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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतपत्रकारों को गाली देने से नहीं बदलेगा 1993 की घिनौनी साजिशों का इतिहास

पत्रकारों को गाली देने से नहीं बदलेगा 1993 की घिनौनी साजिशों का इतिहास

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यह कितना पैशाचिक है, यहाँ पढ़ें। सिलसिलेवार धमाकों के बाद शूरू होने वाले दंगों के लिए 71 एके, 500 ग्रेनेड और 3.5 टन आरडीएक्स को सुरक्षित स्थानों पर छिपाया गया था। अकेले बॉम्बे ने ही भारत को बचा लिया और आईएसआई को नाकाम कर दिया।

आपको याद होगा कि 26 नवंबर 2008 को केवल 10 एके राइफलों ने मुंबई में कितना आतंक मचाया था। लेकिन क्या आपको यह याद है कि 1993 में सिलसिले वार बम धमाकों के बाद मुंबई में कितनी एके राइफलें बरामद की गई थीं? हम इसमें उस राइफल की गिनती कर ही नहीं रहे हैं जो संजय दत्त के पास पाई गई थी और उनके दोस्त केरसी अदजानिया द्वारा उनके ढलाई कारखाने में नष्ट कर दी गई थी। खैर, सबूतों को मिटाने के कारण अदजानिया ने 80 की उम्र के मध्य में दो साल जेल में गुजारे।

ठीक है, आपने गूगल कर लिया। जी हाँ, 71 एके-47 राइफलें थीं। 1993 में यह 71 राइफलें कितनी तबाही मचा सकती थीं? आप गौर कीजिए कि 1993 में मुंबई (तब बॉम्बे) पुलिस के पास एक भी एके या ऐसी ही कोई और असाल्ट राइफल नहीं थी।

दूसरा, क्या आपको याद है कि इन विस्फोटों के बाद मुंबई में कितना आरडीएक्स बरामद हुआ था? यह 3.5 टन था। सही तरीके से नियोजित, जैसा कि आप आईएसआई प्रशिक्षित आतंकवादियों से ऐसा करने के लिए भरोसा करते, यह दक्षिण मुंबई में हर ऊंची इमारत या भारत की वित्तीय राजधानी, बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स को उड़ाने के लिए काफी था।

तीसरा, कितने ग्रेनेड बरामद किए गए थे? यह पूरे 500 थे। बॉम्बे पुलिस में किसी ने भी कभी एक ग्रेनेड फटते हुए तक नहीं देखा था।

चौथा, क्या आपको पता है कि बॉम्बे पुलिस ने कश्मीर और पंजाब के बाहर आईएसआई के पहले ऑपरेशन को क्यों असफल करार दिया था, भले ही इसने विस्फोट में 257 लोगों की जान ले ली थी।

इस साजिश को समझने के लिए, पहले इन तीनों घटनाओं को क्रम में रखिए।

6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद दंगों का पहला दौर शुरू हुआ था। पहले गुस्साए हुए मुसलमान सड़कों पर उतरे, लेकिन जल्द ही उनको शिव सैनिकों और बॉम्बे पुलिस के खुलेआम पक्षापातपूर्ण रवैये से खदेड़ दिया गया था। दिसंबर के तीसरे सप्ताह तक असहज शांति लौट आई थी।

दूसरा दौर जनवरी के पहले सप्ताह में शुरू हुआ। इससे पहले कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थी।

  • जनवरी के पहले सप्ताह में कोंकण तट के दीघी नामक स्थान पर हथियारों, गोला बारूद और आरडीएक्स की एक बड़ी खेप उतरी।
  • दंगों के दूसरे दौर में, पुलिस ने साजिश के एक पैटर्न की खोज की।

महाराष्ट्र के आंतरिक इलाके में सुबह तड़के अत्यधिक गरीब हिन्दुओं, मथाडी कामगारों के शव फुटपाथ पर पड़े पाए गए, जहाँ पर वह सोए थे, उनके सबके गले पर छोटे चाकू से काटने के निशान थे, जैसा कि उनको जिबाह किया गया हो। ये मुख्य रूप से, सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र डोंगरी के आसपास पाए गए थे। अनुमान था कि कोई दंगों को दोबारा भड़काने की कोशिश कर रहा था। यह साजिश सफल हुई और बॉम्बे फिर से सुलगने लगा। इस बार, यह मुस्लिमों के खिलाफ और भी एक-तरफा था।

  • ध्यान दीजिए कि उसी समय दीघी में हथियारों की डिलीवरी भी की जा रही थी और उन्हें “संवेदनशील” क्षेत्रों में वितरित किया जाना था। उदाहरण के लिए, दत्त को 16 जनवरी को हथियार मिला, जब दंगों का दूसरा दौर कमजोर पड़ रहा था। अतः पाकिस्तान से आने वाले हथियारों का सुरक्षा के लिए संवेदनशील स्थानों पर वितरण उन दंगों के दौरान “आत्मरक्षा” के लिए तो नही ही था। अब तक दंगे समाप्त हो चुके थे।

दूसरी खेप फरवरी के पहले सप्ताह में शेखदी में उतरी। जनवरी के मध्य से बॉम्बे में शांति थी। शेखदी में दूसरी खेप उतरने के पाँच सप्ताह बाद 12 मार्च को सिलसिले वार बम धमाके हुए।

पूरे देश को जलाने की साजिश

इन तिथियों और घटनाओं पर दृढता से ध्यान केंद्रित करें

मथाडी, जो आबादी में ज्यादा हैं, गरीब हैं लेकिन इनकी आबादी संगठित है, को संवेदनशील क्षेत्रों में दंगों को भड़काने के लिए मार दिया गया था| चूँकि अब शिवसेना वाले तैयार थे और उन्हें पक्षपाती पुलिस का समर्थन था, इसलिए इसने प्रतिशोध में बमबारी (मुसलमानों द्वारा) के लिए बड़ी तर्कसंगतता पैदा की| इसने आईएसआई के मास्टरमाइंडों को भी प्रेरित किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में उग्र और असुरक्षित स्थानीय मुस्लिम आबादी के भीतर पैदल सिपाहियों के रूप में वर्णित किया|

एक तरफा दंगों के दूसरे दौर के बाद बमबारी की योजना बनाई गई और संवेदनशील इलाकों में हथियार पहले से ही इकट्ठे करके रख लिए गये। साजिश सामान्य थी: बम विस्फोट पुलिस द्वारा अनुरक्षित घातक हिंदू गिरोहों को फिर से सक्रिय कर देंगे। और इनका स्वागत एके और हथगोलों द्वारा किया जाएगा, जिससे कुछ इतना भयानक होगा कि भारत जिसकी कभी कल्पना भी नहीं कर सकता। यदि कुछ सौ या हजारों लोगों को बॉम्बे में एके और हथगोलों द्वारा मौत के घाट उतारा जाता तो इसकी आग पूरे देश में फैल जाती|

मार्च 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, अपनी स्मृति को सुस्पष्ट करने के लिए, मैंने अप्रैल 1993 की हमारी कहानियां पढ़ीं और जांच से जुड़े कुछ प्रमुख लोगों से चर्चा भी की|

एम.एन. सिंह, जिन्होंने उस समय संयुक्त कमिश्नर (अपराध) के रूप में जांच का नेतृत्व किया था और जिन्हें आप अक्सर कैमरे पर सूझबूझ से बात करते हुए देखते हैं, याद करते हुए कहते हैं कि कैसे एक भयावह बॉम्बे ने प्रतिहिंसा चक्र को पुनर्जीवित करने की आईएसआई की अपेक्षाओं का साथ न देकर खुद को बचाया था 1993 में एक संवाददाता के रूप में षड्यंत्र की जांच करते समय मैं सिंह से वर्ली में समंदर के सामने उनके पुलिस हाउसिंग कोआपरेटिव अपार्टमेंट में मिला और माथाडियों के गले रेते जाने की कहानी सबसे पहले वहीं सुनी। मेरे प्रमुख सहयोगियों में से एक को इस कहानी पे संदेह था| इसलिए मैंने सिंह के तत्कालीन बॉस और महाराष्ट्र के डीजीपी एस. राममूर्ति से इस बात की पुष्टि के लिए मुलाकात की जिन्हें मैं इंटेलिजेंस ब्यूरो के दीर्घानुभवी के रूप में जाना जाता था। वह आईएसआई के तरीकों से ज्यादा परिचित थे और उन्होंने कहानी को प्रमाणित किया|

1993 से 2008 तक – मुंबई के लिए वही आईएसआई प्लेबुक

और कैसे उनकी पुलिस ने दो दिनों के भीतर मामले को सुलझा दिया था?

धमाकों के दौरान गैंगस्टरों का एक गिरोह एके और हथगोलों से भरी एक कार में विक्टोरिया टर्मिनस में बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) मुख्यालय की तरफ बढ़ा चला आ रहा था। यह सिर्फ उनकी किस्मत ही थी कि सेंचुरी बाजार का बम, जो सबसे बड़ा था, उसी समय फट गया जब वे वर्ली क्रासिंग पार ही कर रहे थे। वे भगदड़ में कार छोड़कर वहां से भाग गए। यह कार 7 एके राइफलों और हथगोलों के साथ बरामद की गयी थी। पुलिस को पता चला कि गाड़ी मेमन (टाइगर और याकूब) परिवार के नाम पर थी। मामले की गुत्थी सुलझ चुकी थी।

और कार बीएमसी मुख्यालय की तरफ क्यों जा रही थी?

सिंह मुझे बताते हैं आतंकवादी वहां इसलिए जा रहे थे क्योंकि उन्हें वहां बलपूर्वक प्रवेश करके अधिक से अधिक संख्या में पार्षदों (जिसमें से कई शिवसेना के) की हत्या करनी थी| यह संसद हमले से आठ साल पहले और 26/11 से 15 साल पहले की घटना है। इन तीनों घटनाओं में आईएसआई की एक ही जैसी प्लेबुक पर ध्यान दीजिए?

विस्फोट, पार्षदों का नरसंहार और फिर प्रतिशोधी हिन्दुओं और पुलिसकर्मियों की बड़े पैमाने पर हत्या, और एके राइफलों और ग्रेनेड्स को पहले से ठिकाने पर रखना| आपको तस्वीर समझ आई?

सिंह को आज भी एक खेद है| “16 जनवरी को हथियार संजय दत्त के पास पहुंचाए गये थे| उन्हें छुपाने के बजाय यदि उन्होंने सिर्फ अपने देशभक्त पिता को ही बता दिया होता, जो इसके तुरंत बाद हमें सूचित कर देते, तो हमने यह बमबारी रोक ली होती और कई जानें बच गयी होतीं|”

अब आप यह भी समझते हैं कि क्यों सिंह और उनके कई सहयोगी 1993 के बम विस्फोटों को वास्तव एक असफल ऑपरेशन के रूप में देखते हैं। इसने कई लोगों की हत्या कर दी, लेकिन यह पूरे भारत को आग के हवाले करने के अपने रणनीतिक उद्देश्य में असफल रहा। मैंने 2013 में फिर से राममूर्ति को बुलाया। वह संकरी सोहराब भरूचा रोड (कोलाबा कॉजवे से बाहर) पर उसी मामूली (एक पूर्व राज्य पुलिस प्रमुख के लिए) निजी अपार्टमेंट में रहते हैं, जहाँ मैं 1993 के मार्च माह के अंत में उनसे मिला था। बूढ़े पुलिस अधिकारी ने केवल यही कहा, “देखिए, इस बाम्बे पुलिस, चाहे आप इसे अच्छा, बुरा, दुष्ट कुछ भी कहें, ने आतंकवादी हमलों के हर मामले को तेजी से सुलझाया है।

भारत महाद्वीप में यह आईएसआई का न केवल पहला व्यापक ऑपरेशन था बल्कि आज तक का सबसे साहसी ऑपरेशन भी था। 26/11 की तुलना में यह अधिक महत्वाकांक्षी था। वास्तव में, इतना महत्वाकांक्षी और साहसी कि इसने भारत में अपनी सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति दाऊद इब्राहिम और उसकी अंडरवर्ल्ड आर्मी को खतरे में डाला। आईएसआई को पता होगा कि इसका परिणाम चाहे जो भी हो, उन सभी को यहाँ से पूरी तरह से भागना होगा और अपने खुद के देश में उनके लिए एक सुरक्षित शरणस्थल खोजना होगा। अब आप समझिये कि क्यों वे दाऊद और मेमन से प्यार करते हैं और उनकी रक्षा करते हैं। वे भारत में अपनी अब तक की सबसे भयानक और अमानवीय साजिश के कर्ताधर्ता थे। साथ ही, उन्हें बहुत अधिक जानकारी थी।

तब से आईएसआई पर मुंबई को लक्ष्य बनाने का जूनून सवार है। तब से बमबारी के कई मामलों में, 26/11 सहित, एक साधारण पैटर्न है: कई बम विस्फोट या हमले, लेकिन पहले प्रमुख जगह दक्षिण मुंबई में हमला, जिससे सरकार विचलित हो और फिर अन्य स्थानों पर हमले। यहां तक कि 26/11 में, एक टैक्सी में एक टाइम बम थोड़ी देर बाद फटने के लिए छोड़ा गया था जो एक पूरी तरह से भिन्न इलाके में भ्रम पैदा करता। यह आपको बताता है कि ‘मास्टरमाइंड’ उपकरणों और तरकीबों का उपयोग करने के बजाय 25 साल से एक ही सूत्र पर काम कर रहे हैं।

सबसे खतरनाक और सबसे पैशाचिक झूठ और आधा सच जो संजू आपको बताते हैं वह यह है कि बम विस्फोट टाइगर मेमन द्वारा किए गए थे क्योंकि दंगों में उसका कार्यालय जला दिया गया था। यह इतिहास का एक आपराधिक पुनर्लेखन है। मेमन लोगों की अपनी शिकायतें हो सकती थीं लेकिन वे दाउद के हाथों की कठपुतली थे। और दाउद आईएसआई की बड़ी संपत्ति|

इसमें दत्त की इसमें अप्रत्यक्ष भूमिका थी। हथियार रखने के लिए उनका घर एक सुरक्षित स्थान था। यह हो सकता है कि वह एक भोलेभाले बालक थे, जो अपने परिवार के लिए भयभीत थे। उन्होंने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि उनके पिता के पास पहले से ही तीन लाइसेंस-प्राप्त हथियार थे। उनकी नीयत पर शक करने के लिए हमारे पास कोई सबूत नहीं है। लेकिन एम. एन. सिंह का यह सवाल: कि क्या यह उन्होंने अपने पिता से बताया था?

जब राजकुमार हिरानी-विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म की शुरूआत राज ठाकरे को धन्यवाद देते हुए और पत्रकारों को गलियां देते हुए होती है|

आकर्षण, हास्य, हैगियोग्राफ़िक शैली का इतिहास, न कि सिनेमा, निश्चित रूप से निर्धारित नहीं करता है कि दत्त ‘सिस्टम’ और मीडिया का शिकार थे या फिर एक लाभार्थी| यह सच है कि टाडा की निचली अदालच ने उन्हें आतंकवाद के आरोपों से बरी कर दिया था। लेकिन यह अजीब है कि सीबीआई ने उच्च न्यायालय में इस पर अपील नहीं की। क्या किसी अन्य आतंकवादी आरोपी ने भी ऐसी उदारता प्राप्त की है? कभी नहीं, जब तक कि ‘सिस्टम’ और मीडिया उसे बचाने की, न कि उस पर निशाना साधने की, साजिश में संलिप्त न हो। उनके स्वर्गीय पिता, जो कांग्रेसी मंत्री और सांसद थे, ने सभी से मदद की गुहार लगाई थी यहाँ तक कि बालासाहेब ठाकरे से भी।

स्टार या स्टार निर्माता किसी को धन्यवाद-पत्र नहीं भेजते हैं। पत्रकारों को तो कोई भी नहीं भेजता। लेकिन दत्त की पीड़ा के लिए पत्रकारों को दोष देना चौंकाने वाला है और हेकड़ी के साथ एक बेईमानी है।

हमारी लोकप्रिय संस्कृति की गुणवत्ता के आधार पर अब भारतीय सिनेमा की स्थिति प्रतिबिंबित होती है। यह फिल्म हमारे दो सबसे प्रतिभाशाली और सफल फिल्म निर्माता, विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी द्वारा बनाई गई थी। इस फिल्म की शुरूआत राज ठाकरे को धन्यवाद देते हुए होती है तथा इसका अन्त संजय दत्त (वास्तविक व्यक्ति, रणबीर कपूर के संजू नहीं) के साथ होता है, जो पत्रकारों को संबोधित कर रहे होते हैं “तेरी माँ की …”

मुझे लगता है कि हम इसे प्रीतिकर समझते हैं।

जैसा कि कम से कम एक बहादुर आलोचक अन्ना वेटिकैड ने कहा कि यह संजय दत्त की सिर्फ एक सबसे ना-पाक नियत बायोपिक ही नहीं है| यह एक ऐसी फ़िल्म है जो आपको बॉलीवुड के अंदर की झलक देती है, और दिखती है की वहाँ क्या खराबियां है।

Read in English : Cutesy for Sanju to hurl ‘ma-behen ki’ at journalists. But it can’t rewrite evil 1993 plot

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