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Friday, 26 April, 2024
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बिहार चुनाव में दलित वोटर एक्स फैक्टर होंगे- वे यूपी की तरह वोट नहीं करते

व्यापक संदर्भों में यूपी में दलित चेतना को बसपा द्वारा आंबेडकरवादी राजनीति और आम व्यवहार शैली का हिस्सा बना दिया गया जबकि बिहार में यह मार्क्सवादी राजनीति और वर्ग संघर्ष के नारे के साथ आगे बढ़ी.

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दलित वोटर 2020 के बिहार चुनाव में एक्स फैक्टर है. क्या इस समुदाय का एक बड़ा वर्ग 2019 की तरह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को ही वोट देगा? या फिर यह चार प्रमुख दावेदारों एनडीए, लोक जनशक्ति पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन और विपक्षी महागठबंधन के बीच बंट जाएगा?

लोकनीति-सीएसडीएस के ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक एनडीए के सामाजिक ताने-बाने के बीच सत्ता विरोधी भावना सबसे ज्यादा दलितों में है. उच्च जातियों में 32 फीसदी के मुकाबले 53 फीसदी ने नीतीश कुमार की वापसी का समर्थन किया जबकि गैर-यादव ओबीसी में यह आंकड़ा 28 फीसदी के मुकाबले 56 प्रतिशत था. एनडीए की हार-जीत तय करने में निर्णायक साबित होने वाले दलितों में 48 फीसदी नीतीश कुमार सरकार को बदलने के पक्षधर दिखे जबकि 34 प्रतिशत ऐसा नहीं चाहते. ठीक ऐसा ही 2015 में हुआ था, जब दलितों ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों को धराशायी कर दिया था. लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) उन्हें आवंटित की गई 60 सीटों में से सिर्फ तीन पर ही जीत हासिल कर पाए थे और अंतत: निर्णायक सूची में एनडीए नीचे पहुंच गया था.

बिहार में दलित मतदाता राजनीतिक पार्टियों के लिए पहेली क्यों हैं? और पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में दलितों के वोटिंग पैटर्न में उल्लेखनीय स्थिरता क्या बताती है?

सामाजिक-आर्थिक रूपरेखा के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रभाव के मामले में भी उत्तर प्रदेश और बिहार एक जैसे हैं. दोनों राज्यों की दलित आबादी में भी बहुत ज्यादा अंतर नहीं है, उत्तर प्रदेश में यह 21 प्रतिशत और बिहार में 16 प्रतिशत है. दलितों के सामाजिक-आर्थिक शोषण को दर्शाने वाले संकेतक भी काफी हद तक एक जैसे हैं. यह खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की तो वास्तविकता है, सामंती भूमि व्यवस्था और निरंतर अविकासशीलता इन दोनों की पहचान है. हालांकि, पूर्वी यूपी में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक बड़ी ताकत है और बिहार में कमजोर है.

व्यापक संदर्भों में यूपी में दलित चेतना को बसपा द्वारा आंबेडकरवादी राजनीति और आम व्यवहार शैली का हिस्सा बना दिया गया जबकि बिहार में यह मार्क्सवादी राजनीति और वर्ग संघर्ष के नारे के साथ आगे बढ़ी. मार्क्सवाद अपने अंतर्विरोधों के कारण जैसे-जैसे कमजोर होता गया बिहार में दलितों की राजनीतिक चेतना भी मुख्यधारा की राजनीति का ही हिस्सा बनती चली गई.

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बिहार और यूपी में दलित राजनीति

उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की राजनीतिक विचारधारा को दो हिस्सों में क्यों बंट गया है- ओबीसी राजनीति, जो समाजवादी पार्टी के इर्द-गिर्द सिमटी रहती है और दलित राजनीति, जो बसपा पर केंद्रित है- जबकि बिहार में ओबीसी का एकाधिकार नजर आता है? हम यूपी और बिहार में दलितों की राजनीतिक लामबंदी की अलग-अलग प्रकृति के पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण मानते हैं.

पहला, बिहार में ऐसे राजनीतिक नेतृत्व का अभाव था जो एक विशिष्ट दलित राजनीतिक चेतना को बढ़ावा दे सके. जैसा बद्री नारायण कहते हैं, कांशीराम के नेतृत्व वाली बसपा ने सिर्फ चुनावी प्रतिस्पर्धा पर ही ध्यान केंद्रित नहीं किया, बल्कि दलित पहचान कायम करने पर जोर दिया और सवर्णों के खिलाफ टकराव वाला रुख अपनाया. इसके विपरीत बिहार में दलितों से जुड़े लोजपा और हम जैसे दलों के लिए सारी चिंता मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के साथ अच्छी सौदेबाजी पर केंद्रित रही और इस वजह से ही बिहार में आंबेडकरवादी चेतना कमजोर रही.


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कुछ मायनों में जगजीवन राम ने राज्य की दलित राजनीति में का खाका निर्धारित किया- उदारवादी सुधार और किसी भी तरह की टकराव की राजनीति से दूरी- अगली पीढ़ी के दलित नेता इस रास्ते पर चल पड़े. शायद यही वजह है कि जगजीवन राम को कांशी राम की प्रसिद्ध किताब ‘चमचा युग ‘ में उपहास का केंद्रीय पात्र बताया जाता है. कोई अलग विचारधारा कायम किए बिना बिहार के दलित नेताओं -रामविलास पासवान, श्याम रजक और जीतन राम मांझी- ने केवल अपनी दलित उप-जातियों की अगुआई की. तथ्य यह भी है कि पासवान ने बसपा की सवर्ण विरोधी विचारधारा को सार्वजनिक तौर पर अस्वीकार कर दिया था और कांशीराम और मायावती दोनों के साथ उनके रिश्ते तल्ख रहे थे.

दूसरा, उत्तर प्रदेश में संख्याबल के लिहाज से मजबूत और सामाजिक आर्थिक रूप से उभरता दलित वर्ग जाटव समुदाय है जिसे केंद्र में रखकर ही कांशी राम ने बामसेफ (अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ) बनाया और फिर बसपा का गठन किया. बीएएमसीईएफ ने कांग्रेस पार्टी के भीतर प्रतिनिधित्व का संकट झेल रहे सम्पन्न और पदाधिकार के इच्छुक दलितों के संभ्रात वर्ग की आकांक्षाओं को पूरा किया. यूपी में दलितों की कुल आबादी में लगभग 56 प्रतिशत जाटव हैं, और मुसलमानों और पिछड़ी जातियों के एक हिस्से को मिलाकर यह राज्य की चतुष्कोणीय राजनीति में बसपा के लिए 20 फीसदी का एक निर्णायक वोट शेयर बन जाता है. वहीं, बिहार में दलित तमाम उप-जातियों में बंटे हैं. जाटव और दुसाध (पासवान) दोनों में प्रत्येक का राज्य की दलित आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा है, और बाकी एक तिहाई में कई अन्य शामिल हैं.

1990 के दशक के बाद में बिहार में दलित पार्टी बनाने के लिए रामविलास पासवान सबसे अधिक मज़बूत दावेदार थे, लेकिन वह ऐसा करने में असमर्थ होने के साथ-साथ अनिच्छुक दोनों थे. एक बात तो यह कि पासवान खासतौर पर दलितों के लिए एक अलग मंच बनाने में खुद को समर्पित करने की बजाये राष्ट्रीय राजनीति में केंद्रीय भूमिका निभाने और मुख्यधारा की पार्टियों के साथ काम करने को तरजीह देते थे. चुनावी बयार भांप लेने और उसके अनुरूप ही निष्ठा बदलने की उनकी ख्याति (‘मौसम वैज्ञानिक’ के कुख्यात टैग) ने भी उन्हें राज्य की राजनीति में बहुत स्थापित नहीं होने दिया, जहां कई बार वो हारते हुए गठबंधन के साथ थे. उसके बजाय उन्होंने सहमति की राजनीतिक को अपनाया और अगड़ी जातियों खासकर भूमिहारों से नजदीकी बढ़ाई. यह रणनीति कुछ हद तक इस तथ्य पर आधारित थी कि अन्य दलित जातियां पासवान के प्रति उदासीन हैं. निस्संदेह, 1990 के दशक के दौरान बसपा ने नियमित रूप से दो-तिहाई जाटव वोट हासिल किए लेकिन पासवान कभी अपने दुसाध वर्ग के बीच ही 50 फीसदी वोट बैंक बनाने में सफल नहीं हो पाए.


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तीसरा, बिहार में दलितों की लामबंदी की ताकत का इस्तेमाल पिछड़ी जाति और वामपंथी दलों दोनों ने किया. 2004 के राष्ट्रीय चुनाव सर्वेक्षण में 50 प्रतिशत से अधिक दलितों ने लालू प्रसाद यादव को ‘गरीबों के मसीहा’ के तौर पर देखा. दबे-कुचले वर्ग को गरिमा प्रदान करने वाले मंच और अगड़ी जाति के जमींदारों के खिलाफ हमले वाली भाषणशैली ने 90 के दशक में दलितों को राष्ट्रीय जनता दल का एक अहम वोटबैंक बनाए रखा. यूपी में मुलायम सिंह यादव को संभवत: गरीबों या बहुजन की तुलना में सम्पन्न यादवों के नेता के तौर पर ज्यादा देखा गया, जिसने 90 के दशक के मध्य तक समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा के बीच वैचारिक बैरभाव को जन्म दिया. इसी तरह, नीतीश कुमार ने सामाजिक कल्याण और सुरक्षा के ठोस वादों के नाम पर महादलितों (दुसाधों को छोड़कर लगभग सभी) को अपने पक्ष में लामबंद किया. इसलिए, जैसा राजनीतिक विज्ञानी अमित आहूजा ने लिखा है, यूपी में जहां दलित मायावती को अपनी नेता के तौर पर देखते हैं, वहीं बिहार में उन्होंने पहले लालू और फिर नीतीश को अपने नेता के रूप में अपनाया.

चौथी बार पाला बदलना

वाम दलों ने 1980 के दशक के दौरान उच्च-जाति के जमींदारों के साथ हिंसक संघर्ष में मध्य बिहार के दलितों को सुरक्षा और शोषण के अंत के वादे के नाम पर लामबंद किया. खासतौर पर मध्य बिहार के दलित मजदूरों के समर्थन वाली भाकपा माले की राजनीतिक इकाई इंडियन पीपुल्स फ्रंट ने 1990 में अपने प्रत्याशियों वाले क्षेत्रों में 10 फीसदी से थोड़ा ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के साथ सात सीटें जीती थीं. यह उस समय उत्तर प्रदेश में बसपा की तुलना में बेहतर प्रदर्शन था.

हालांकि, 2000 का दशक शुरू होने के साथ ही वामपंथियों को दलितों का समर्थन घटने लगा. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बिहार में वामपंथी दल दो पाटों के बीच फंस गए थे; ग्रामीण इलाकों में भूमि स्वामित्व के मामले में मध्यम वर्ग की स्थिति जैसे-जैसे मजबूत होती गई, जमीन के मुद्दे पर ये व्यापक स्तर पर पिछड़े वर्ग के बीच अपना समर्थन गंवाते गए. और दलितों के मुद्दे पर प्रतिनिधित्व बढ़ाने में नाकाम रहे क्योंकि इन दलों में नेतृत्व की भूमिका अगड़ी जातियों और वर्चस्व रखने वाली पिछड़ी जातियों के हाथ में ही रही. इसके अलावा, यह भूमि सुधार के मुद्दे पर ही अटके रहे, जबकि जनता दल (यूनाइटेड) और राजद जैसे अन्य दलों ने विकास और सरकारी योजनाओं के नाम पर दलितों को अपने पक्ष में लामबंद किया, जैसा उत्तर प्रदेश में बसपा ने किया था.

बिहार में दलित राजनीति एक अभूतपूर्व मंथन के दौर से गुजर रही है और ये मतदान में क्या रुख अपनाते हैं उससे न केवल यह तय होगा कि अगली सरकार कौन बना सकता है, बल्कि यह बिहार में दलित वोटबैंक के रुझान में चौथी बार बड़ी लामबंदी की शुरुआत भी हो सकती है- पहली बार कांग्रेस से पाला बदलकर लेफ्ट और ओबीसी पार्टियों में जाना, दोबारा राजद के समर्थन में दलित वोट का ध्रुवीकरण, और तीसरा 2020 के पूर्व के एनडीए घटकों भाजपा, लोजपा और जदयू के पाले में जाना.

(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर), नई दिल्ली के साथ जुड़े हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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