पुलवामा हमलों के बाद पूरे भारत में कई कश्मीरी छात्रों को अपने कॉलेजों और पड़ोसियों के द्वारा परेशान किए जाने की शिकायत को एक सप्ताह बीत चुका है. यहां तक की मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय ने भी कश्मीरियों के बहिष्कार के बारे में ट्वीट किया है. कश्मीरियों के साथ इतना कुछ हो जाने के बाद भारत के शक्तिशाली, ट्विटर-प्रेमी, हाइपर-कम्यूनिकेटिव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहने के लिए अपना मुंह खोला जो पिछले एक सप्ताह में भारत का हर समझदार नागरिक कह चुका था.
राजस्थान के टोंक में, मोदी ने शनिवार को कहा, ‘कश्मीर के बेटे और बेटियों की रक्षा करना भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है. मुद्दा यह नहीं है कि पूरे भारत में युवा कश्मीरियों के खिलाफ हुई घटनाएं छोटी थीं या नहीं. ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए था. हमारी लड़ाई कश्मीर के लिए है, कश्मीरियों के खिलाफ नहीं.’
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ऐसा नहीं है कि यह भाषण इस सप्ताह का उनका पहला हो. लेकिन मोदी को राजनेता की तरह दिखने में एक सप्ताह का समय लगा. वास्तव में, यहां तक कि समय आने पर इस तरह कि पूर्ण प्रतिबंध और मानवीय बात को साहसी राजनेता कह सकता है, बशर्ते वह गंभीर हो. और उनके भाषणों से यह भी स्पष्ट होता है कि उन्हें पुलवामा हमले के बाद कश्मीरियों की सुरक्षा को लेकर हर छोटी या बड़ी घटना के बारे में पता था. लेकिन उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा.
पीएम मोदी ने जो कहा, यह उनके बोलने की देरी ही है जो मोदी के प्लेबुक को सामने लाती है.
मोदी प्लेबुक
नरेंद्र मोदी का सुव्यवस्थित पैटर्न कुछ इस तरह से है – कट्टरता को बढ़ावा देना, जहर फैलने देना, हर प्लेटफॉर्म पर समझदार और पागल इंसान को आपस में सिर फुट्टवल करने देना. फिर मामला बढ़ने पर ‘हम सबको एक दूसरे के साथ प्यार और सदभाव से रहना चाहिए’ जैसा एक घिसा-पिटा भाषण देना. नफ़रत की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने में देरी करने की उनकी यह आदत और जानबूझकर देरी करना इन सब के विपरीत नहीं है, बल्कि, यह पिछली भाजपा सरकार में ‘नरम दल-गरम दल‘ की राजनीति करने वाले एल.के आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेई से ज्यादा गूढ़ है.
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वे नफरत के बढ़ने का इंतजार करते हैं, मामला सोशल मीडिया में ‘हैशटैग’ में बदल जाता है और आलोचक आलोचना कर-कर के थक चुके होते हैं, और जब लोग इस मामले में किसी नेता से उम्मीद लगाना लगभग छोड़ चुके होते हैं या यूं कहें कि जब उस घटना का कोई मायने नहीं रह जाता, तब वे उठ खड़े होते हैं और बोलते हैं.
अख़लाक़ की हत्या और मोदी की आवाज़
मोहम्मद अख़लाक पर 2015 के घातक हमले पर प्रतिक्रिया देने के लिए उन्हें एक सप्ताह का समय लगा, जब उत्तर प्रदेश के दादरी में हिंदू ग्रामीणों ने उसे अपने घर से खींच लिया था और केवल गोमांस खाने के शक के आधार पर उसे मौत के घाट उतार दिया. जैसा कि स्वाभाविक था, एक असंमजस भरे राष्ट्र ने नाराजगी जताई और पूछा कि मोदी चुप क्यों थे, लेकिन उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका की अपनी पिछली यात्रा, चीनी राष्ट्रीय दिवस और एक बिलियर्ड चैंपियन को लेकर ट्वीट करना जारी रखा. यह सब तब हुआ जब नागरिकों ने गाय के नाम पर बढ़ रहे कट्टरवाद, भीड़ हिंसा (लिंचिंग) पर बहस की, वहीं भाजपा नेताओं ने अख़लाक की हत्या को महज एक ‘प्रतिक्रिया’ बताया. भाजपा विधायक संगीत सोम ने पहले ही ‘हिंदूत्व खतरे में है’ जैसे भाषण देकर, दंगों से पहले ही पीड़ित मुजफ्फरनगर में, राजनीतिक जमीन तैयार कर दी थी.
जब हिंदुत्व को बाहर निकालने का और उदारवादियों को हर बहस में उनकी जगह दिखाई गई तब मोदी ने बोलने से इंकार कर दिया.
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‘मैं आपको बताना चाहता हूं कि ऐसे बयानों पर ध्यान न दें. हम सभी को एकजुट होकर एक साथ रहना चाहिए, तभी हम दुनिया की उम्मीदों पर खड़े उतर सकते हैं.’ यह सर्वसिद्ध बात मोदी ने बिहार में एक सार्वजनिक रैली में कही. इस तरह की निंदात्मक आलोचना के लिए, नागरिकों को एक सप्ताह इंतजार करना पड़ा.
ऊना प्रकरण मोदी के लिए था
साल 2016. ऊना में एक हमला होता है. जिसमें चार दलित पुरुषों पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि वे मृत गायों को ले जा रहे थे. इस घटना पर प्रतिक्रिया देने के लिए देश के प्रधानमंत्री मोदी को काफी समय लगा. यहीं नहीं इसके बाद मोदी ने इस घटना को खुद से भी जोड़ लिया और एक भावुक भाषण देते हुए देशवासियों से कहा मुझे गोली मार दो. इस मामले के लगभग एक महीने बाद, मोदी ने हैदराबाद में एक सार्वजनिक रैली को संबोधित किया और नाटकीय रूप से कहा, ‘अगर आपको कोई समस्या है, और आपको लगता है कि किसी पर हमला करना है, तो मुझ पर हमला करो, मेरे दलित भाइयों पर नहीं. अगर आप किसी को गोली मारना चाहते हैं तो मुझे गोली मार दो, मेरे दलित भाइयों को नहीं.’
देरी असहायता की निशानी नहीं है
किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर देरी से बोलना यह कोई नई बात नहीं है. ऐसा 2002 में गुजरात दंगों के बाद स्थिति पर काबू पाने के लिए भारतीय सेना की टुकड़ियों को बुलाने के समय भी हुआ था. उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
यह उनका एक स्पष्ट पैटर्न है. यह देरी, कमजोरी या असहायता का संकेत नहीं है, यह एक अच्छी तरह से सोची समझी गई राजनीतिक रणनीति है. यह जरूरत पड़ने पर कुछ नहीं करने वाले एक मजबूत नेता की पौराणिक कथाओं को जिंदा रखता है. इसके इतर, यह उस समस्या पर हो रही बहस को और जहरीला बनाते हुए उसका ध्रुवीकरण कर देता है. जिससे वे हिंदू कट्टरपंथियों के वोटों को साधने में सफल होते हुए अपने आप को ‘राजनेता’ बनने का प्रयास करते हैं.
यह और बात है कि मोदी जैसे लोकप्रिय और मजबूत प्रधानमंत्री भी अपने शब्दों से घृणा और कट्टरता को रोक नहीं पा रहे हैं. लेकिन अगर कट्टरता को रोकना लक्ष्य होता, तो वह जल्दी बोलते.
आखिरकार, उनके पास पुर्तगाल में जंगल की आग के बारे में ट्वीट करने के लिए समय और दिल है. जिससे पता चलता है कि वे त्रासदियों की खबर के लिए कितने चौकस हैं.
यहां उनका मकसद अपनी राजनीतिक छवि को उन्नत करना और सड़क पर नफरत फैलाने वालों से खुद को दूर करना है, जिससे वो हमें विश्वास दिलाते हैं कि लोगों का गुस्सा कितना सहज है.
लेकिन यहां कई ऐसी घटनाएं हैं जिस पर उन्होंने कुछ भी नहीं बोला. उस मामले में पूरी तरह सन्नाटा पसरा रहा.
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