सात साल से चल रही बातचीत पर मंजूरी की मोहर लगाने के लिए बुलाए गए बैंकॉक सम्मेलन के ऐन बीच में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से बाहर रहने का फैसला लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गहरी राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया है.
आरसीईपी से बाहर रहना सचमुच बहुत बड़ा फैसला है. आरसीईपी मुक्त-व्यापार का कोई साधारण समझौता नहीं. यह चीन, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के साथ-साथ दक्षिण-पूर्वी एशिया तथा पूर्वी एशिया के मुल्कों को मिलाकर दुनिया के कुल 16 देशों का क्षेत्रीय स्तर का सबसे बड़ा व्यापारिक समझौते का रूप ले सकता था. अगर भारत इस समझौते में शामिल हो जाता तो दुनिया की तकरीबन आधी आबादी और विश्व की 35 फीसदी जीडीपी आरसीईपी के दायरे में चली आती. यह सिर्फ वस्तुओं के आयात-निर्यात से जुड़ा समझौता भर नहीं. इसके दायरे में सेवा, सामान, निवेश तथा बौद्धिक संपदा अधिकार सरीखी कई बातें शामिल हैं. इसका असर भारत की अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक क्षेत्रों में सालों से सक्रिय कई करोड़ नागरिकों पर होता.
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कठिन फैसला
आरसीईपी से बाहर रहने का फैसला लेना कठिन था. पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरफ दमदार तर्क थे. बड़े पैमाने के निवेश तथा व्यापार की संभावना वाले हद दर्जे के व्यापक समझौते से अपने को दूर रखना कोई हंसी का खेल नहीं. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सामान्य आर्थिक तर्क को समझने के लिए ‘अपेक्षिक बढ़त’ के सिद्धांतों को जानने की जरूरत नहीं. विभिन्न मुल्कों के बीच आपसी व्यापार में सीमा-शुल्क कम हो या एकदम ही न चुकाना पड़ रहा हो तो बाहर से आपके मुल्क में सस्ते सेवा-सामान की आवक होती है और आपके मुल्क के सेवा तथा सामानों को बाहर की दुनिया में बड़ा बाजार हासिल हो सकता है. जाहिर है, सीमा-शुल्क को कम करने या फिर उसे खत्म करने के किसी समझौते से हटने का मतलब है, सस्ते सेवा-सामान की आवक तथा अपने लिए बड़े बाजार की संभावनाओं से मुंह मोड़ना. आरसीईपी से बाहर रहने के फैसले की, जाहिर है, गंभीर और दमदार आलोचना होगी. संयोग देखिए कि द प्रिंट के संपादक शेखर गुप्ता भी आरसीईपी के बाबत लिए गये फैसले के आलोचकों में एक हैं. भारत की छवि अगर ‘संरक्षणवाद’ की तरफ मुड़ते देश की बनती है तो वैश्विक मंचों पर इसका घाटा उठाना पड़ सकता है.
आरसीईपी के बाबत प्रधानमंत्री ने निश्चित ही निजी तौर पर फैसला लिया होगा. अरुण जेटली के न रहने पर अब ऐसा कोई नहीं दिखता, आर्थिक मामलों में जिसकी राय पर प्रधानमंत्री भरोसा कर सकें. निर्मला सीतारमण ने वित्तमंत्री के रूप में अब तक जो भूमिका निभायी है उसे बहुत शानदार तो नहीं ही कहा जा सकता. जहां तक मोदी सरकार के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का सवाल है वे गुरुत्वाकर्षण सरीखे गहन-गंभीर मसले पर अपना गुरू-गंभीर मन्तव्य देने के अतिरिक्त बाकी बातों में बिन-पेंदी का लोटा ही साबित हुए हैं. अभी पिछले हफ्ते तक तो वो आरसीईपी की प्रशंसा के गीत गा रहे थे और समझौते को शक की नजर से देखने वालों से कह रहे थे कि मेहरबानी करके आप लोग अपनी जबान बंद रखिए जहां तक विशेषज्ञों की सलाह का मामला है, चंद अपवादों को छोड़ दें तो प्रधानमंत्री ने अपने चारो तरफ ऐसे लोग बैठा रखें हैं जो प्रधानमंत्री को प्रिय लगने वाली बातों के सिवा कोई और बात कह ही नहीं सकते. ऐसे में, आरसीईपी की पैरोकारी करती विशेषज्ञ-समूह की एक बनी-बनवाई रिपोर्ट भी आ गयी थी.
आरसीईपी पर फैसला लेना बड़ा जटिल काम था. लाभ-हानि का आकलन कर पाना आसान नहीं था. कुछ लाभ तो बड़े स्पष्ट दिख रहे थे. सूचना प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य तथा शिक्षा क्षेत्र के पेशेवर नजर गड़ाये बैठे थे कि उनके लिए संभावनाओं के नये द्वारा अब बस खुलने ही वाले हैं. दवा बनाने के उद्योग से जुड़े लोगों को लग रहा था कि उन्हें बड़ा बाजार हासिल होने जा रहा है. उद्योग को सस्ता इस्पात चाहिए था. और फिर, उपभोक्ताओं को भी फायदा होना ही था, उन्हें चीन के अतिरिक्त बाकी मुल्कों से भी आने वाली चीजें सस्ते दामों पर हासिल होतीं.
मिला-जुला आकलन
लेकिन जो लाभ होते दिखे रहे थे उन्हें संभावित नुकसान के बरक्स तौलकर देखना भी जरूरी था. भारतीय विनिर्माताओं को डर सता रहा था कि चीन के बने सस्ते सामानों की एकबारगी बाढ़ आ जायेगी. खुदरा विक्रेताओं को डर था कि ई-कॉमर्स के क्षेत्र में भारी भरकम निवेश होगा और उनकी कारोबार की संभावनाएं और ज्यादा धूमिल होंगी. स्थानीय स्तर के कुछ उद्योग तथा व्यवसाय भले ही अपनी अक्षमता छिपाने के लिए संरक्षण की तलाश में हों लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रतिस्पर्धा में सामने खड़े कारोबार को निगल और हड़प जाने वाले इस वक्त में उद्योग-धंधों को राजकीय संरक्षण की जरूरत बनी हुई है. और फिर, समय भी बहुत प्रतिकूल ही कहा जायेगा— हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर फिलहाल राजस्व घट रहा है, अर्थव्यवस्था में सुस्ती है, व्यापार घाटा बढ़ रहा है और बेरोजगारी ऊंचाइयां चढ़ रही है.
एक बड़ी चिन्ता अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र (खेती-किसानी) के उत्पादकों को लेकर थी. मुक्त व्यापार संधियों से जुड़े अब से पहले के अनुभव कड़वे ही कहे जायेंगे. रबड़, कॉफी, इलायची तथा नारियल उपजाने वाले किसानों को घाटा उठाना पड़ा था और यह अनुभव भारतीय कृषि के लिए एक तरह से चेतावनी का संकेत है. भारत अगर आरसीईपी से जुड़ जाता तो गेहूं, कपास और तिलहन उपजाने वाले किसानों का भी हश्र यही होता. किसानों की सभी बड़ी जमात—ऑल इंडिया किसान संघर्ष समिति तथा इंडियन को-ऑर्डिनेशन कमिटी ऑफ फार्मर्स मूवमेंट से लेकर आरएसएस समर्थित स्वदेशी जागरण मंच तक आरसीईपी का पुरजोर विरोध कर रहे थे. डेयरी सेक्टर को भी तगड़ा झटका लगता क्योंकि आरसीईपी में शामिल होने पर न्यूजीलैंड से सस्ते और अनुदानित दूध-पाउडर आने का रास्ता सुगम हो जाता. सहकारी दूध समितियों ने मुट्ठी तान ली थी. इस विरोध की अगुवाई स्वयं अमूल के प्रबंध निदेशक डॉक्टर आर.एस. सोधी कर रहे थे. यही वजह रही जो भारत ने कृषि-क्षेत्र को अब तक मुक्त व्यापार संधियों से कमोबेश दूर ही रखा है.
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सो, आरसीईपी में शामिल होने से जुड़ा नफा-नुकसान का गणित कह रहा था कि लंबा अरसा बीत जाने पर कुछ ठोस लाभ तो निश्चित हासिल होंगे लेकिन तात्कालिक तौर पर नुकसान उठाना पड़ेगा, घरेलू उद्योगों को बाद के वक्त की अपेक्षा अभी ही प्रतिस्पर्धा से जूझना होगा, उपभोक्ता और उत्पादक के बीच तनातनी रहेगी और चंद कॉरपोरेट के बरक्स छोटे विनिर्माताओं, व्यापारियों और किसानों को होड़ में उतरना होगा.
यह महज आर्थिक फैसला नहीं
लेकिन आरसीईपी से हटने के फैसले को सिर्फ आर्थिक नहीं कहा जा सकता. इस फैसले के साथ भारत की विदेश-नीति तथा उभरते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की भूमिका का सवाल भी जुड़ा है. प्रधानमंत्री मोदी की मदद के लिए बेशक इस मोर्चे पर समर्थ और सक्षम मददगार मौजूद हैं लेकिन यह मोर्चा उनके लिए अभी कमजोर बना हुआ है. विदेशों में आप्रवासी भारतीयों के झुंड बटोरकर खेल-तमाशा करना एक बात है और इससे निहायत ही अलग बात है वैश्विक कूटनीति के आंगन में असल मुद्दों पर मोल-तोल करने का साहस दिखाना. आरसीईपी को चीन-अमेरिका के बीच चल रहे व्यापार-युद्ध में किसी एक की तरफ खड़े होने के अवसर के रूप में देखा जा रहा था.
दरअसल राष्ट्रपति शी के साथ ममल्लापुरम की अनौपचारिक बैठक इसी का रास्ता खोलने की कवायद थी लेकिन बात बनी नहीं. दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री मोदी की राष्ट्रपति ट्रंप के साथ कहीं ज्यादा बेहतर बनी. कम से कम प्रधानमंत्री मोदी को तो यह लगता ही है कि राष्ट्रपति ट्रंप उनके ज्यादा करीब हैं. सो, एक लालच यह भी थी कि मुक्त व्यापार संधि के बहाने अमेरिका के साथ खड़ा दिखा जाये और इस तरह चीन और अमेरिका के साथ अपने संबंधों में एक किस्म का संतुलन कायम किया जाय.
इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि आरसीईपी में शामिल न होने का फैसला अपने स्वभाव में राजनीतिक है. आरसीईपी पर दस्तखत करने पर विपक्ष प्रधानमंत्री के खिलाफ गोलबंद हो जाता- आंदोलन और विपक्षी पार्टियां दोनों ही मोदी के खिलाफ एकजुट हो जाते. आरोप लगते कि किसान-विरोधी तथा छोटे व्यापारियों के विरोध की नीति अपनायी गई है. गौर करने की एक बात यह भी है कि कांग्रेस मसले पर देर से ही सही लेकिन जाग चुकी थी और उसने अपने पहले के रुख से पलटते हुए आरसीईपी के विरोध का रवैया अख्तियार किया था. जयराम रमेश ने तो यह तक कह दिया था कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद अब आरसीईपी के रूप में अर्थव्यवस्था को तीसरा बड़ा झटका लगने वाला है. विपक्ष इस बात को खूब तूल देता और मोदी के खिलाफ एक युद्धनाद में बदल देता. प्रधानमंत्री ऐसा क्यों करना चाहेंगे भला, खासकर जब महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों ने जता दिया है कि मतदाता के दिमाग से अभी आर्थिक मोर्चे की चिन्ताएं दफा नहीं हुई हैं.
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इसी कारण प्रधानमंत्री को बैंकॉक में अचानक गांधीजी की ताबीज की याद आयी. अब आप चाहे इसे लाज बचाने की कवायद कह लें या यह सोचें कि प्रधानमंत्री के वक्तव्य में आया किसानों के हित का हवाला किसी मुंह-ढिठाई के तौर पर आया है. आरसीईपी को लेकर चलने वाली बातचीत में खटाई डेयरी उद्योग या फिर कृषि के कारण नहीं पड़ी. इस बातचीत में खटाई का काम किया भारत की इस मांग ने कि उसे चीन के बाजार में वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात का अबाध अवसर हासिल होना चाहिए और चीन से होने वाले आयात पर सीमा आयद होनी चाहिए. आप चाहें तो कह लें कि ममल्लापुरम वार्ता के विफल होने के बाद यह अंगूरों को खट्टा कहने की जुगत थी. यह भी कहा जा सकता है कि राजनीतिक अनिवार्यता की दुहाई देकर बड़ी हड़बड़ी में पैर पीछे खींच लिये गये. ये तमाम बातें तो बेशक कही जा सकती हैं लेकिन मसला इतने ही तक सीमित नहीं, बात कुछ और भी है.
मैं आरसीईपी के बाबत लिये गये फैसले को राजनीतिक मिजाज का फैसला कहूंगा. अब इस बात पर नाक-भौं मत सिकोड़िए क्योंकि राजनीतिक फैसले आजकल शायद ही कहीं दिखायी देते हैं.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)