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Saturday, 9 November, 2024
होममत-विमतदलितों के मुद्दों पर अगर रामविलास पासवान, मीरा कुमार और मायावती के बीच संवाद नहीं हुआ तो उसका कारण बिजनौर का चुनाव था

दलितों के मुद्दों पर अगर रामविलास पासवान, मीरा कुमार और मायावती के बीच संवाद नहीं हुआ तो उसका कारण बिजनौर का चुनाव था

जीवन में बाद के वर्षों में पासवान भले ही आरएसएस-भाजपा के साथ मिलकर सामाजिक न्याय विरोधी तमाम बड़े-बड़े कार्यों में सहभागी रहे हों लेकिन उनकी मूल रूप से छवि सामाजिक न्याय के योद्धा की ही रही.

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देश के सर्वाधिक चर्चित दलित नेता रामविलास पासवान अब नहीं रहे और देश-विदेश से सामाजिक न्याय के पक्षधर तमाम नेताओं और लोगों के शोक संदेश आ रहे हैं. जीवन में बाद के वर्षों में पासवान भले ही आरएसएस-भाजपा के साथ मिलकर सामाजिक न्याय विरोधी तमाम बड़े-बड़े कार्यों में सहभागी रहे हों लेकिन उनकी मूल रूप से छवि सामाजिक न्याय के योद्धा की ही रही. यही कारण है कि उनके तमाम विरोधी भी उन्हें सादर श्रद्धांजली दे रहे हैं.

देश की समकालीन राजनीति के वे सबसे बड़े और चर्चित नेताओं में शुमार रहे और उनकी तुलना बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती और कांग्रेस की मीरा कुमार से ही की जा सकती है. कमाल की बात यह रही कि ये तीनों ही नेता आपस में कभी बहुत करीब नहीं रहे.

राजनीतिक हालात में ये तीनों नेता कभी एक तरफ खड़े भले ही दिखे हों लेकिन इनके बीच के संबंध महज औपचारिक ही रहे और इन संबंधों में एक तनाव की छाया हमेशा से रही.

मीरा कुमार और पासवान तो एक ही राज्य, बिहार का प्रतिनिधित्व करते रहे लेकिन उनके क्षेत्र अलग-अलग रहे. वहीं मायावती का कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश रहा. नई पीढ़ी के लिए यह जानकारी चौंकाने वाली हो सकती है लेकिन यह सही है कि ये तीनों नेता एक चुनाव में आमने-सामने लड़े थे और तीनों के बीच उस चुनाव की तल्खी पूरी तरह से कभी खत्म नहीं हो सकी.

जिस चुनाव में रामविलास पासवान, मीरा कुमार और मायावती के खिलाफ लड़े थे, वो था 1985 का बिजनौर का उपचुनाव. कांग्रेस की मजबूत सीट रही बिजनौर पर 1977 में जनता पार्टी ने और 1980 में जनता पार्टी से अलग हुए चौधरी चरण सिंह के धड़े, जनता पार्टी सेकुलर ने जीत हासिल की थी लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पैदा हुई सहानुभूति की लहर में जब विपक्ष का सफाया हुआ तो बिजनौर सीट फिर से कांग्रेस के पास चली गई और चौधरी गिरधारी लाल विजयी हुए.

पूरे उत्तर प्रदेश में उस समय 85 सीटें थीं जिनमें से 83 पर कांग्रेस जीती थी, विपक्ष की तरफ से लोकदल को मात्र 2 सीटें मिली थीं. बड़े-बड़े धुरंधर हार गए थे. बिहार में भी उस समय की 54 सीटों में से कांग्रेस ने 48 सीटों पर भारी जीत हासिल की थी. हाजीपुर लोकसभा सीट से 1977 और 1980 में रिकॉर्ड मतों से जीतकर देश भर में चर्चा में आए रामविलास पासवान के पैर भी 1984 में उखड़ गए.


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इसी दौरान दलित राजनीति में एक बड़े घटनाक्रम के रूप में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की जिसे शुरुआती सफलता की तलाश थी.

विपक्ष के सामने चुनौती थी कि वो साबित करे कि 1984 में कांग्रेस को मिली भारी-भरकम सीटें उसकी जनकल्याण की नीतियों के प्रति जनता का समर्थन नहीं, बल्कि इंदिरा गांधी की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति की लहर का नतीजा थी. लोकदल ने ऐसे में हाजीपुर से हार चुके रामविलास पासवान को बिजनौर लोकसभा सीट के उपचुनाव में उतारने का फैसला किया. चौधरी चरण सिंह ने इससे पहले 1981 में अमेठी के उपचुनाव में भी राजीव गांधी के खिलाफ मध्य प्रदेश से शरद यादव को लड़ने भेजा था.

बिजनौर की सीट कांग्रेस के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी थी और उसने पूर्व उपप्रधानमंत्री की बेटी और भारतीय विदेश सेवा की अधिकारी मीरा कुमार को पार्टी में शामिल कराके बिजनौर से खड़ा कर दिया.

नवगठित पार्टी बीएसपी के नेता कांशीराम ने रणनीति बनाई थी कि जहां कहीं भी उपचुनाव हों वहां वे खुद चुनाव लड़ने पहुंच जाते थे और हारकर भी वहां पार्टी की जड़ें जमा आते थे.

1985 में जब चौधरी गिरधारी लाल के निधन के बाद, बिजनौर लोकसभा सीट खाली हुई और उस पर उपचुनाव हुआ तो कांशीराम ने एक और तेजतर्रार लड़की मायावती को खड़ा कर दिया, जो आगे चलकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और देश की बड़ी दलित नेता बनीं.

इस तरह से, तीन युवा दलित नेता बिजनौर में आमने-सामने खड़े हो गए जो आने वाले वर्षों में देश के महत्वपूर्ण नेताओं में शुमार हुए.

बहरहाल, चुनाव नतीजे आए तो कांग्रेस जीत तो गई लेकिन अपनी प्रतिष्ठा नहीं बचा सकी. मीरा कुमार बिजनौर लोकसभा सीट पर 1 लाख 28 हजार 86 मत पाकर दूसरे नंबर पर रहे लोकदल के रामविलास पासवान से केवल 5339 वोटों से जीत सकीं. पासवान को 1 लाख 22 हजार 747 वोट मिले थे. बीएसपी तो नई पार्टी थी, तो उसे जीत की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन मायावती ने 61,504 वोट लेकर अपनी ताकत दिखा दी थी और साथ ही संकेत दे दिए थे कि भविष्य में उनकी अनदेखी करना किसी के लिए भी नामुमकिन होगा.

एक तरह से देखा जाए, तो बिजनौर लोकसभा सीट का ये उपचुनाव इन तीनों दलित नेताओं के लिए फायदेमंद रहा लेकिन चुनाव की तल्खियां तीनों के बीच किसी न किसी रूप में कायम रहीं. आगे चलकर ऐसी कभी कोई सूरत नहीं बनी कि अलग-अलग दलों में होने के बावजूद इन तीनों नेताओं का आपस में टकराव हुआ हो लेकिन इन तीनों के बीच संबंध बहुत सहज कभी नहीं बन पाए.

अगर उस उपचुनाव में मायावती खड़ी न होतीं, तो निश्चित ही कांग्रेस की मीरा कुमार की हार हो जाती और लोकदल के रामविलास पासवान जीत जाते. तब शायद उनकी राजनीति का स्वरूप कुछ अलग होता लेकिन मायावती जैसा नेता पाने के लिए उत्तर प्रदेश को जरूर कुछ अधिक इंतजार करना पड़ जाता.

बिजनौर से तो 1989 में मायावती लोकसभा सांसद भी बनीं लेकिन बाद में उन्होंने भी बिजनौर छोड़ दिया, मीरा कुमार दिल्ली की करोलबाग और फिर अपने पिता की पुरानी सीट सासाराम से चुनाव लड़ने लगीं और रामविलास पासवान भी वापस बिहार में हाजीपुर या फिर रोसड़ा से चुनाव लड़ने लगे.

बिजनौर में एक दूसरे को टक्कर दे चुके तीनों ही नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभाई और मायावती तथा मीरा कुमार अब भी सक्रिय तथा प्रभावी हैं ही, जबकि पासवान भी निधन से कुछ महीनों पहले तक सक्रिय थे और केंद्रीय मंत्री भी थे लेकिन दलितों के मुद्दों पर भी तीनों के बीच बहुत ज्यादा संवाद या समर्थन कभी नहीं दिखा तो इसका कारण बिजनौर का ही वह उपचुनाव रहा.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार निजी है)


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