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Saturday, 16 November, 2024
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डिफ़ॉल्ट या कठोर आर्थिक उपाय – पाकिस्तान के लिए अब आगे कुआं है और पीछे खाई

अगर आईएमएफ अपनी झोली खोलता है तो चीन समेत खाड़ी के कुछ देश भी ऐसा कर सकते हैं. इन सबने पाकिस्तान को बार-बार संकट से उबारा है लेकिन कर्ज देने वाले की थकान कर्ज लेने वाले की साख के लिए भारी पड़ रही है.

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पाकिस्तान की दीर्घकालिक गिरावट का क्या यह कोई बुनियादी मुकाम है? दौरे पर आए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के दल के साथ दस दिन की सघन वार्ता में वार्ताकार इस समझौते पर पहुंचे हैं कि पाकिस्तान को कर्ज जारी करने के बदले उसकी संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था का किस तरह प्रबंधन किया जाए. लेकिन आईएमएफ के आधिकारिक बयान के मुताबिक अभी अंतिम करार होना बाकी है और इसके लिए अभी और बातचीत करनी पड़ेगी. आईएमएफ के बोर्ड के सामने अभी मंजूरी के लिए कोई प्रस्ताव नहीं आया है.

कर्ज मिले या न मिले, पाकिस्तान के लिए यह बुरा समय है. चुनाव श्रीलंका की तरह के संयोग, अराजकता और उन कठोर कदमों के बीच करना है, जिन्हें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों ‘सोच से बाहर’ के कदम बताया. ऊंचे बिजली बिल, ऊंचे टैक्स, कम सबसीडी, और बर्बर मुद्रास्फीति (पहले ही 27 फीसदी पर पहुंच चुकी)—जो जीवन स्तर में और गिरावट लाएंगी.

इन सबके साथ दो और फैसले, जो किए भी जा चुके हैं— मुद्रा की कीमत में एक रात में करीब 15 फीसदी और पिछले एक साल में कुल करीब 35 फीसदी की कटौती, और ईंधन की कीमत में वृद्धि करने के. सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान की जनता इस पैकेज को अपनी तकदीर मान कर कबूल कर लेगी? उसे मालूम होना चाहिए कि इसका विकल्प यही है कि अंतरराष्ट्रीय कर्ज भुगतान में चूक करो और इसके साथ जुड़े तमाम नतीजे भुगतो.

इस तरह के कठोर उपायों का मतलब यह है कि पाकिस्तान अब अंधी गली में पहुंच चुका है. हालांकि अब तक वह अपने कर्जदारों से ऐसे वादे करके पैसे हासिल करता रहा है जिन्हें वह प्रायः तोड़ता रहा है. लेकिन वह इतनी उस्तादी नहीं दिखा सका है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के बड़े तामझाम की ओट में चीन के साथ उपयुक्त परियोजनाओं के ठेके हासिल कर सके. माना जा रहा था कि ये परियोजनाएं उसे बिजली के स्थायी संकट से निजात दिला देंगी और बेहतर ट्रांसपोर्ट तथा बंदरगाह सुविधाएं उपलब्ध करा के आर्थिक वृद्धि को तेज करेंगी.

लेकिन हुआ है यह कि बिजलीघरों के लिए संयंत्र के साथ कोयला भी आयात करना पड़ा है और कर्ज भी काफी महंगी शर्तों पर मिले हैं. बिजलीघरों को बनाने और चलाने वाली चीनी कंपनियों को कोई भुगतान नहीं किया गया है. इसलिए उन्होंने इन बिजलीघरों को बंद करने की चेतावनी हाल में दे दी है. सो, बिजली संकट कायम है.

अगर आईएमएफ अपनी झोली खोलता है तो चीन समेत खाड़ी के कुछ देश भी ऐसा कर सकते हैं. इन सबने पाकिस्तान को बार-बार संकट से उबारा है लेकिन पाकिस्तान बार-बार और मांग करता रहा है. कर्ज देने वाले की थकान कर्ज लेने वाले की साख के लिए भारी पड़ रही है. हालांकि चीन ने (श्रीलंका के मामले में भी) दिखाया है कि कर्ज लेने वाला देश अगर कर्ज की शर्तों में बदलाव चाहता है तो वह दूसरे किसी कर्जदाता देश जितना कठोर है. लेकिन सवाल यह है कि क्या कर्जे दीर्घकालिक समाधान न होकर सिर्फ नकदी हासिल करने के अस्थायी उपाय भर हैं? वैसे, आईएमएफ कर्ज देने की अपनी शर्तों के बूते दोनों मकसद पूरा करने की कोशिश करता है.


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समस्या की जड़ यह है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं है. जब तक आयात संबंधी प्रतिबंध लागू नहीं हुए थे तब तक वह निर्यात से दोगुना आयात कर रहा था. इस खाई को कुच्छ तो कर्जों से पाटा जा रहा था और कुछ अमेरिकी सहायता से और उन सैन्य भुगतानों से पाटा जा रहा था जो तब किए जा रहे थे जब वह सोवियत कब्जे वाले अफगानिस्तान से लड़ने में अग्रिम मोर्चे वाले देश की भूमिका निभा रहा था और बाद में जब अमेरिका तालिबान से लड़ रहा था. जब अमेरिका पाकिस्तान के दोहरे खेल से बेजार हो गया तो पाकिस्तान ने चीन को ‘हर हाल में साथ देने वाला दोस्त’ बना लिया.

पाकिस्तान ने हर तरह से एक ग्राहक देश बनने में ही अपना कुशल-क्षेम माना जबकि अपनी मंशा से वह दुष्ट देश बना रहा. लेकिन इस खेल के पर्दाफाश का वक़्त आ गया.

अगर इस मुल्क को अब नये सिरे से शुरुआत करनी है, तो एक लंबा रास्ता आगे पसरा हुआ है. कमजोर सामाजिक-आर्थिक पैमाने ‘निम्न’ मानव विकास सूचकांक से परिलक्षित होते हैं (बांग्लादेश और भारत ‘माध्यम’ श्रेणी में हैं), प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े भारत के इस आंकड़े के दो तिहाई के बराबर हैं, जीडीपी के लिहाज से टैक्स से आमदनी का आंकड़ा भारत के इस आंकड़े के 70 फीसदी से भी कम के बराबर हैं, यानी इतने कम हैं कि सरकार विकास के बुनियादी काम भी नहीं कर सकती, खासकर इसलिए कि सेना टैक्स से होने वाली कमाई का बड़ा हिस्सा हड़प लेती है.

उद्योग का आधार संकरा है और राजनीति पंगु है तो नेशनल सिक्योरिटी एजेंडा उलटे नतीजे दे रही है. ऐसे में पाकिस्तान, जैसा कि किसी ने कहा है, ‘दुनिया के लिए सिरदर्द’ ही बना रहेगा. फिर भी, भारत जब अपने पश्चिम की ओर नजर डालेगा, तब उसे आंतरिक संकट से जूझता, कमजोर पड़ता पाकिस्तान दिखेगा, जो उम्मीद है कि सिरदर्द नहीं बनेगा.

(विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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