उन्हें बातें करना पसंद है. इसलिए वो बोलते हैं.
मैं और बहुत से दूसरे सैकड़ों लोग, जिन्होंने पिछले क़रीब 45 वर्षों में उनके साथ काम किया है, उन्होंने इन्हें बोलते सुना है, काफी विस्तार से, एक ही सांस में क्रिकेट की गुगली, एफ-15 लड़ाकू विमान के पेलोड, या बॉन्गबॉन्ग कहे जाने वाले एक मारकोस जैसे कई विषयों पर.
बल्कि, पूछने के लिए एक अच्छा सवाल है: क्या वो सांस लेने के लिए रुकते भी हैं, जब वो बाते बता रहे होते हैं या कह रहे होते हैं ?
शायद ये उनके बोलने का शौक़ ही है जिसकी वजह से, दिप्रिंट के प्रकाशक और एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता कम से कम भारत में, यूट्यूब पर किसी नायक से कम नहीं हैं.
अगर आप पूछें कि ऐसा क्यों, तो न तो आप जागे हुए हैं और न ही वीडियो पत्रकारिता की विस्तृत और अनोखी दुनिया से आपकी आंखें खुली है, जहां शेखर गुप्ता के व्याख्यात्मक वीडियोज़ को हर रोज़ औसतन 2 लाख से अधिक दर्शक देखते हैं, और कम से कम एक मौक़े पर इनकी संख्या 30 लाख तक पहुंचती देखी गई है.
ये है आपके लिए सीटीस- शेखर गुप्ता के साथ ‘Cut the Clutter’.
ये महीना, जिसमें हमारी वेबसाइट ने अपने पांच साल पूरे किए, उस प्रॉपर्टी पर चर्चा करने का अच्छा समय लगता है, जिसने दिप्रिंट को व्यापक रूप से लोकप्रिय बना दिया है. इसे दर्शकों/श्रोताओं की ओर से भी ख़ूब प्रतिक्रियाएं मिलती हैं- आपको जानकर हैरत होगी कि कितने लोग अपना रोज़मर्रा का व्यवसाय करते हुए, या आते-जाते हुए सीटीसी को ‘सुनते’ हैं.
हर महीने मुझे सीटीसी के बारे में ईमेल्स मिलते हैं, जिनमें ज़्यादातर प्रशंसात्मक लेकिन कुछ आलोचनात्मक भी होते हैं, और ये यूट्यूब के हर एपिसोड के नीचे की टिप्पणियों से ज़ाहिर है. दरअसल बात ये है: श्रोता बहुत ध्यान से सीटीसी को सुनते हैं. हमें ये इसलिए मालूम है क्योंकि लोग कभी कभी तथ्यात्मक ग़लतियां पकड़ लेते हैं, जिनके लिए शेखर गुप्ता ऑन एयर माफी मांग लेते हैं. एक एपिसोड में उन्होंने कहा, ‘आपमें से बहुत से लोग मुझसे स्मार्ट हैं, और आपने इसे पकड़ लिया’. सीटीसी की कामयाबी के पीछे ये एक बड़ा फैक्टर है- ग़लती को स्वीकार करने की तत्परता.
इसके अलावा, अगर आप यूट्यूब पर दर्शकों की फीडबैक पढ़ें, तो आप देखेंगे कि अकसर अलग -अलग लोग, जिनकी राजनीतिक धारणाएं भी विपरीत होती हैं, उनकी बातचीत भी सीटीसी से शुरू होती है.
अंग्रेज़ी और हिंदी माध्यम
‘Cut the Clutter’ 20 सितंबर 2018 को शुरू हुआ था. 30 अगस्त तक इसने अपने 1,066 एपिसोड्स पूरे कर लिए हैं. जब ये सीरीज़ शुरू हुई तो इसके हर एपिसोड में दो-तीन विषय कवर किए जाते थे, और फिर धीरे धीरे ये एक विषय पर आधारित हो गया. शो मुख्य रूप से अंग्रेज़ी में है लेकिन चूंकि शेखर गुप्ता हिंदी की पृष्ठभूमि से आते हैं- जिसकी जानकारी उन्होंने एक विशेष सीटीसी एपिसोड में दी- इसलिए वो अपनी सहयोगी अपूर्वा मंधानी के साथ हिंदी में एक साप्ताहिक सवाल-जवाब कार्यक्रम ‘हेडलाइन्स के पीछे शेखर के साथ’ करते हैं.
व्याख्या करने वाली रिपोर्टिंग
सीटीसी जैसी व्याख्यात्मक पत्रकारिता अब मीडिया में काफी प्रचलित हो गई है. सभी स्वाभिमानी मीडिया संगठन विभिन्न रूपों में समझायी गई रिपोर्टिंग मुहैया कराते हैं. ये पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं के बीच भी लोकप्रिय है, क्योंकि ख़बरों के वातावरण में, जो (ग़लत) जानकारी के सूत्रों से भरा रहता है, और जिसे सोशल मीडिया पर चल रहे तथ्य और दृष्टिकोण और जटिल बना देते हैं, लोगों को तथ्य को चालाकी से पेश की गई ख़बर/ से अलग करने की ज़रूरत होती है; उसे सभी क्षेत्रों में- जिनमें सैन्य मामलों से लेकर जलवायु परिवर्तन तक, जटिल विषयों के अर्थ और निहितार्थ समझने होते हैं और उन्हें प्रासंगिक बनाना होता है. और इसके लिए किसी ऐसे की ज़रूरत होती है, जो उनके लिए इसे सीधे और आसानी से सुलभ तरीके से कर सके.
और इसी के लिए सामने आता है ‘Cut the Clutter’. ये सामयिक घटनाक्रम को व्यवस्थित करता है और उसका विश्लेषण करता है- सामयिक विषयों पर एक तरह का रेडी रेकनर.
दिप्रिंट का ‘प्राइम टाइम’
चेतावनी: सीटीसी के विपरीत ये रीडर्स एडिटर राय से भरा है.
इसे लिखने से पहले, मैंने ऐसे लोगों का एक जन सर्वेक्षण किया, जिन्होंने सीटीसी को देखा है- उनके जवाब शो के बारे में वो आपसे सब कुछ कह देते हैं, मुझसे बेहतर.
सीटीसी को एक शब्द या एक वाक्य में समेटने के लिए कहने पर, सबसे आम जवाब था: ‘जानकारीपूर्ण’. उसके बाद कुछ मिले-जुले जवाब थे: ‘नज़रिए के साथ विश्लेषण’, वैश्विक मामलों को बेहतर ढंग से समझाता है’, ‘हर दिन मैं कुछ नया सीखता हूं’, ‘ये काफी दिलचस्प है’, ‘व्याख्या करता है’, ‘ज़रा लंबा है’, ‘दिन की ख़बर का व्यापक विश्लेषण करता है’, ‘लत लगा देता है’, ‘कल्ट हिट’, ‘हम्म’, ‘दिप्रिंट का प्राइम टाइम’, ‘बिना शोर के ख़बरें’, ‘विदेशी मामलों पर बहुत अधिक फोकस’, ‘उबाऊ’, ‘जटिलतम विषयों को स्पष्ट करता है’, ‘सरल और स्पष्ट बनाने वाला’, ‘स्पष्टता, गहराई’, ‘आकर्षक (हुह?) ’, ‘पैनी नज़र वाला’, ‘गहरा शोध’, ‘शिक्षात्मक’, ‘नए प्रारूप की ज़रूरत’, ‘ज़रा छोटा होना चाहिए’, ‘ठोस, सुसंगत, एकरूप’ (viva la alliteration!), ‘ये एक आदत है’, और ‘आख़िर में जीत शेखर की ही होती है’.
सीटीसी के अलावा, ये टिप्पणियां शेखर गुप्ता और उनकी रूचियों के बारे में भी बहुत कुछ कहती हैं: अंतर्राष्ट्रीय मामलात, विज्ञान, और सामरिक तथा रक्षा विषय, शासन और राजनीति. लेकिन सीटीसी दूसरे विषयों को भी कवर करता है: हर दिन, सप्ताह दर सप्ताह, शो जिन मुद्दों के कवर करता है उनकी चौड़ाई और विविधता- जो शुरू में सप्ताह में छह बार होता था और अब पांच बार होने लगा है- के लिए मेरी भतीजी का पसंदीदा शब्द है, ‘अदभुत्’. कोई भी सप्ताह उठा लीजिए और आपको पाकिस्तान की जलवायु आपदा, ज़िया-उल-हक़ के तख़्तापलट, और मिज़ोरम के राज्य स्थापना दिवस पर सीटीसी मिल जाएंगे.
जैसा कि मैंने कहा, सीटीसी कोई राय नहीं है, लेकिन ऐसे मौक़े भी आते हैं, जैसे कि बिलक़ीस बानो केस पर हालिया एपिसोड, जब गुप्ता ‘तटस्थ नहीं रहे’ बल्कि रेप के दोषी ठहराए गए 11 व्यक्तियों के गुजरात सरकार से सज़ा में छूट मिलने पर, उन्होंने अपने रुख़ का इज़हार किया.
एक चीज़ साफ हो जानी चाहिए: गुप्ता हर उस विषय पर एक्सपर्ट नहीं हैं जिसकी वो चर्चा करते हैं, लेकिन एक पत्रकार के तौर पर उनका अनुभव, जिसमें 45 वर्ष के अपने लंबे अनुभव के दौरान उन्होंने बहुत सारे विषयों को कवर किया है, सीटीसी का आधार है. इससे वो अतीत में जाकर क़िस्सों से जुड़े सबूत निकाल पाते हैं, जिससे किसी विषय को एक ऐतिहासिक नज़रिया मिलता है. बल्कि पत्रकार मिलिंद खांडेकर, जिन्होंने सबसे पहले सुझाव दिया था कि गुप्ता एक वीडियो शो करें, उन्होंने कहा कि शो को गुप्ता के अनुभवों का फायदा उठाना चाहिए.
सीटीसी तथ्यात्मक है, जो दिप्रिंट के युवा पत्रकारों और ख़ुद शेखर गुप्ता द्वारा की गई रिसर्च पर आधारित होता है. बाहरी विशेषज्ञों के तौर पर वरिष्ठ संपादकों से भी सलाह ली जाती है. गुप्ता को किसी भी विषय को पढ़ना और समझना पड़ता है, और उसकी बारीकियों को समझना होता है, चाहे वो वैज्ञानिक हो, क़ानूनी हो, आर्थिक हो, ऐतिहासिक हो, राजनीतिक या कोई भी दूसरा विषय हो. फिर उन्हें जटिल विषय को एक सरल रूप देना होता है, और उसे इस तरह से दर्शकों तक पहुंचाना होता है, कि वो उसे समझ जाएं और उससे बंधे रहें.
लेकिन कोई भी चीज़ गुप्ता को कोविड महामारी और वायरस की बारीकियों, जल्दबाज़ी में तैयार की गई वैक्सीन्स, या विभिन्न उपचारों के लिए तैयार नहीं कर सकती थी- वो विषय जिनपर सीटीसी में विस्तार से चर्चा की गई. बेशक इससे सहायता मिलती है कि गुप्ता चिकित्सा से जुड़ी चीज़ों में डॉक्टर की तरह दिलचस्पी रखते हैं. कोविड काल में सीटीसी ने अंगेज़ी और हिंदी दोनों में बहुत अच्छे शो किए- इसे कई बार ‘कट कोरोना क्लटर’ भी कहा गया.
वन टेक
जितना भी मैंने देखा है उससे पता चलता है, कि ये सिर्फ विषयों की रेंज या उनमें जाने वाली रिसर्च नहीं है जो दर्शकों को अपनी ओर खींचती है: सीटीसी की ख़ासियत इसका अंदाज़, इसकी कहानी कहने की कला है. ये देखने में आसान और ध्यान आकर्षित करने वाला शो है. किसी स्कूली छात्र से लेकर दादा-दादी तक, सब इसे देख या सुन सकते हैं.
वास्तव में सीटीसी में गुप्ता किसी परिवार के बुज़ुर्ग की तरह दिखते हैं: वो बेज़ुबान नहीं हो जाते, वो जानकारी को सरल करते हैं; वो भयभीत नहीं करते, वो आपके बहुत क़रीब लगते हैं, और हर चीज़ को धैर्य के साथ समझाते हैं, जिसमें बीच बीच में अपनी निजी यादों के साथ विषय से हट भी जाते हैं. 29 सितंबर 2021 के एपिसोड में, गुप्ता ने स्वीकार किया कि वो शायद ‘आपको बोर कर रहे हैं क्योंकि मैं अपने बारे में बहुत ज़्यादा बोल रहा हूं’.
मैं ग़लत हो सकती हूं लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा कोई एपिसोड नहीं है, जिसमें कोई निजी क़िस्सा, कोई मुहावरा, या किसी पुराने हिंदी फिल्म (कभी कभी हॉलीवुड) के गाने का ज़िक्र न हो. हां, दादी मां की कहानियों की तरह ये थोड़े लंबे हो सकते हैं, लेकिन ये सब सीटीसी की कामयाबी का एक अहम हिस्सा हैं. उनकी भाषा आम बोलचाल की होती है, और विचारों में स्पष्टता होती है. गुप्ता कैमरे और आपकी आंखों में आंखें डालकर देखते हैं, कैमरे से बात करने में सहज हैं, और इशारे बहुत करते हैं. मुझे वो थोड़ा ध्यान भटकाने वाला लगता है, लेकिन दूसरों को पसंद है, इसलिए ये बस अपनी अपनी राय की बात है.
सबसे ग़ौरतलब बात ये है कि गुप्ता कोई स्क्रिप्ट या टेलीप्रॉम्पटर इस्तेमाल नहीं करते, और मुश्किल से ही कभी दूसरा टेक होता है. ये बस एक्शन, रोल और ‘दि एंड’ होता है- शुरू से आख़िर तक एक टेक में. शायद यही वजह है कि ये उतना लंबा है जितना होना नहीं चाहिए- क़रीब 20-25 मिनट प्रति एपिसोड. गुप्ता कहते हैं कि 18 मिनट बिल्कुल सही होंगे, और मुझे भी वो लगभग सही लगता है.
तरकश में एक ही तीर?
ये एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि सीटीसी और शेखर गुप्ता के साप्ताहिक ‘नेशनल इंटरेस्ट’ कॉलम के बिना, जो प्रिंट और वीडियो दोनों में है- दिप्रिंट को कहीं कम तवज्जो मिलेगी. ये एक चिंताजनक बात है और दिप्रिंट को इसपर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. इसे पकड़ने के लिए दूसरे वीडियो कार्यक्रमों को क्या करना होगा? क्या दिप्रिंट को नए शोज़ की ज़रूरत है? क्या प्रोडक्शन मूल्यों को सुधारने की ज़रूरत है (ये सच है कि सीटीसी एक चुस्त प्रोडक्शन नहीं है)? जैसाकि फ्रांसीसी लोग कहते हैं, इसमें ऐसी किस चीज़ की कमी है, जिसे बयान नहीं किया जा सकता, जिससे दर्शक खिंचे चले आएंगे, जैसा सीटीसी करता है?
बेहतर ढंग से तैयार किए गए शोज़, जिनमें विज़ुअल इनपुट्स ज़्यादा हों, वेबसाइट और सोशल मीडिया पर बेहतर प्रोमो, और शायद सबसे अहम ये कि निश्चित दिन और समय स्थान- ये सब मिलकर निहायत फायदेमंद साबित होंगे, ख़ासकर दर्शकों के याद रखने के लिए. आपको पता होगा कि अगर आज मंगलवार है, तो फलां शो होगा. सीटीसी के साथ भी यही समस्या है: ये हर बार अलग अलग समय पर दिखाया जाता है.
लेकिन, किसी भी दूसरे शो की सीटीसी से तुलना करना उचित नहीं होगा. कहानी कहने का शेखर गुप्ता का अपना एक अलग, अनोखा अंदाज़ है, और उनकी कामयाबी को दोहराना लगभग नामुमकिन है. लेकिन दिप्रिंट के तरकश में केवल एक ही तीर नहीं है. इसमें और भी दूसरे शोज़ हैं जिनपर उसे गर्व है. हमें ये पता लगाने की ज़रूरत है कि और ज़्यादा उन्हें देखा और सुना कैसे जाए, और उनके बारे में और बातें कैसे की जाएं.
(ये विचार निजी हैं)
शैलजा बाजपई दिप्रिंट की रीडर्स एडिटर हैं. कृपया अपने विचार और शिकाय readers.editor@theprint.in पर लिखें
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: क्यों सोनिया-राहुल की कांग्रेस ने पतन की जो दौड़ 2004 में शुरू की थी उसे अब जीतने वाली है