2018 भारतीय इतिहास में दलित-बहुजन प्रतिवाद, प्रतिरोध और दावेदारी के वर्ष के रूप में दर्ज किया जाने वाला वर्ष है. आइए मुड़कर देखते हैं कि देश की इस विशाल आबादी के लिए ये साल कैसा रहा, उनके लिए कौन सी चुनौतियां और कैसी संभावनाएं हैं.
दशकों बाद हुआ ऐसा जोरदार भारत बंद
हाल के वर्षों में दलित आंदोलन के इतिहास की सबसे बड़ी घटना 2 अप्रैल का भारत बंद था. 2 अप्रैल को सड़को पर दलित-बहुजनों का जनसैलाब देखकर अधिकांश लोग भौचक थे. दलित और आदिवासियों के साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों में पिछड़ा या ओबीसी समुदाय मुखर और सक्रिय तौर पर इस बंद के साथ रहा. मुस्लिम समुदाय चुपचाप ही सही पूरी तरह इस बंद के साथ था. बंद के दौरान कई राज्यों में सवर्ण व बहुजन समुदाय के लोग भिड़ गए, कई जगहों पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं. बंद के दौरान विभन्न समुदायों के 12 लोग मारे गए. हजारों लोग जेल गए. इस देशव्यापी बंद का नेतृत्व कोई जाना-पहचाना राजनीतिक चेहरा नहीं कर रहा था. इसकी पहलकदमी सामाजिक कार्यकर्ताओं और दलित-बहुजन पत्रकारों और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स ने ली थी.
‘राष्ट्रीय मीडिया’ और ‘राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों’ के लोग भी हैरान थे. सभी के मन में यह सवाल गूंज रहा था कि आखिर वंचित समुदायों के मुद्दे पर ‘भारत बंद’ का इतने बड़े पैमाने पर आयोजन कैसे संभव हो सका? सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च के एक आदेश में एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) एक्ट, 1989 के तहत मुकदमा दर्ज करने और गिरफ्तारी करने पर कई प्रकार की बंदिशें लगाई थीं. कोर्ट के इस आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए केंद्र सरकार से अध्यादेश लाने की मांग करते हुए दलित-बहुजन समुदाय की ओर से 2 अप्रैल को ‘भारत बंद’ का आह्वान किया गया था.
भले ही दलित समुदायों के तात्कालिक आक्रोश का कारण एससी/एसटी एक्ट पर सर्वोच्च न्यायलय का निर्णय हो. इसकी लंबी पृष्ठभूमि भी थी. महाराष्ट्र के खैरलांजी में बलात्कार और हत्या की घटना के बाद से ही दलित बिना किसी संगठन या नेता की परवाह किए सड़क पर उतरने लगे. रोहित बेमुला, ऊना, शब्बीरपुर (सहारनपुर) और इलाहाबाद में दलित युवक की हत्या के बाद भी लोग सड़क पर उतर आये थे. हाल में उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षक पदों पर (व्यवहारिक तौर पर) आरक्षण खत्म करने संबंधित फैसलों ने इस आक्रोश-असंतोष को और बढ़ाया. इसके साथ हजारों वर्षों से संचित आक्रोश भी इसमें अभिव्यक्त हुआ. इतने बड़े पैमाने पर आधुनिक भारत में शायद ही कभी बहुजन उत्तर भारत में सड़को पर आये हों. आखिर सरकार को झुकना पड़ा. सरकार को संशोधन बिल लाकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटना पड़ा.
भीमा कोरेगांव में जुटान से हुई साल की शुरुआत
2 अप्रैल की पृष्ठभूमि का निर्माण 2018 की पहली 1 जनवरी को भीमा-कोरेगांव से ही शुरू हो गया था. याद दिलाते चलें कि 1 जनवरी 2018 को लाखों की संख्या में लोग कोरेगांव-भीमा में जुटे थे. इसमें दलित-बहुजन समुदाय के लोग और अन्य प्रगतिशील व्यक्ति शामिल थे. दलित-बहुजनों का यह जुटान ब्राह्मणवादी पेशवाई शासन के अंत के 200 वर्ष बीतने पर हुआ था. पेशवा की सेना को पराजित करने में अछूत कहे जाने वाले महार सैनिकों की निर्णायक भूमिका थी. 1 जनवरी 1818 को भीमा नदी के किनारे हुए इस युद्ध ने ब्राह्मणवादी पेशवाई का अन्त कर दिया था. इसके चलते दलित-बहुजनों और महिलाओं के लिए एक नए युग की शुरुआत हुई थी. 1927 में आंबेडकर कोरेगांव-भीमा गये थे और उन्होंने इस स्थल को दलित के शौर्य के स्थल के रूप में याद किया. असल में इसी वर्ष भीमा-कोरेगांव दलित-बहुजनों की मुक्ति का सांस्कृतिक स्थल बना.
संघ ने स्वीकार की संविधान की सर्वोच्चता
2018 में ही दलित-बहुजनों के प्रतिवाद,प्रतिरोध और दावेदारी के चलते कभी भी संविधान को न स्वीकार करने वाले संघ को संविधान को पूरी स्वीकार करने की घोषणा करनी पड़ी. यह घोषणा संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन( 17,18,19 सितंबर) में किया. संविधान को स्वीकार करने और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने की घोषणा संघ ने अपनी सदिच्छा के चलते नहीं किया है, ऐसा करने को उनको दलित-बहुजनों के संघर्ष और बढ़ती चेतना ने बाध्य किया.
दलित–बहुजनों (बीते कल के अतिशूद्र–शूद्र) को यह लगता है कि उन्हें जो अधिकार प्राप्त हुए हैं, वे संविधान के चलते ही प्राप्त हुए हैं और यह काफी हद तक सच भी है. औपचारिक–सैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर भी इस देश के दलित–बहुजनों को संविधान से ही एक हद तक समता और स्वतंत्रता मिली है. इसके अलावा आरक्षण और कुछ अन्य विशेष कानूनी संरक्षण संविधान के चलते ही मिला है. संघ द्वारा संविधान को स्वीकार न करने के चलते और पिछले चार वर्षों में संविधान के संबंध में संघ–भाजपा के लोगों के बयानों के चलते दलित–बहुजनों के एक बड़े हिस्से की यह राय बनती जा रही थी कि संघ संविधान को बदलना चाहता है और उसकी जगह मुनस्मृति को लागू करना चाहता है. दलित–बहुजनों द्वारा बड़े पैमाने पर संविधान बचाओ अभियान भी चलाया गया. जिसके परिणामस्वरूप संघ को संविधान को पूरी तरह स्वीकार करने की घोषणा करनी पड़ी.
दलितों-बहुजनों ने निभाई विपक्ष की भूमिका
सच्चाई तो यह है कि पूरे वर्ष विपक्ष की भूमिका सही अर्थों में किसी ने निभाई तो वे दलित-बहुजन थे. दलित-बहुनजों ने सड़कों पर उतरकर और इस दौरान हुए चुनावों में आक्रामक एकजुटता का परिचय देकर संघ-भाजपा को उन कदमों को उठाने के लिए भी बाध्य कर दिया, जो उनके कोर और मुखर समर्थक सवर्णों को भी नागवार गुजरा. एससी-एसटी एक्ट को मजबूत करने के साथ उच्च शिक्षा संस्थानों में विभाग के आधार पर नियुक्तियों पर रोक लगानी पड़ी. पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देना पड़ा. न्यायापालिक में आरक्षण के पक्ष में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद बार-बार बयान दे रहे हैं.
दलित-बहुजनों के मुखर होते स्वर ने देश की सभी राजनीतिक पार्टियों और संगठनों को गहरे स्तर पर प्रभावित किया. सबको अपनी रणनीति और कार्यनीति बदलनी पड़ी. फुले, आंबेडकर और पेरियार से किनारे कसने वाले वामपंथी संगठनों और पार्टियों को जय भीम, लाल सलाम का नारा स्वीकार करना बड़ा. नीले और लाल रंग के बीच एकता के बिना क्रांतिकारी बदलाव नहीं हो सकता. इस तथ्य को स्वीकार करना पड़ा.
तीन राज्यों के चुनावों में भाजपा की पराजय में दलित-बहुजनों के असंतोष और आक्रोश की निर्णायक भूमिका रही है. पिछड़ों को हमेशा हाशिए पर रखने वाली पार्टी कांग्रेस को तीनों राज्यों में बहुजन समाज से मुख्यमंत्री बनाने को बाध्य होना पड़ा.
इस सच से शायद ही कोई इंकार कर पाए कि 2018 में दलित-बहुजनों के प्रतिवाद, प्रतिरोध और दावेदारी ने इस समुदाय को भारतीय राजनीति और सामाजिक परिवर्तन के केंद्र में ला दिया है. इस वर्ष ने यह भी स्थापित किया कि दलित-बहुजनों को जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और बराबरी के प्रतिधिनित्व के नीचे कुछ भी स्वीकार नहीं है. भारत के भविष्य की दिशा तय करने में दलित-बहुजनों की दावेदारी का समय आ गया है.
(लेखक हिंदी साहित्य में पीएचडी हैं और फ़ॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)