अंधकार से प्रकाश की ओर. यही विचार मन में आया जब मैंने अंधेरी कोयला खदानों से स्कूली शिक्षा के उजियारे में भेजे जाने, कोयला सचिव से शिक्षा एवं साक्षरता सचिव के पद पर अपने तबादले, की खबर सुनी.
पर, जल्दी ही मुझे पता चल गया कि कोयला सेक्टर में खदान भूमिगत थे और माफिया ऊपर, जबकि स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में मामला इसके विपरीत था. सारे शिक्षा माफिया भूमिगत थे, सभी मुखौटे लगाए भद्र हस्तियों के रूप में घूम रहे थे. कोयला सेक्टर में कुछेक माफियाओं से टक्कर ले चुके होने और अंशत: उस सेक्टर को व्यवस्थित करने में सफल रहने के बाद, अब बारी इन ‘भद्र हस्तियों’ से निपटने की थी. यह काम ज़्यादा कठिन था क्योंकि कोयला सेक्टर के विपरीत शिक्षा क्षेत्र में घोटाले अदृश्य होने के कारण इनके खिलाफ़ जनाक्रोश मौजूद नहीं था.
प्रकट रूप में सब कुछ व्यवस्थित दिखता था.
स्थिति कुछ ज़्यादा ही गंभीर इस कारण से भी लगती थी कि सिर्फ ढाई वर्षों में शिक्षा विभाग का प्रभार संभालने वाला मैं पांचवां सचिव था. शिक्षा क्षेत्र में स्वच्छ छवि वाले मेरे अधिकतर पूर्ववर्ती या तो टिक नहीं सके, या उन्हें टिकने नहीं दिया गया. सरकार ने ज़ाहिर तौर पर मुझे इस क्षेत्र के लिए सबसे ‘शिक्षित’ व्यक्ति (मैंने 1997 में उत्तर प्रदेश में वयस्क शिक्षा विभाग में तीन महीने रहने के अलावा कभी भी इस क्षेत्र में काम नहीं किया था) माना था.
यह कहना अपर्याप्त होगा कि बजटीय आवंटन और मानव संसाधन प्रबंधन, दोनों ही दृष्टि से शिक्षा क्षेत्र बुरी स्थिति में था.
स्कूली शिक्षा के लिए 2014-15 में 55,115 करोड़ रुपये का बजटीय आवंटन था. बाद के वर्षों में यह राशि कम होती गई. उदाहरण के लिए, 2016-17 के लिए 43,554 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए थे.
मानव संसाधन के नज़रिए से भी स्थिति चिंताजनक थी. विभाग में 2014 से 2016 के बीच पांच सचिव आए-गए. इस अवधि में कई संयुक्त सचिवों को भी बदला गया. स्थिति म्यूज़िकल चेयर के खेल जैसी थी, जो मुझे यूपी में बिताए दिनों की याद दिलाती थी जहां तबादले के धंधे को सर्वाधिक फलता-फूलता उद्योग बताया जाता था.
देश के दो सबसे बड़े राज्यों में शीर्ष प्रबंधन की व्यवस्था अजीब पैटर्न पर थी. यूपी में जहां मुख्य सचिव स्तर के दो अधिकारी अलग-अलग प्राथमिक शिक्षा और माध्यमिक स्तर की शिक्षा का जिम्मा संभालते थे (समन्वय की बड़ी समस्या खड़ी करते हुए), वहीं बिहार में एक ही अधिकारी के हाथों में शिक्षा और स्वास्थ्य के दो-दो विभाग थे, जिसका खामियाज़ा दोनों ही क्षेत्रों को उठाना पड़ता था.
इसके अलावा, माफिया को खुली छूट मिली हुई थी और वे व्यवस्था को दीमकों की तरह खोखला कर रहे थे. सौभाग्य से, अन्य क्षेत्रों के माफियाओं की तरह ही शिक्षा सेक्टर के माफिया भी बहुमत में नहीं थे, पर फैसलों में उनकी प्रभावी भूमिका होती थी. वे परस्पर अच्छी तरह संबद्ध और गहरी पैठ बनाए हुए थे. तमाम तरह के माफिया थे, पर उनमें से प्रमुख माफिया इन क्षेत्रों में सक्रिय थे:
1. बैचलर ऑफ एजुकेशन (बी.एड) और डिप्लोमा इन एलिमेंटरी एजुकेशन (डी.एल.एड)
2. परीक्षा केंद्र
3. प्रकाशक
4. निजी स्कूल
देश में बी.एड और डी.एल.एड के करीब 16,000 कॉलेज हैं. इनमें से ज़्यादातर सिर्फ नाम के कॉलेज हैं. आप ठीकठाक भुगतान कर बिना ज़्यादा प्रयास किए इनसे डिग्री ले सकते हैं. इस तरह की भी अफवाहें थीं कि पर्याप्त पैसे देने पर ये आपके लिए ‘नौकरी’ (सरकारी नौकरी) की भी व्यवस्था कर सकते हैं. नेशनल काउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन (एनसीटीई) के तत्कालीन अध्यक्ष संतोष मैथ्यूज़, एक ईमानदार अधिकारी, ने इन सभी कॉलेजों को नोटिस दिया कि वे अपनी स्थिति के बारे में हलफ़नामा जमा कराएं.
मकसद ये था कि सचमुच में संचालित हो रहे कॉलेजों को ही मान्यता मिले और गलत सूचनाएं देने वालों पर कानूनी कार्रवाई की जाए. शुरू में यह प्रक्रिया काम करती दिखी, पर कॉलेज प्रबंधकों को लगा कि उनमें से कुछेक परेशानी में पड़ सकते हैं. अधिकांश राज्यों के समर्थन के बावजूद, मैथ्यूज़ पर माफियाओं ने ‘कानूनी’ साधनों के सहारे भारी दबाव की स्थिति बना डाली. उन्हें पद छोड़ना पड़ा.
उत्तर भारत के कई राज्यों में नकल के लिए अनेक परीक्षा केंद्र ठेके पर दिए जाते हैं. ऐसे केंद्रों की भारी कीमत होती है क्योंकि परीक्षाओं के दौरान वहां बड़े स्तर पर नकल की सुविधा मुहैया कराई जाती है. यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस माफिया पर नकेल कसने की कोशिश की है.
इससे पहले कल्याण सिंह ने 1991 में ऐसा ही किया था, पर उसके बाद किसी मुख्यमंत्री ने इस माफिया पर हाथ डाले का साहस नहीं किया. इस साल की परीक्षाओं को नकलमुक्त रखने के लिए यूपी में उठाए गए कदमों के कारण 10 लाख से अधिक छात्रों ने परीक्षाओं में नहीं बैठने के विकल्प को चुना. इससे सामूहिक नकल की आदत का अंदाज़ा लग जाता है.
प्रकाशन उद्योग भी शिक्षा क्षेत्र के भरोसे फलता-फूलता है. निहित स्वार्थ वाले लोग इस क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि इसमें उनका फायदा है. यह दो स्तरों पर होता है. छात्रों को मुफ्त किताबें उपलब्ध कराने की विभिन्न सरकारों की योजनाओं में पैसे बनाने के कई रास्ते हैं. एक बड़ा भाग किताबों के एक साथ छपवाने की प्रक्रिया में मिलने वाली ‘अनिवार्य हिस्सेदारी’ से आता है.
यूपी सरकार द्वारा 2018 में इसके विरुद्ध उठाए गए कदम और फलस्वरूप हुई बचत ने आरोपों को सही ठहराने का काम किया है. एक साथ पुस्तकों की प्रिंटिंग और वितरण में लेनदेन अवश्यंभावी होने के मद्देनज़र बिहार सरकार मुफ्त किताबों से जुड़ी रियायतें सीधे लाभार्थियों के खाते में ट्रांसफर करने के विकल्प पर विचार कर रही है.
एक अन्य स्तर पर किताबों से पैसे बनाने का तरीका है- मुट्ठी भर निजी प्रकाशकों द्वारा निजी स्कूलों के साथ तालमेल कर, क्वालिटी के नाम पर, एनसीईआरटी की किताबों से चार-पांच गुना महंगे मूल्य की किताबें खरीदने के लिए छात्रों को बाध्य करना. यदि सीबीएसई से संबद्ध करीब 20,000 स्कूलों के सभी छात्र एनसीईआरटी की किताबें ही खरीदें तो इस मद में सालाना करीब 650 करोड़ रुपये की लागत आएगी. यदि निजी प्रकाशकों की किताबें ली जाती हैं तो यह लागत सालाना करीब 3,000 करोड़ के स्तर पर आ जाएगी.
समय पर सारी किताबें उपलब्ध कराने के लिए एनसीईआरटी ने इस अकादमिक वर्ष के लिए शानदार व्यवस्था की है, ताकि छात्रों को महंगी किताबें खरीदने के लिए बाध्य नहीं किया जा सके. पर, इस व्यवस्था को आगे भी जारी रखना होगा. ‘अक्षमता’ दिखाने के लिए एनसीईआरटी पर निहित स्वार्थी तत्वों का लगातार दबाव रहता है.
देश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था करने में अधिकांश निजी स्कूलों का बड़ा योगदान है. लेकिन उनमें से ही कुछ निजी शिक्षा क्षेत्र को बदनाम करने का काम करते हैं. शिक्षा के क्षेत्र में अनैतिक कार्य करने के बाद भी बच निकलने में सक्षम कई अत्यंत प्रभावशाली लोग मौजूद हैं. वे विभिन्न कानूनी और नैतिक मानदंडों का बैखौफ़ उल्लंघन करते हैं क्योंकि विगत में आधिकारिक व्यवस्था का हिस्सा रहने के कारण उन्हें बच निकलने के रास्तों का पता होता है.
उनके विभिन्न हथकंडों में शामिल हैं- फीस में बेहिसाब वृद्धि करना, अपने ‘ब्रांड’ के नाम के इस्तेमाल की भारी कीमत वसूलना और ब्रांड का उपयोग करने वालों को तंग करना. इस माफिया के खिलाफ कदम उठाने वाले सीबीएसई के अध्यक्ष राजेश चतुर को 2017 में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. उनकी जगह आईं, बेहतरीन अधिकारी, अनिता करवाल को भी बलि का बकरा बनाने की कोशिश की गई, पर वह दबावों के बावजूद डटी रहीं.
इस संबंध में अच्छी खबर एक बार फिर यूपी से है जहां सरकार ने फीस नियमन को लेकर एक नया कानून लागू किया है. कानून के बारे में तमाम संबद्ध पक्षों से मशविरा किया गया था, इसलिए सभी ने इसका स्वागत किया है. उम्मीद है कि अन्य राज्य भी ऐसा ही करेंगे.
(लेखक सिविल सेवा के सेवानिवृत अधिकारी हैं और पूर्व में भारत सरकार में सचिव के पद पर रहे हैं.)
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