अंग्रेजों की गुलामी के विरुद्ध हमारे लम्बे चले स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास गवाह है कि 1919 में 13 अप्रैल को ऐन बैसाखी के दिन उनके ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने पंजाब के जलियांवाला बाग में कुख्यात रौलेट ऐक्ट के विरोध में हो रही जनसभा पर बेहद कू्ररतापूर्वक अंधाधुंध पुलिस फायरिंग कराकर जिस विचलित कर देने वाले नरसंहार को अंजाम दिया था, उसने आगे चलकर ऐसे विकट उद्वेलन पैदा किये कि देशवासी डायर को ‘द बूचर ऑफ अमृतसर’ कहने लगे.
लेकिन ये उद्धेलन इतने पर ही नहीं रुके. गोरों के अत्याचारों के चलते इस नरसंहार के पहले से ही गरमाये हुए देश के नौजवानों के रक्त ने डायर द्वारा बरती गई क्रूरता की आंच में तपकर ऐसा उबला कि वे हर हाल में प्रतिशोध, दूसरे शब्दों में कहें तो मारने या मरने के लिए मचलने लगे. फिर तो उनके अरमानों व आकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों का आंदोलन शफल हुआ तो वह जल्दी ही परवान चढ़ गया और उसकी हमदर्दी में प्रायः सारे देश में जनभावनाओं का सैलाब-सा उमड़ पड़ा.
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उत्तर प्रदेश के अवध अंचल की बात करें तो उसमें इन जनभावनाओं की शिनाख्त आज भी कठिन नहीं हुई है. आप अवध के किसी भी जिले के किसी भी हज्जाम के सैलून में चले जाइये, आपको वहां चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू जैसे क्रांतिकारी नायकों की तस्वीरें तो लगी मिल ही जायेंगी, बातूनी हज्जाम आपको यह भी बता देगा कि हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के आखिरी सांस तक अपराजित रहे कमांडर-इन-चीफ ‘आजाद’ के पास जो माउजर पिस्तौल हुआ करती थी, उसे वे बेहद प्यार करते और ‘बमतुलबुखारा’ कहा करते थे.
हज्जाम ज्यादा बातूनी हुआ या उसके साथ कोई और जानकार हुआ तो वह आपका इतना और ज्ञानवर्धन कर देगा कि 27 फरवरी, 1931 को आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में गोरी पुलिस से मुठभेड़ में शहीद हुए तो उनके पास माउजर नहीं, कोल्ट पिस्तौल थी.
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दरअसल, ‘आजाद’ की इन दोनों ही पिस्तौलों से जुड़ी कई कथाएं अवध के लोकमानस में खासी गहराई तक रची-बसी हैं. ये बताती हैं कि लाला लाजपतराय पर लाठियां बरसाने वाले अंगे्रज अधिकारी स्काॅट की हत्या के लिए 17 दिसम्बर, 1928 को अंजाम दिये गये जिस क्रांतिकारी आॅपरेशन में उसकी जगह जॉन सांडर्स मार डाला गया था, उसमें ‘आजाद’ अपनी माउजर ही अपने साथ ले गये थे.
लेकिन उनके बाद उनकी उस माउजर का क्या हुआ? कथाएं कोई उत्तर नहीं देतीं. जानकार और इतिहासकार भी नहीं. हां, क्रांतिकारियों की स्मृतियों की रक्षा के उपक्रमों के प्रति समर्पित उनके आन्दोलन के इतिहास के अप्रतिम अध्येता और वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी बताते हैं कि अरसा पहले उन्होंने इलाहाबाद के कटरा मुहल्ले में ‘आजाद’ के आखिरी दिन तक उनके साथ रहे गढ़वाल के क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत की मदद से जहां-जहां भी उक्त माउजर का सुराग लगने की उम्मीद थी, वहां-वहां की खाक छानी. लेकिन उसकी बाबत जानकारियां जुटाने में सफल नहीं हो सके.
इस सिलसिले में वे एक दिलचस्प जानकारी यह भी देते हैं कि ‘1977 में समाचारपत्रों में इस माउजर के इलाहाबाद के संग्रहालय से चोरी हो जाने की खबर छपी तो मुझे बड़ी हंसी आई.’ कारण यह कि खबर छापने वाले समाचार पत्रों ने इस सवाल का जवाब देने की जरूरत भीमहसूस नहीं की थी कि जो माउजर उक्त संग्रहालय में थी ही नहीं, वह चोरी कैसे जा सकती थी?’
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इस सवाल पर जायें कि शहादत के वक्त ‘आजाद’ के पास माउजर के बजाय कोल्ट क्यों थी? सुधीर विद्यार्थी बताते हैं:कोल्ट के माउजर से छोटी होने के कारण. कोल्ट को माउजर के मुकाबले आसानी से जेब में रखा और इस बाबत निश्चिंत हुआ जा सकता था कि वह किसी को नजर नहीं आने वाली.
प्रसंगवश, बाद में इलाहाबाद के अंगे्रज एसएसपी नट बावर की सेवानिवृत्ति के वक्त गोरी सरकार द्वारा यह कोल्ट उन्हें उपहार में दे दी गयी और वे उसे अपने साथ इंग्लैंड ले गये थे. उनका दावा था कि अल्फ्रेड पार्क में आजाद को पहले पहल उन्हीं की गोली लगी थी.
बावर उन दिनों उत्तर प्रदेश शासन के पेंशनर हुआ करते थे और शायद इसी अधिकार से बाद में ‘आजाद’ की कोल्ट वापस लाने की मांग उठने पर इलाहाबाद के कमिश्नर मुस्तफी ने, जो बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने, बावर को उसे लौटाने के लिए पत्र लिखा, तो बावर ने उन्हें कोई जवाब देना तक गवारा नहीं किया था.
बाद में उन्हें कोल्ट लौटाने के लिए मजबूर करने हेतु इंगलैंड स्थित भारतीय हाई कमिश्नर की मदद ली गई और अंततः वे इस शर्त पर इसके लिए राजी हो गये कि भारत द्वारा उनसे इसका लिखित अनुरोध किया जाये और अनुरोध के साथ इलाहाबाद में आजाद के शहादत स्थल पर लगी मूर्ति का चित्र भेजा जाये.
उनकी शर्त स्वीकार कर ली गई तो 1972 में यह ऐतिहासिक ‘कोल्ट’ पिस्तौल देश की राजधानी दिल्ली लौटी और 27 फरवरी, 1973 को लखनऊ में क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ बख्शी की अध्यक्षता में हुए समारोह के बाद लखनऊ के संग्रहालय में रख दी गयी. कुछ सालों बाद इलाहाबाद का नया संग्रहालय बनकर तैयार हुआ तो इसको वहां के एक विशेष कक्ष में स्थानांतरित कर दिया गया.
यहां जानना दिलचस्प है कि इलाहाबाद के, जिसका नाम अब प्रयागराज कर दिया गया है, सरकारी मालखाने में इस कोल्ट की बरामदगी का विवरण इस प्रकार दर्ज है: कोल्ट पिस्तौल, पीटीएफए मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी, हार्टफोर्ड सिटी {अमेरिका} पेटेंटेड, अप्रैल 20,18977-दिसम्बर 22, 1903, कोल्ट आटोमेटिक कैलिबर, 32, रिमलेस ऐंड स्मोकलेस.
सुधीर विद्यार्थी याद करते हैं कि आजाद की शहादत की अर्द्ध शताब्दी पर वे इलाहाबाद के रसूलाबाद घाट पर बनी उनकी समाधि पर फूल चढ़ाने गये थे. इसके कुछ ही दिनों बाद खबर मिली कि इलाहाबाद नगरपालिका के एक इंजीनियर ने वह समाधि तुड़वा डाली.
वे बताते हैं, ‘खुद को भारतीय कहने वाले उक्त इंजीनियर की इस कारस्तानी के बाद लोगों को उन अंग्रेज एसएसपी नट बावर की बहुत याद आई थी, जिन्होंने आजाद की कोल्ट पिस्तौल लौटाने के लिए लिखित अनुरोध-पत्र के साथ उनके शहादत स्थल पर स्थित उनकी प्रतिमा के चित्र की मांग की थी.’
यह कैसी विडम्बना है कि आजाद जैसे शहीद देश के लिए अपने अप्रतिम बलिदान के बावजूद इस इंजीनियर जैसे भारतीयों में अपनी यादों के प्रति वैसी श्ऱद्धा नहीं उत्पन्न कर पाये, जैसी उन्होंने अपनी शहादत का वायस बने नट बावर जैसे अंग्रेज पुलिस अधिकारी से दो-दो हाथ करके उत्पन्न कर दी?
(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)