समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच अलगाव के बाद सबसे आश्चर्यजनक बयान बसपा अध्यक्ष मायावती की तरफ से आया. उनके अनुसार सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उन्हें लोकसभा चुनाव में मुसलमानों को ज्यादा टिकट देने से मना किया था. यह बयान समाजवादी पार्टी की बुनियाद को झकझोर देने वाला है. लेकिन पार्टी ने अभी तक इसका खंडन नहीं किया है. समाजवादी नेताओं की चुप्पी से संशय को बल मिलता है.
समाजवादी पार्टी और मुसलमान
समाजवादी पार्टी के गठन से शिखर तक पहुंचने के सफर में मुसलमानों के समर्थन को नकारा नहीं जा सकता. विशेष रूप से वंचित मुसलमान इस पार्टी के समर्थन में निर्णायक भूमिका में रहे हैं. पिछड़े मुसलमानों जैसे अंसारी, कुरैशी, मंसूरी और अन्य कामगार जातियों ने समाजवादी पार्टी को प्राथमिक आधार पर अपनाया है.
समाजवादी पार्टी को मुसलमानों का हितैषी होने का दावा रहा है. नुमाइंदगी और अवसरों के आधार पर बात की जाये तो यह सिर्फ दावा है, इसमें सच्चाई नहीं है. समाजवादी पार्टी के नेतृत्व ने सिर्फ भावनात्मक आधार पर मुसलमानों का समर्थन जुटाया है. सत्ता में रहते हुए संविधान के अनुसार समान अवसर प्रदान करने की जगह भावनात्मक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया है.
बसपा अध्यक्ष मायावती के सनसनीखेज बयान के पीछे समाजवादी पार्टी का यही नकारे जाने वाला रवैया है. समाजवादी पार्टी में एक तबके को लगातार उपेक्षित किया गया है. इस पर मायावती की नज़र रही है. इस रवैये की वजह से ही समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को राज्यसभा, विधान परिषद, निगमों और आयोगों में वाजिब नुमाइंदगी नहीं दी. यह रवैया संगठन में भी हर स्तर पर भेदभाव करता है.
मुलायम सिंह यादव का समाजवाद और मुसलमान
यह आम तौर पर सुना जाता रहा है कि मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के मसीहा हैं. मीडिया के संघ दीक्षित धड़े ने मुलायम सिंह यादव को ‘मुल्ला मुलायम’ की पदवी प्रदान की थी. लेकिन मीडिया के इस धड़े ने यह कभी नहीं बताया कि आखिर किस आधार पर यह पदवी प्रदान की जा रही है? मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री रहते हुए कौन सा ऐसा प्रावधान किया है, जिससे मुसलमानों के दिन बदल गये या उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में परिवर्तन हुआ हो?
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मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की मोर्चाबन्दी के द्वारा इस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपनी पैठ बनाई थी. इस पार्टी के उठान में उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. स्पष्ट होना चाहिये कि उत्तर प्रदेश के कुल मुसलमान मतदाताओं की लगभग 85 प्रतिशत आबादी ओबीसी वर्ग में आती है. पिछड़े मुसलमानों का पूरा सहयोग समाजवादी पार्टी को मिलता रहा है. जिस दौर में अशराफ मुसलमान कांग्रेस के साथ थे, तब भी पिछड़े मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी का साथ निभाया.
इस हकीक़त के बावजूद पिछड़े वर्ग के रहनुमा कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव ने कभी भी पिछड़े मुसलमानों का समर्थन नहीं किया. ऐसा जान पड़ता कि इस तथ्य को जानकर नकारा गया है क्योंकि इसके पीछे कारण हैं. समाजवादी पार्टी ने 85 प्रतिशत पिछड़े मुसलमानों को एक बड़ी धार्मिक पहचान के अंदर देखा. इस तरह पिछड़े मुसलमानों में नेतृत्व के सवाल को उभरने से रोक दिया क्योंकि पार्टी का उद्देश्य यही था कि मुसलमानों में नेतृत्व के स्तर पर हर समूह से नेता सामने नहीं आयें. इसमें समाजवादी पार्टी अवश्य कामयाब रही, लेकिन पिछड़े मुसलमानों को इसका भारी नुकसान सहना पड़ा है. देश के कई राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश में 4 प्रतिशत, तमिलनाडु में 3.5 प्रतिशत, तेलंगाना में 4 प्रतिशत और कर्नाटक में 4 प्रतिशत आरक्षण पिछड़े मुसलमानों को मिल रहा है. समाजवादी पार्टी ने इस संबंध में कभी पहल नहीं की.
अखिलेश यादव का समाजवाद और मुसलमान
समाजवादी पार्टी ने 2012 के विधानसभा चुनाव के समय अपने मेनिफेस्टो में सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर 18 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण देने का वादा किया था. धार्मिक आधार पर आरक्षण मुश्किल है. लेकिन, पिछड़े मुसलमानों को आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जा सकता है. समाजवादी पार्टी ने बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद इस संबंध में पूरे पांच साल तक कोई कार्रवाई नहीं की.
ऐसा प्रतीत होता है कि अखिलेश यादव को सिर्फ ऐसा मुसलमान चाहिये जो हिस्सेदारी का सवाल नहीं उठाये. मुलायम सिंह यादव के समय में कुछ नेता ऐसे भी थे जिनका स्वर कई बार विरोध में भी उठता था. अखिलेश यादव के नेतृत्व में इसकी कोई संभावना नहीं. अखिलेश यादव का समाजवाद इतना भयभीत है कि बीजेपी की आक्रामकता के सामने समर्पण की मुद्रा धारण कर लेता है. क्या अखिलेश यादव से देश की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका की कल्पना करने वाले राजनीतिक चिंतकों को अब भी उनसे किसी अहम भूमिका की उम्मीद है?
लोहिया का गुणगान करने वाले इस दल में परिपक्वता का अभाव है. यही नेतृत्व गठबंधन में शामिल होने के बाद एक समुदाय की भूमिका को संदिग्ध बनाता है. एक समुदाय को टिकट नहीं दिये जाने की वकालत करता है. सपा ने यूपी में केवल चार मुस्लिम उम्मीदवारों को लोकसभा का टिकट दिया.
भविष्य का सफर
देश के अन्य वंचितों की तरह मुसलमानों को भी तमाम तरह की संभावनाएं तलाशनी चाहिये क्योंकि जिन दलों पर उन्हें अभी तक विश्वास था, उनकी विश्वसनीयता अब संदिग्ध है. बीजेपी से लड़ पाने की इनकी क्षमता की परीक्षा हो चुकी है और ये फेल हो चुके हैं. इस समुदाय को राजनैतिक दलों के साथ संभावित बातचीत के दौरान समुदाय के संवैधानिक अधिकारों एवं राज्य के संसाधनों में आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी के सवाल को प्राथमिकता देनी चाहिये.
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पिछड़े मुसलमानों को अपनी बातचीत का आधार दक्षिणी राज्यों में लागू आरक्षण को बनाना चाहिये. ऐसे चुनावी समीकरण को चुनना चाहिये जो उनके पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण का समर्थन करते हों एवं दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने के पक्षधर हों.
आज के संदर्भ में, तथाकथित सेकुलर दलों की ठेकेदारी का समाप्त हो जाना, भविष्य के लिये अच्छा है. सुधार या बदलाव का शब्द इन दलों के लिये अर्थहीन हो चुके हैं. मौजूदा समय में अपने अधिकारों को हासिल करने के कोशिश करनी चाहिये ना कि किसी दल या नेता के लिये जीवनदाता बनने में अपनी ऊर्जा और समय खराब किया जाये.
(लेखक भारतीय भाषा केंद्र जेएनयू में शोधार्थी हैं. लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार हैं.)