ली के मतदाताओं से कहा कि ऐसा झटका दीजिए कि करेंट शाहीन बाग तक पहुंचे ? ऐसा लगता है, दिल्ली पुलिस साजिश के मुख्य कर्ता-धर्ता पर इस कदर ध्यान टिकाये हुए थी कि चार्जशीट के अपने सत्रह हजारी पन्ने में सेक्युलरिज्म, मानवाधिकार और लोकतांत्रिक आजादी को बढ़ावा देने की इन कोशिशों का जिक्र करना भूल गई

एक नया राष्ट्रीय मनोरंजन

इस कौतुक-कथा को ऐसे ही दूर तक बढ़ाया जा सकता है. लेकिन इंसाफ और साफगोई के जज्बे का तकाजा है कि चार्जशीट में जगह-जगह आये अपने नाम के जिक्र के बारे में मैं यहां कुछ कहूं. वैसे चार्जशीट में मुझे अभियुक्त नहीं बनाया गया है. चार्जशीट में एक कलर फोटो और फोटो के नीचे एक तहरीर देते हुए मुझे इंगित किया गया है. ये दिखाया गया है कि मैं साजिश रचने की जो मुख्य बैठक हुई उसमें मैं उमर खालिद और शर्जिल इमाम के साथ मौजूद था. काश ! दिल्ली पुलिस इसके बारे में एक बार मुझसे पूछ लेती या फिर उस तथाकथित मीटिंग के बारे में मीडिया रिपोर्ट ही देख लेती. दरअसल मीटिंग तो हो ही नहीं पायी क्योंकि मीटिंग के लिए जिन लोगों को बुलावा गया था उनमें से ज्यादा आये ही नहीं. होना तो ये चाहिए था कि कथा रचने के लिए दिल्ली पुलिस अपने ख्याली घोड़ों के रुख किसी और मीटिंग की तरफ मोड़ती. मेरे बारे में ये भी कहा गया है कि 25 फरवरी यानि दंगे के दिन मैंने जयघोष किया: “हमारा मिशन कामयाब हुआ. ये दंगे करवाकर हमने अपनी स्ट्रेन्ग्थ सेंट्रल गवर्नमेंट को दिखा दी है. ”

लेकिन, अब इस बात पर मुझे जरा ऐतराज है. भाई, मेरे मुंह से मोगोम्बो टाइप का डायलॉग क्यों बुलवा रहे हो ; कहानी में मेरा किरदार कुछ बेहतर डॉयलॉग की मांग करता है. जाहिर है, दिल्ली पुलिस के पास पर्याप्त संख्या में रिसर्च असिस्टेंट (शोध सहायक) नहीं हैं, तभी तो वे लोग उन दिनों(दंगे का वक्त) से जुड़े मेरे फेसबुक और ट्वीटर पोस्ट देखना भूल गये. उन पोस्टस् में मैं प्रदर्शनकारियों से अपील कर रहा हूं कि ट्रंप के दौरे के वक्त विरोध-प्रदर्शन मत कीजिए और जाफराबाद-सीलमपुर की महिला प्रदर्शनकारियों से निवेदन कर रहा हूं कि आप रोड-बंदी(रोड ब्लॉकेड) मत कीजिए. दिल्ली पुलिस ने ये भी नहीं देखा कि 25 तारीख की मीटिंग में पारित प्रस्ताव में क्या कहा गया था. छह महीने खपाने के बाद भी दिल्ली पुलिस को, जाहिर है, समय की कमी रही जो उन्होंने मुझसे एक बार भी बात ना की.

अब जबकि न्यूज टेलीविजन पर सुशांत सिंह राजपूत नाम का धारावाहिक अपने आखिरी मुकाम पर पहुंच रहा है और इस धारावाहिक की ओट में चला चुनावी अभियान अब बिहार के वास्तविक चुनाव अभियान के लिए राह छोड़कर अब एक किनारे हुआ चाहता है तो फिर इस चार्जशीट के सहारे राष्ट्रीय फलक पर लोगों के मनोरंजन के लिए एक नई कहानी परोस दी गई है. तो फिर, राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर हंगामाखेज और सदाबहार कॉमेडी सीजन में एक सी-ग्रेड की कहानी को चलता देखने के लिए तैयार रहिए. महामारी की चपेट, नौकरी ना रहने के दुख और भारतभूमि पर चीन के कब्जे से उपजी हताशा से उबार के लिए जनता-जनार्दन का कुछ घड़ी मनोरंजन हो जाये तो इसमें भला मुझे क्यों ऐतराज होगा. लेकिन काश ! कि दिल्ली पुलिस को कहीं ज्यादा बेहतर पटकथा लेखक मिले होते ! !.


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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

 

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2 टिप्पणी

  1. दंगो जैसे मसले पर सरकार और सरकारी मशीनरी को संजीदगी से पेश आना चाहिए! लेकिन हिन्दू-मुस्लिम नफरत की राजनीति करने वाली भाजपा इस बात को भूल गई है! उसका एक मात्र मकसद हिन्दू समाज को पीड़ित बताने की है! लेकिन हकीकत यह है कि दंगे से समाज के सभी वर्गों को नुक्सान हुआ और राष्ट्रीय राजधानी में भय का माहौल कायम हुआ! यदि नागरिकता कानून के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन न हुआ होता तो हिन्दू ध्रुवीकरण की राजनीति में मीडिया जल रहा होता! लेकिन अब सुशांत और ड्रग्स केस मीडिया के लिए ‘हड्डी’ है!

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