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Saturday, 21 December, 2024
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राजनीति के अपराधीकरण पर काश सुप्रीम कोर्ट समस्या के मूल कारण से निपटने में अपना समय और ऊर्जा लगाती

क्या ये अच्छा नहीं होता कि हमारे माननीय जज समस्या के मूल कारण से निपटने में अपना समय और ऊर्जा लगाते ? मूल कारण है, हमारी विधिक प्रणाली में न्याय का देरी से मिलना और कुछ यों मिलना कि लगे न्याय हुआ ही नहीं.

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जज साहब, क्या आप अपना कीमती समय और ऊर्जा किसी बेहतर काम में नहीं लगा सकते ?

राजनीति के अपराधीकरण से निपटने के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के हाल के निर्देश पर मेरी पहली प्रतिक्रिया यही थी. दो जजों की एक बेंच ने चुनाव आयोग को ये सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है. सभी राजनीतिक दल अपने उन उम्मीदवारों के बारे में लोगों को व्यापक रुप से बतायें जिनपर अपराध के मामले चल रहे हैं. बेंच के आदेश के मुताबिक राजनीतिक दलों को ये भी बताना होगा कि उन्होंने किसी बेदाग व्यक्ति की जगह आपराधिक रिकार्ड वाले व्यक्ति को उम्मीदवार क्यों बनाया.

राजनीति में आ घुसे अपराधियों पर नकेल कसने के लिहाज से ये विचार अच्छा जान पड़ता है. मीडिया ने अपनी रिपोर्ट भी इसी सोच के इर्द-गिर्द गढ़ी. किसी भी मीडिया रिपोर्ट में ये जिक्र नहीं आया कि अदालत एक सतही बात को लेकर अपना कीमती वक्त बर्बाद कर रही है. अगर फैसला सुनाने वाली बेंच न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन और जस्टिस रवींद्र भट की हो तो अमूमन उसके बारे में नुक्ताचीनी करने की शायद ही कोई सोचे. और फिर, कोर्ट का ये फैसला एकदम से नया भी नहीं था. जजों ने फैसला एक याचिका पर सुनाया. अदालत ने पहले भी इसी आशय का फैसला सुनाया था और याचिका में कहा गया था कि अदालत के उस फैसले का अनुपालन नहीं हो रहा है.

मुश्किल ये है कि अदालत के फैसले में एक शास्त्रीय टेक वाला तर्कदोष है. तर्कदोष को कुछ यों समझा जा सकता है कि : ‘ये रही एक बड़ी समस्या, ठीक ? इसके दुरुस्त करना जरुरी है, ठीक ? तो फिर इस बाबत ये रही एक चीज. हमें ये चीज जरुरी ही करनी चाहिए, ठीक ?’ लेकिन इस तर्क का साथ दिक्कत है, हम ये पूछना ही भूल जाते हैं कि जिस ‘एक चीज’ को समाधान के रुप में सुझाया जा रहा है वो उस बड़ी समस्या को सुलझाने के एतबार से माफिक है भी या नहीं.

उचित तर्क नहीं

राजनीतिक सुधारों के मसले पर न्यायपालिका जब हस्तक्षेप करती है तो बहुत कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है. हर कोई मानता है कि लोकतांत्रिक राजनीति में अपराधियों की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए और दुरुस्त होशो-हवास वाला कोई भी व्यक्ति मानेगा कि अभी राजनीति में अपराधियों की दखल बनी चली आ रही है. ऐसे में, ये सोच तो बनेगी ही कि इस दिशा में कुछ उपाय करना जरुरी है. लेकिन असली सवाल ये है कि कौन से उपाय किये जायें और हम अक्सर ये पूछना ही भूल जाते हैं.


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किसी संतुलित सोच-विचार के अभाव में हमारे दिलो-दिमाग को एक हड़बड़ी आन घेरती है और समाधान जान पड़ती जो पहली बात हमारे दिमाग में चलती है, हम उसे ही रामबाण मानकर नुस्खा बता देते हैं. ऐसे में हमारे सोच में कई जगहों पर लोच आन पड़ता है. एक तो यह कि हम मानकर चलते हैं कि राजनीति में अपराधियों की भूमिका अगर है तो फिर वो चुनावों तक सीमित है. दो, हमारा ध्यान सिर्फ उम्मीदवार पर केंद्रित हो जाता है और हम राजनीतिक कार्यकर्ताओं को नजर से ओझल कर देते हैं. तीसरी बात, हम ‘अपराधी’ को ‘आपराधिक मामलों में नामजद व्यक्ति’ का पर्याय मान बैठते हैं. और चौथी बात, हम मानकर चलते हैं कि लोग-बाग उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में नहीं जानते और जान जायें तो फिर उसे वोट नहीं करेंगे.

बीते 17 सालों में ये तो जाहिर हो ही गया है कि हमारा ये ख्याल कितना मासूम है. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के कारण उम्मीदवार की पृष्ठभूमि के बारे खुलासे के बाबत जब से नये मान-मूल्य अमल में आये हैं, हमारे आगे स्पष्ट हो चला है कि उनमे सामर्थ्य कितना है और उनकी सीमा क्या है. शैक्षिक पृष्ठभूमि के बारे में खुलासा कोई खास मतलब नहीं रखता.इसके पीछे ये भद्रवर्गीय भ्रांति काम कर रही होती है कि लोग ज्यादा पढ़े-लिखे उम्मीदवारों को वोट डालेंगे या फिर ये कि उन्हें ज्यादा पढ़े-लिखे उम्मीदवारों को वोट डालना चाहिए. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. धन-संपत्ति के बारे में खुलासे का विधान बड़ा उपयोगी साबित हुआ लेकिन चुनाव-प्रचार के लिहाज से नहीं बल्कि किसी राजनेता के धन की बढ़वार को जानने के लिए. उम्मीदवार पर दर्ज आपराधिक मामले-मुकदमों के बारे में खुलासे का विधान भी उपयोगी है. लेकिन ऐसे किसी खुलासे के कारण मतदाता चेत जायेंगे, उस उम्मीदवार को वोट नहीं डालेंगे- ये बस एक ख्याल ही साबित हुआ और ऐसे सुधारों का भोलापन एकबारगी सामने आ गया.

आपराधिक मामले-मुकदमों के बारे में खुलासे के विधान भी ने मदद नहीं की

किसी उम्मीदवार पर आपराधिक मामले दर्ज हैं तो ये बात बहुत मानीखेज नहीं. अक्सर, इसका मतलब यही निकलता है कि आपके राजनीतिक विरोधी बहुत ताकतवर हैं और उन्होंने आपकी राह रोकने के लिए मुकदमे में फंसा दिया है. राजनीतिक कार्यकर्ता ऐसे मुकदमों को अपने लिए सम्मान की बात मानकर चलते हैं. ऐसे में अगर जनता-जनार्दन आपराधिक मामले-मुकदमे में फंसे नेताओं से परहेज ना करे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. ऐसे मामले सही साबित हुए और उम्मीदवार सचमुच अपराध-कर्म में लिप्त पाया गया तो भी उसके बारे में लोग-बाग यही मानते हैं कि वो नेता बड़ा निडर है. मतदाताओं को लगता है कि ऐसा नेता उन्हें लोक-कल्याण के निमित्त बनी योजनाओं का फायदा पहुंचायेगा. जब एक बार जाहिर हो गया कि किसी नेता की आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा लोगों को उसे वोट डालने से रोक पाने में कारगर नहीं तो फिर सुधारकों ने उपाय विचारा कि क्यों ना ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने के ही अयोग्य ठहरा दिया जाये. ऐसे में सुधारकों ने उपाय विचारा कि जिस किसी भी उम्मीदवार पर अपराध के मामले दर्ज हों उसे चुनाव लड़ने से रोकने का विधान करना ठीक होगा. खैर कहिए कि ये बुद्धि-भ्रम टिकाऊ साबित नहीं हुआ, सुधारकों के इस उपाय को ना तो अदालत ने स्वीकार किया और ना ही सरकार ने अन्यथा ये उपाय तो किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए किसी मुंहमांगी मुराद से कम साबित नहीं होता.

समय और ऊर्जा का दुरुपयोग

अब चूंकि ये उपाय भी कारगर नहीं साबित हो रहे तो हम चाह रहे हैं कि उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि के खुलासे का विधान और ज्यादा सख्त बनाया जाय, उसे कहीं ज्यादा सख्ती से लागू किया जाय. मैं आपको बता सकता हूं कि अदालत ने अभी जो आदेश सुनाया है उसका क्या हश्र होने जा रहा है. हमलोगों ने हरियाणा विधानसभा चुनाव(2019) में इस पर अमल किया था. हमारे तीन उम्मीदवारों पर अपराध के मामले लंबित थे और ये वैसे ही छोटे-मोटे मामले थे जो लगभग हर राजनीतिक कार्यकर्ता पर लगे मिलते हैं. हमने अपने उम्मीदवार पर लंबित इन मामलों के बारे में वेबसाइट पर सूचना सार्वजनिक की. ऐसा करना बहुत आसान था. लेकिन फिर हमें इन मामलों के बारे में स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के अखबारों में भी बताना था. अब अखबारों को लगा कि ये तो उनके लिए भरपूर कमाई का अवसर है, सो उन्होंने अपने विज्ञापनों के दर बढ़ा दिये. कुछ अखबारों ने हमें कॉम्बो डील की पेशकश की. डील ये थी कि पैसे दीजिए और अपने पक्ष में समाचार छपवाइये और इस एवज में वो नोटिस भी छापी जायेंगी जो उम्मीदवार के लिए कानूनी तौर पर छपवाना जरुरी है. आखिर को हुआ ये कि हमारा छोटा सा संगठन जिसके लिए फंड जुटा पाना मुहाल है, एक और मद में खर्चा करने के पचड़े में पड़ा.


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अब अदालत का आदेश आया है: पार्टियां बतायें कि उन्होंने बेदाग व्यक्तियों की जगह अपराध के मामले-मुकदमे में फंसे व्यक्ति को टिकट क्यों दिया. ये कुछ ऐसा ही है मानो नौकरी देने वाली चयन समिति से किसी चयनित अभ्यर्थी के बारे में पूछा जाये कि उसे नौकरी क्यों दी गई. अब अदालत ने पूछा है तो एक से बढ़कर एक जवाब सोचे जा सकते हैं. यकीन मानिए, हर पार्टी यही कहती नजर आयेगी कि उनके उम्मीदवार पर लगे मामले बेबुनियाद हैं और राजनीतिक वैमनस्य से लगाये गये हैं. ऐसे में जिस भी उम्मीदवार के बारे में ये बात कही जायेगी वो और ज्यादा लोकप्रिय होगा, माना जायेगा कि वो बड़ा कर्मठ और जुझारु जनसेवक है. मुझे तो नहीं लगता कि माननीय जजों ने अपने आदेश की पालना के प्रत्युत्तर में इस किस्म की कविताई की कल्पना की होगी.

क्या ये अच्छा नहीं होता कि हमारे माननीय जज समस्या के मूल कारण से निपटने में अपना समय और ऊर्जा लगाते ? मूल कारण है, हमारी विधिक प्रणाली में न्याय का देरी से मिलना और कुछ यों मिलना कि लगे न्याय हुआ ही नहीं. लेकिन क्या मेरा आज की तारीख में ये सुझाव देना ठीक होगा जब हमारे सुप्रीम कोर्ट को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर सुनवाई के लिए समय ही नहीं है ?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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