भारतीय राजनीति में हमेशा से जाति का विशेष महत्व रहा है. यह एक जमीनी सच्चाई भी है जिसे आप नकार नहीं सकते. इसलिए राजनीतिक पार्टियां जातीय वोटों के अलावा जातीय प्रतीकों तक को साधने में लगी रहती है. बीते चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और आम आदमी पार्टी (आप) ने अपने वोट के लिए इसे बखूबी इस्तेमाल किया है.
उत्तर प्रदेश समेत 4 राज्यों की सत्ता में हाल ही में वापसी करने वाली भाजपा और पंजाब में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली आम आदमी पार्टी की सफलता में बड़ी वजह दलित वोटों को माना जा रहा है.
उत्तर प्रदेश में जहां दलितों का वोट लगभग 22 प्रतिशत है तो वहीं पंजाब में दलितों की आबादी सबसे ज्यादा 32 प्रतिशत है. हालिया चुनाव से पहले सभी पार्टियों ने दलित मतदाताओं को रिझाने के लिए अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी.
पंजाब में चुनाव से ऐन पहले दलित मुख्यमंत्री देना हो या योगी आदित्यनाथ का दलितों के घरों में भोज के लिए जाना हो या अखिलेश यादव का दलित दीपावली मनाना हो, हर पार्टी ने चुनाव से पहले खुलकर दलितों को अपने पक्ष में रिझाने की कोशिश की. लेकिन उत्तर प्रदेश में जहां भाजपा ने 75 फीसदी रिज़र्व सीटें जीती हैं तो दूसरी तरफ पंजाब में आम आदमी पार्टी ने आरक्षित 34 सीटों में से 26 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया.
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गैर-जाटव वोट बैंक में सेंध
आम आदमी पार्टी ने जहां कांग्रेस के दलित मुख्यमंत्री, अकाली दल व बसपा के गठबंधन तक को धता बताते हुए दलितों को अपने साथ लाने में सफलता प्राप्त की तो यूपी में भाजपा ने चट्टान की तरह हमेशा बसपा के साथ रहने वाले उनके कोर वोटर जाटव समाज तक में सेंध लगा दी. गैर-जाटव दलित का वोट तो एकतरफा भाजपा ने अपने पाले में पहले से ही ला खड़ा किया था जिसने यूपी में मायावती के दलित वोट पर एकाधिकार के तिलिस्म को भी चकनाचूर कर दिया.
बसपा के कमजोर होने से दलितों के वोट पाने का रास्ता सभी पार्टियों के लिए अब खुल गया है जिसका फायदा भाजपा पूरी तरह से उठाना चाहती है. जहां बसपा इतनी बुरी पराजय के बाद भी चुनावी रिजल्ट के एक महीना बीतने के बाद अब तक मूर्छा से बाहर नहीं आयी है वहीं भाजपा ने दलितों को केंद्रित करते हुए अपनी आगे की रणनीति भी शुरू कर दी है.
बसपा जहां यूपी से बाहर भी एक मजबूत वोट बैंक रखती थी, यूपी चुनाव के बाद बेहद कमजोर व हताशा की स्थिति में है. इस साल के अंत में गुजरात जहां करीब 7 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश जहां 25 प्रतिशत दलित है, वहां चुनाव हैं और उसके बाद मध्य प्रदेश (15 प्रतिशत दलित), छत्तीसगढ़ (12 प्रतिशत दलित) और राजस्थान (17 प्रतिशत दलित) में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. इन सभी 5 राज्यों में दलित जातियों की अच्छी खासी आबादी है.
वैसे भी भाजपा किसी की आपदा में अवसर बनाने में माहिर है और इस चुनाव में दलित वोटों में सेंध लगाने वाली भाजपा यहीं रुकना नहीं चाहती. यूपी चुनाव में बसपा के गिरते जनाधार से जो उसकी कमजोर स्थिति हुई है, भाजपा उसका फायदा उठाकर दलितों को हमेशा के लिए अपने खेमे में करने का लक्ष्य बना चुकी है.
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दलित प्रतीकों पर दावेदारी
दलित वोटों के साथ ही दलित प्रतीकों पर दावेदारी करते हुए अरविंद केजरीवाल जहां आंबेडकर और भगत सिंह की विरासत का खुद को सच्चा दावेदार बताते हुए उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं और हर सरकारी दफ्तर में आंबेडकर की फोटो लगाने के आदेश दे रहे हैं. साथ ही दिल्ली सरकार ने आंबेडकर के जीवन संघर्ष के प्रोग्राम को लोगों को दिखाया और उसका प्रचार होर्डिंगों के माध्यम से पूरे दिल्ली, पंजाब में करना भी दलित वोटों को साधने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
भाजपा की तरफ से भी आंबेडकर की विरासत की जंग के संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के 42वें स्थापना दिवस के मौके पर दिए.
प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के स्थापना दिवस के मौके पर कार्यकर्ताओं से आह्वान करते हुए अगले 15 दिनों तक सामाजिक न्याय पखवाड़े की शुरुआत की. उन्होंने सभी पार्टी सांसदों को समाज के सभी वर्गों के साथ संवाद करने का निर्देश देते हुए कहा कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, असंगठित क्षेत्र के मजदूर, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समाज के बीच जाकर उनके साथ संवाद करें.
उन्होंने सांसदों को जनकल्याणकारी योजनाओं की जानकारी अनुसूचित जाति के लोगों तक पहुंचाने और उनका फीडबैक लेने को भी कहा. उन्होंने कहा की महात्मा ज्योतिबा फुले और बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती आने वाली है उन्हें याद करते हुए हमें सामाजिक न्याय पखवाड़ा मनाना चाहिए.
सवर्ण जातियों व शहरी क्षेत्र की पार्टी रही भाजपा अब पूरी तरीके से अपने बदले स्वरूप में है इसलिए खुद के पिछड़ी जाति के होने की बात कहकर पिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब दलितों को साधने में लगे हैं.
भाजपा की ये कोशिशें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के विराट हिंदू के सपनों को भी कहीं न कहीं मजबूत करती है इसलिए इन तमाम कोशिशों में आरएसएस भी पूरी तरीके से भाजपा के साथ खड़ा है.
यूपी चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी आक्रामक अंदाज़ में नज़र आ रहे हैं, चाहे बेबी रानी मौर्य को मंत्री बनाकर यूपी की राजनीती में सक्रिय करना हो या दलित मित्र के अभियान को आगे बढ़ाना हो, वो दलितों को साधने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते.
भाजपा की नज़र दलित वोट बैंक और दलित विरासत दोनों पर है. विनायक दामोदर सावरकर और आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के साथ आंबेडकर को लाने की बेचैनी उनमे साफ नज़र आती है.
सरदार पटेल से लेकर सुभाष चंद्र बोस तक की विरासत पर दावा ठोक चुकी भाजपा और आरएसएस दोनों ही आंबेडकर के महत्व को समझते हैं. दलितों को साथ जोड़ने के लिया आंबेडकर से बड़ा कोई प्रतीक नहीं हो सकता इसलिए भाजपा ने 14 अप्रैल को सार्वजनिक अवकाश घोषित कर एक लंबी लाइन खींचने की कोशिश की है.
भाजपा की ये सब कोशिशें धरातल तक पहुंच सकें इसलिए भाजपा के सभी नेताओं को आंबेडकर जयंती के दिन दलित बस्तियों में जाकर कार्यक्रम करने के आदेश दिए गए हैं. ये देखना दिलचस्प होगा कि विरासत की इस जंग में कौन सी पार्टी आगे निकलती है, फिलहाल तो राजनीतिक गलियारों में ये सब घटनाएं उत्सुकताओं का विषय बनी हुई हैं.
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और बहुजन आंदोलन के जानकर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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