उत्तर प्रदेश के देवबंद में पिछले महीने मुस्लिम संगठनों का भारी जमावड़ा हुआ. काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह को लेकर विवाद जैसे मसलों पर इस जमावड़े ने उन लोगों के प्रति अपनी ‘गहरी नाराजगी और नापसंदगी’ दर्ज कराई, जो लोग ‘प्राचीन धार्मिक स्थानों के मामलों में विवाद उठाकर मुल्क में अमन के माहौल को बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं’.
इस बैठक में जमीअत उलेमा-ए-हिंद द्वारा पारित प्रस्ताव में कहा गया— यह साफ है कि ‘पुराने विवादों को फिर से भड़काने और इतिहास में हुई तथाकथित भूलों और अत्याचारों का इंसाफ करने के नाम पर चलाई जा रही मुहिमों से मुल्क का कोई भला नहीं होगा.’
यहां तक तो जो था वह ठीक था.
लेकिन प्रस्ताव ने समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) का यह कहकर विरोध किया कि यह इस्लामी क़ानूनों में साफ दखलंदाजी है. प्रस्ताव में कहा गया कि इन निजी कानूनों को किसी समाज, समुदाय या व्यक्ति अथवा समूह ने नहीं बनाया है बल्कि ये धार्मिक पाठों से उभरे हैं… वे हमारे धार्मिक निर्देशों के हिस्से हैं.’ निजी कानूनों को हटाकर उनकी जगह साझा नागरिक संहिता लाने की कोई भी कोशिश ‘इस्लाम में साफ दखलंदाजी है’.
मैंने मन-ही-मन सोचा, चलो यहीं से शुरुआत करते हैं.
जब राजनीतिक माहौल इतना गरम हो, मसले हर सप्ताह बदल रहे हों, तब एक मुद्दा ऐसा है जो कभी नहीं बदलता. और वह है समान नागरिकता संहिता पर बहस. मैंने इस मसले पर दो दशक पहले लिखा अपना लेख निकाला और मुझे लगा कि एक नया लेख लिखने की जगह इसे ही क्यों न दोबारा प्रकाशित करूं. यह तब जितना मौजूं था उतना आज भी है.
यह भी पढ़ें: चुनावी फायदे के लिए BJP ज्ञानवापी को बाबरी भले ही बना ले, लेकिन ये भारत को काले इतिहास की तरफ ले जाएगा
धर्मनिरपेक्ष बनाम धार्मिक भारत
भारत को दो नजरिए से देखा जा सकता है. पहला धर्मनिरपेक्ष नजरिया है, जिसके तहत आप कहते हैं कि आप सभी धर्मों का सम्मान करते हैं, लेकिन आप मानते हैं कि धार्मिक आस्था और देश के कानून (कुल मिलाकर शासन व्यवस्था) में एक अंतर होना चाहिए. कानून किसी तथाकथित दैवीय सिद्धांत पर नहीं बल्कि मौलिक मानवाधिकारों पर आधारित होने चाहिए, जिनकी गारंटी एक उदार लोकतंत्र अपने नागरिकों को देता हो.
हम हरेक व्यक्ति को समान मानते हैं. इसलिए जाति व्यवस्था चाहे कितनी भी पुरानी क्यों न हो, उदाहरण के लिए, हम शूद्रों और ब्राह्मणों के साथ अलग-अलग बर्ताव नहीं करेंगे. हमारे देश में छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं होगी. किसी प्राचीन ग्रंथ में चाहे कुछ भी लिखा हो, महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार हासिल होंगे.
आपराधिक कानूनों के मामले में भी धर्मनिरपेक्ष नजरिया अपनाया गया और कई संविधान निर्माताओं ने यही फैसला किया. जवाहरलाल नेहरू और बी.आर. आंबेडकर, दोनों का मानना था कि विवाह, गोद लेने, उत्तराधिकार, तलाक आदि के मामलों में विभिन्न धर्मों के जो विभिन्न कानून हैं उनकी जगह सभी भारतीयों के लिए नागरिक संहिता समान रूप से लागू की जाए.
भारत को देखने का दूसरा नजरिया धर्म के चश्मे से देखने का हो सकता है. व्यक्तिगत क़ानूनों में नेहरू औरर आंबेडकर ने जो परिवर्तन करने चाहे उनका कई हिंदुओं ने विरोध किया. उदाहरण के लिए, हिंदू पर्सनल लॉज में सुधारों का विरोध किया गया, जिनके तहत बहुविवाह प्रथा को 1955 में गैरकानूनी घोषित किया गया था.
मुसलमानों का एक हिस्सा भी व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव का ज्यादा विरोध कर रहा था. बंटवारे के ठीक बाद के माहौल में उन लोगों ने यह लाइन ली कि ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीअत) एप्लिकेशन एक्ट, 1937’ को खत्म करने या उसमें बदलाव करने का यह मतलब लिया जाएगा कि जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाकर भारत में रहने का फैसला किया उन्हें हिंदू कानूनों का पालन करना होगा और उनका समुदाय अपना विशेष चरित्र खो देगा.
अंततः धर्मनिरपेक्षतावादियों की हार हुई. भारत ने एक जटिल व्यवस्था अपनाई जिसमें हरेक समुदाय समान आपराधिक कानून का पालन करेगा लेकिन अपने पर्सनल लॉ भी कायम रखेगा जिनमें बहुविवाह, तलाक, और गोद लेने के अलग-अलग कानून हैं. हमारे संविधान निर्माताओं को समान नागरिक संहिता को नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल न करने का संतोष करना पड़ा. नीति निर्देशक सिद्धांत संविधान का वह हिस्सा है जिसे मानने का बंधन नहीं है.
राजनीतिक घटनाएं न घटतीं तो मामला जहां का तहां रहता. मुस्लिम राजनीतिक नेतृत्व अपने समर्थकों को हमेशा कहता रहा कि वे अपने पर्सनल लॉ में बदलाव की हर कोशिश का विरोध करें. 1985 में शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जब साफ हो गया कि मुस्लिम पुरुषों को अपनी तलाक़शुदा पत्नियों को गुजारा भत्ता देना पड़ेगा, तो मुस्लिम नेतृत्व ने विरोध शुरू कर दिया.
इस बीच, हिंदू नेता (या जो खुद को ऐसा मानते हैं) समान नागरिक संहिता की मांग पर अड़े रहे हैं. ऐसा वे धर्मनिरपेक्षता आदि के चलते नहीं कर रहे बल्कि मुसलमानों को यह संदेश देने के लिए करते रहे हैं कि उन्होंने भारत में रहने का फैसला किया है तो वे हिंदू कानूनों को मानें.
यह भी पढ़ें: कांग्रेस लाखों ‘चिंतन शिविर’ कर ले मगर राहुल के रहते BJP को नहीं हरा सकती
समान नागरिक संहिता का विरोध
ऐसी धार्मिक कट्टरता के मद्देनजर धर्मनिरपेक्षतावादियों के पास एक ही रास्ता बचता है. वे सभी धर्मों की एक परिषद का गठन करें और ऐसी समान नागरिक संहिता तैयार करवाएं जो केवल हिंदू पर्सनल लॉ का ही एक रूप न हो बल्कि उसमें मुस्लिम भावनाओं का भी खयाल रखा गया हो. यह आसान नहीं होगा. लेकिन असंभव भी नहीं है. इसके तहत भारत जैसे देश के लिए, जहां किसी को दो शादियां करने के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है जबकि उसका पड़ोसी चार बीवियों के साथ रह सकता है.
लेकिन हैरानी की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षतावादी लोग ऐसा कुछ नहीं चाहते. वे एक समान नागरिक संहिता नहीं चाहते. वे तमाम व्यक्तिगत कानूनों को कायम रखना चाहते हैं. जो लोग नेहरू और आंबेडकर के प्रति सम्मान जाहिर करते हैं वे भी समान नागरिक संहिता के लिए इन दोनों नेताओं की अपील को ठुकरा देते हैं.
जाहिर है, इसका कोई मतलब नहीं है. भारत में धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व यह है कि ऐसे कानूनों का समर्थन किया जाए जो ‘कानून के सामने सब समान हैं’ के सिद्धांत पर बनाए गए हों. बेशक कोई भी धर्मनिरपेक्षतावादी यह तो नहीं मानेगा कि भारत केवल धार्मिक दावों के चलते किसी कानून को कबूल करे, कि ऐसा पवित्र ग्रंथ में लिखा है इसलिए इसे बने रहना चाहिए?
फिर भी, धर्मनिरपेक्षतावादी लोग समान नागरिक संहिता के विरोध में हैं. ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि जो लोग इसे कायम रखना चाहते हैं वे यह कहते हैं कि मौजूदा मुस्लिम पर्सनल लॉ भारत के धर्मनिरपेक्ष नजरिए के खिलाफ हैं. कोई भी धर्मनिरपेक्षतावादी देवबंद में दिए गए इस तर्क को कैसे मंजूर कर सकता है कि पर्सनल लॉ में इसलिए बदलाव नहीं किए जा सकते क्योंकि वे मुस्लिम धार्मिक पाठों में खुदाई इलहाम से शामिल हुए हैं?
जब आप यह आपत्ति धर्मनिरपेक्षतावादियों के सामने रखते हैं तो उनका जवाब यह होता है कि ‘कोई हड़बड़ी नहीं है’ या यह कि ‘मुस्लिम समुदाय में बुरी प्रतिक्रिया होगी’ या यह कि ‘अभी सही वक़्त नहीं आया है’.
अगर दशकों से सही वक़्त नहीं आया, तो क्या वह कभी आएगा? हां, एक खतरा यह है कि अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय इसे अपने अधिकारों पर एक और हमला मानेगा. लेकिन यह केवल इसलिए क्योंकि कांग्रेस ने इतने वर्षों तक सत्ता में रहते हुए सही काम करने का साहस नहीं दिखाया. और अब, मुस्लिम नेता इस मसले को सियासी रंग देते हुए अपने समर्थकों से कहेंगे कि इस्लाम खतरे में है.
उदारवादियों के लिए विकल्प
हिंदू-मुस्लिम मसले के मामले में नरेंद्र मोदी सरकार का जो रवैया है उसका मैं कतई प्रशंसक नहीं हूं. जैसा कि मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं, इस सरकार की मंशा प्रायः यह दिखती है कि लोगों को उकसाया जाए, उन्हें छोटा साबित किया जाए और उनमें फूट पैदा की जाए. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्मनिरपेक्ष उदारवादी जमात अपने धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों पर कायम रहे बिना मोदी सरकार के हर काम का विरोध करे. रामचंद्र गुहा कोई हिंदू संप्रदायवादी नहीं हैं लेकिन 2016 में उन्होंने लिखा था— ‘मेरा मानना है कि समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी भारत और दुनियाभर में समाजवादी तथा महिलावादी आंदोलनों की प्रगतिशील विरासत को नकार रहे हैं. वे चाहे इसे मानें या न मानें, वे यथास्थिति की पैरवी करते नज़र आते हैं, जिनके उत्पीड़ित व भ्रमित तर्कों से केवल मुस्लिम पुरुषों और इस्लामी मुल्लाओं के हित ही सधते हैं.’
गुहा ने जब यह लिखा था तब बहस बौद्धिक स्तर पर चल रही थी. आज यह हकीकत की धरातल पर ज्यादा है. मोदी सरकार 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ही समान नागरिक संहिता को थोपने का फैसला कर सकती है. उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय पैनल का गठन किया है जो उस राज्य में लागू की जाने वाली इस संहिता का मसौदा तैयार करेगा.
अगर पूरे देश के लिए समान नागरिक संहिता बनती है, तो धर्मनिरपेक्ष उदारवादियों को यह तय करना पड़ेगा कि क्या वे इसका विरोध इसलिए कर रहे हैं कि इसे भाजपा ला रही है? या वे अपने सिद्धांतों पर कायम रहना चाहते हैं?
बेशक कोई भी समान नागरिक संहिता आम सहमति से बननी चाहिए और उसमें हरेक समुदाय के अधिकारों का सम्मान होना चाहिए. यह हरेक समुदाय के साथ विचार-विमर्श करके ही बननी चाहिए. मोदी सरकार को समाज के पिरामिड के सबसे निचले तल में स्थित मुस्लिम समुदाय को भी भरोसे में लेने की कोशिश करनी चाहिए कि यह इस्लाम पर हमला नहीं है.
लेकिन मुझे डर है कि इस तरह के कदम पर हिंदू विजयोल्लास से खीज कर धर्मनिपेक्ष उददारवादी जमात शायद अपनी धर्मनिपेक्षता और उदारता को भूल कर समान नागरिक संहिता का विरोध करेगी. आज के ध्रुवीकृत माहौल में बहस और चिंतनपरक विचार-विमर्श के लिए जगह नहीं रह गई है.
सरकार जो कुछ कर रही है उसके आप या समर्थक माने जाते हैं, या विरोधी.
अफसोस कि राजनीति आज इसी संकीर्णता में सिमट गई है.
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
यह भी पढ़ें: मोदी ध्रुवीकरण वाली शख्सियत हैं और यह बुरी बात नहीं, मगर हमें तीन सवालों के जवाब चाहिए