जब खुद को गर्व-भाव से सेक्युलर बताने-जताने वाला बुद्धिजीवी हमारे वक्त में सोच-समझ की सेक्युलर रूढ़ियों को जोरदार चुनौती दे और ऐसी चुनौती के बावजूद जवाब में कहीं कोई आवाज न गूंजे तो तय जानिए कि सेक्युलरिज्म की नैया संकट के ऐसे गहरे भंवर में है जहां तक अभी हमारी कल्पना भी नहीं पहुंची. सेक्युलरवाद या तो अपनी ही सिकुड़ती खोल में हाथ-पांव समेटे लगातार अपने को तालाबंद रखने में एक आत्म-पीड़क इत्मीनान महसूस कर रहा है या फिर उसने अब मान लिया है कि हार हो चुकी है और इस हार से उबरना मुमकिन नहीं. या फिर, सेक्युलरवाद के साथ ये दोनों ही बातें सच हैं.
ऊपर जिस बुद्धिजीवी का जिक्र आया है, उन्हें आप जरूर ही जानते-पहचानते होंगे. मैं यहां सीएसडीएस यानि विकासशील समाज अध्ययन पीठ में कार्यरत अभय दुबे की बात कर रहा हूं और मानकर चल रहा हूं कि कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक अभय दुबे की कुछ रचनाएं आपकी नजरों से कभी न कभी जरूर गुजरी होंगी. अभय दुबे समाज विज्ञान को भारतीय भाषाओं में लाने-करने के पुरजोर हिमायती हैं और आप उन्हें अक्सर टेलिविजन के पर्दे पर भी राजनीति के रोजमर्रा पर टिप्पणी करता देखते-सुनते हैं. अभय किसी जमाने में कार्डधारी कम्युनिस्ट थे और लोग-बाग आज उन्हें बीजेपी की राजनीति की पुरजोर मुखालफत करने वाले आलोचक के रूप में ज्यादा जानते हैं.
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ऊपर जिस चुनौती की चर्चा से लेख की शुरुआत हुई है, वो चुनौती खड़ी हुई है अभय दुबे की नवीनतम कृति ‘हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ से. इस किताब का लोकार्पण सीएए-विरोधी आंदोलन के उरुज के दिनों में गुजरे 1 फरवरी को हुआ था. ‘हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ सेक्युलर नजरिए से सेक्युलरवाद की समीक्षा करती है और इस क्रम में भारतीय सेक्युलरवाद के कुछ सर्वाधिक सिद्ध समझे जाने वाले विश्वासों को प्रश्नविद्ध करती है. बड़े जतन, ब्यौरे और खूब तौल-परख के साथ लिखी गई इस किताब को सेक्युलर नजरिए से सेक्युलरवाद की समीक्षा की हिन्दी की पहली विस्तृत कृति करार दिया जा सकता है.
कोई और देश होता तो ऐसी किताब के आने के बाद उसमें उठाये गये सवालों के इर्द-गिर्द राजनीतिक बहस का तूफान उठ खड़ा हो जाता. प्रश्न-प्रतिप्रश्न और वाद-विवाद में लिखत-पढ़त का एक सिलसिला निकल पड़ता लेकिन, इस बात का क्या कीजिएगा कि किताब को छपे अब 6 महीने हो आये हैं लेकिन हमारे हिन्दुस्तान की हिन्दीपट्टी में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. इस किताब पर अभी तक एक भी गंभीर समीक्षा मेरी नजर से नहीं गुजरी.
किताब पर शुरुआती दौर में विशेष टीका-टिप्पणी का अभाव रहा तो इसकी एक बड़ी वजह खुद भाषा की बाधा हो सकती है. अभय दुबे हिन्दी में लिखते हैं बल्कि यों कहें कि गझिन हिन्दी में लिखते हैं (उनकी किताब को पढ़ते हुए मुझे एक-दो दफे डिक्शनरी उलटनी पड़ी). लेकिन, अभय दुबे का इसमें कोई दोष नहीं बशर्ते आप ये न मानकर चलें कि उन्हें उसी कद-काठी की हिन्दी लिखनी चाहिए जैसी कि अंग्रेजीदां अभिजन तबके के ‘बाबा’ और ‘बाबू’ लोग समझते हैं.
बहरहाल, अगर अभय की किताब के तर्क उन सेक्युलर बुद्धिजीवियों के कान तक टहलकर नहीं पहुंचे जिनके लिखत-पढ़त की उन्होंने आलोचना की है तो इसकी वजह को पहचान पाना मुश्किल नहीं. वजह वही है जिसे अभय ने अपनी किताब में रेखांकित किया है कि भारत के अंग्रेजीदां मध्यवर्ग की सेक्युलर-लिबरल विचारधारा और देश के शेष समाज के बीच सोच-समझ के धरातल पर एक खाई मौजूद है.
अभय की किताब पर कायम चुप्पी की एक गहरी वजह ये भी हो सकती है कि किताब में हमारा सामना कुछ असहज करने वाली सच्चाइयों से होता है. किताब को पढ़कर आप इस फैसले पर पहुंचे बिना नहीं रह सकते कि आज सेक्युलरवाद की परियोजना अपने ऐतिहासिक हार के मुकाम पर खड़ी है तो इसके लिए वह दोष का ठीकरा किसी और के मत्थे नहीं फोड़ सकती. ये सोचना तो खैर बेवकूफी है कि सेक्युलरवाद की परियोजना को कुछ चतुर-चालाक कुटिल सियासी चालबाजी के जरिये जमीन सूंघने की हालत में पहुंचा दिया गया है.
अभय की किताब बताती है कि सेक्युलर राजनीति की हार दरअसल सेक्युलर विचारधारा की हार है. इस विचारधारा ने अपने विरोधियों के तर्जे अदा को अपनाना शुरू किया, अपनी सेवा में अतीत के बारे में कुछ मिथक गढ़े और वर्तमान के बारे में बड़ी बंधी-बंधायी लीक पर सोचा. सेक्युलरवाद की विचारधारा का यकीन अपने पक्ष में खड़े उन योद्धाओं पर रहा जो अर्जुन की तरह अक्सर पसोपेश में रहे, सेक्युलर भारत बनाने की लड़ाई में सेक्युलरवाद ने उन साथियों से उम्मीद पाली जो दरअसल कहीं थे ही नहीं.
अभय दुबे की किताब हमें किसी आईने की तरफ साफ दिखाती है कि सेक्युलरवाद की हार निश्चित थी और इसकी जमीन सेक्युलरवाद ही ने तैयार की थी. हम उनके तर्क को खारिज नहीं कर सकते क्योंकि तर्क खरा और सच्चा है लेकिन, फिर ये तर्क पचाये भी नहीं पचता क्योंकि हम सोच-समझ की अपनी बंधी-बंधायी जिस दुनिया में रहने के आदी हैं, उसकी बनावट को अभय का तर्क छिन्न-भिन्न कर देता है.
अभय प्रशंसा के पात्र हैं जो उन्होंने ये कहने का साहस किया कि सेक्युलरवाद संघ-परिवार के बारे में बनायी गई अपनी भ्रांत धारणाओं के घेरे में रहा और यह घेरा उसके लिए दमघोंटू साबित हुआ. पश्चिम की ज्ञान-परंपरा में पगा वामावर्ती-उदारवादी-धर्मनिरपेक्ष अभिजन तबका अपनी अकड़ में हिन्दुत्व की विचारधारा की चली आ रही गहरी परंपरा को खारिज करता रहा और तर्क ये दिया जाता रहा कि हिन्दुत्व की विचारधारा तो धर्म से प्रेरणा ग्रहण करती है. अपनी अकड़ में सेक्युलरवाद के विचारक संघ-परिवार की बुनियादी तथ्यों को ठीक-ठीक न पहचान पाये. वे न देख पाये कि संघ-परिवार हिन्दू-धर्म के भीतर मौजूद समाज-सुधार की परंपरा को अपनी जमीन बनाकर चलता है, ये तथ्य पहचानने से दूर रहे कि संघ-परिवार तथाकथित नीची जातियों को अपने दायरे में लगातार समेटते जा रहा है और एक वजह ये भी है जो मुसलमानों को लगातार मुख्यधारा से बाहर करके चलने की उसकी रीत कामयाब हुई है.
अभिजन तबके के वामावर्ती-उदारवादी-सेक्युलर पंडित ये न देख पाये कि संघ-परिवार ने आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्र के बीच से अपने लिए कामयाबी के साथ राह निकाली है और संघ-प्रवर्तित सोच को ब्राह्मणवादी तथा फासिस्ट कहकर दुरदुराते रहने से दरअसल हम खुद को ही मुगालते में रखते हैं, हम हिन्दुत्व की विचारधारा के उभार के कारणों को जान ही नहीं पाते.
संघ-परिवार के रीति-नीति की बुनियादी बातों को लेकर भ्रम में रहने की इस स्थिति का रिश्ता भारत के अतीत और वर्तमान के सुविधाजनक और आत्म-तुष्ट पाठ गढ़ने की सेक्युलरवाद की रिवायत से है. किताब हमें बताती है कि सेक्युलर काट के इतिहासकारों ने कैसे खुद को और बाकियों को इस गलतफहमी में उलझाये रखा कि हिन्दू दरअसल अंकतालिका के खांचों में दर्ज एक बहुसंख्या का नाम है और हिन्दू लकब के भीतर जो ढेर सारी विविधताएं मिलती हैं वो इतनी प्रखर और मुखर हैं कि हिन्दुओं को एक छतरी के भीतर लामबंद करना मुमकिन ही नहीं.
इस सोच के कारण ये निठल्ला मगर लुभावना विचार बना रहा कि बहुलतावाद, सामासिक संस्कृति और लोकतांत्रिक राजनीति खुद को सुधारकर चलने की शक्ति बनी रहेगी और ये शक्ति हिन्दू बहुसंख्यकवाद के खतरों से बचाये रखेगी.
अभय दुबे अपनी किताब में हमें आगाह करते हैं कि भारत के अतीत और वर्तमान का ऐसा पाठ करना हमें इस ऐतिहासिक सच्चाई को स्वीकार करने से रोकता है कि ‘हिन्दू’ संज्ञा उपनिवेशवाद से बहुत पहले की है और तब के वक्त में इस संज्ञा के अर्थ उस जमाने के शासकों की मुस्लिम पहचान के बरक्स तय हुए और यह भी कि हिन्दुओं का एकीकरण एक लंबे समय से जारी ढांचागत प्रक्रिया की देन है जिसे आधुनिक समाज, आधुनिक कानून और आधुनिक प्रतिस्पर्धी राजनीति से बल मिला. इसी के नतीजे में हिन्दुत्व की विचारधारा तो लोगों के बीच सहज-सामान्य बोध बनकर उभरी लेकिन सेक्युलरवाद हिन्दू-विरोधी विचार मान लिया गया.
अचरज नहीं कि अतीत और वर्तमान के कुपाठ के कारण सेक्युलरवाद की राजनीति एक छोटे से दायरे में सिमटी रही. अभय दुबे इस क्रम में सेक्युलर राजनीति की प्रचलित कमजोरियों पर ध्यान दिलाते हैं, मसलन: अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हिफाजत पर ध्यान टिकाये रहना, अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता की मुखालफत में उसी तेवर और जुझारूपन के साथ न बोल पाना जिस तेवर और जुझारूपन के साथ बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता की मुखालफत की जाती है, सेक्युलर राजनीति के मान-मूल्यों पर चलने के मामले में कांग्रेस की असंगतियों और चूक की ज्यादातर अनदेखी करना.
अभय दुबे ने अपनी किताब में सेक्युलरी दायरे में प्रचलित कुछ अन्य सुविधाजनक विश्वासों और सहमतियों पर भी सवाल उठाये हैं, जैसे: ये मानकर चलना कि ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक क्रांति की आग बरसों से सुलग रही है और ये क्रांति बस हुआ चाहती है, ये सोच कि बहुसंख्यकवाद की काट ‘बहुजन’ की एकता से मुमकिन है या फिर ये मानकर चलना कि दलित-बहुजन हमेशा एकजुट रहेंगे.
जरूरी नहीं कि अभय दुबे के हर तर्क से आप सहमत हों या फिर उन्होंने जिन प्रसंगों के हवाले से अपनी बात रखी है उनकी ऐतिहासिक व्याख्या से आपकी सहमति हो लेकिन फिर भी आप ‘हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ की प्रशंसा करने से खुद को रोक नहीं सकते क्योंकि अभय दुबे ने अपनी किताब में सेक्युलरवाद की विचारधारा और उसके अमल से जुड़ी कमजोरियों की पहचान करने और उनसे टकराने का माद्दा दिखाया है और वह भी एक ऐसे वक्त में जब सेक्युलरवाद के लिए संकट की गहन घड़ी चल रही है.
अभय दुबे की किताब को सेक्युलरवाद की सिर्फ समीक्षा-परीक्षा तक सीमित करके देखना ठीक नहीं. उन्होंने वैकल्पिक रास्तों की पहचान की है लेकिन सेक्युलरी खेमे में मौजूद उन आवाजों पर उन्होंने सरसरी निगाह ही डाली है जिन्होंने सेक्युलर काट की सरलीकृत और तंग घेरे की राजनीति के बारे में आगाह किया था. अभय दुबे वैकल्पिक रास्तों की तलाश के लिए अपनी किताब में मुख्य रूप से इतिहासकार धर्मा कुमार, समाजशास्त्री सतीश सब्बरवाल, इम्तियाज अहमद और डी.एल शेठ और राजनीति विज्ञानी सुहास पलशीकर के विचारों को तथा अंशतया रजनी कोठारी तथा राजीव भार्गव के चिन्तन को आधार बनाया है. विकल्प का ये रास्ता सेक्युलरवाद से जुड़ी असहज करती सच्चाइयों के स्वीकार के लिए हमें तैयार करता है और ज्यादा बारीक समझ के साथ सफर पर निकलने को आमंत्रित करता है.
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ये किताब एक आह्वान भी है कि हम वैकल्पिक रास्ते की तलाश को और आगे ले जायें और ये देखें कि गांधी ने हिन्दू-मुस्लिम के सवाल को लेकर अपने मन में क्या समझ बनायी थी, राम मनोहर लोहिया और उनके अनुयायियों ने सेक्युलरवाद की राजनीति के प्रति क्या रुख अपनाया, इससे आगे बढ़ते हुए सेक्युलरवाद के वैकल्पिक रास्ते की तलाश में निर्मल वर्मा और धर्मपाल सरीखे चिन्तकों तक भी पहुंचने की जरूरत पड़ेगी जिन्हें बहुधा दक्षिणपंथी सोच के नजदीक मानकर देखने का चलन रहा है.
कोई ऐसी कोशिश करने चले तो बेशक उसे हिन्दुत्व का समर्थक न करार दिया जाये तो भी उस पर आरोप लग सकता है कि वो दरबारी विचार की पूंछ पकड़कर विचारों का सागर पार करने निकला है. लेखक को ऐसे आरोपों का भान है और ऐसे आरोपों का खयाल करके अभय दुबे ने अपनी किताब में जवाब के तौर पर लिखा है: ‘अगर ऐसा हुआ तो मैं इसे सार्वजनिक जीवन में सेक्युलरवाद और उदारतावाद की निरंतर पराजय के कारण पैदा हुई निराशा का परिणाम मानकर नजरअंदाज कर दूंगा.’ इस ऐतिहासिक पराजय से अपनापा कायम करने का एकमात्र रास्ता है कि हम सेक्युलरवाद की गलतियों को स्वीकार करना सीखें और गलतियों को सुधारने के काम पर लग जायें. आईए, उम्मीद करते हैं कि किताब पर कायम शुरुआती चुप्पी टूटेगी और किताब की स्थापनाओं को लेकर हिन्दुस्तान तथा हिन्दुस्तान की हिन्दीपट्टी में वाद-विवाद-संवाद का एक अटूट सिलसिला कायम होगा. किताब का अंग्रेजी अनुवाद शायद इस दिशा में एक जरूरी कदम साबित होगा.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)
अभय की किताब पर योगेंद्र जी के विचार सामायिक है ओर मेरे विचार से शायद आजादी के बाद किसी सेक्युलर बुद्धिजीवी की सेक्युलरिजम पर पहला ईमानदार विश्लेषण है
सेक्युलर वाद ओर वाम पंथ दोनों भारतीय दर्शन को पहचान ने में सरासर असफल रहे इसकी एक वजह मेरी नजर में ये रही की ये लोग खुद दिंदू दर्शन ,संस्कृति से अंग्रेज़ो ओर मुगलों से आगे रहे।वो दलितों को मुसलमानों को साथ लेकर एक अलग वृहत समुदाय बनाने की कोशिश में लग गए वो ये भूल गए की दलितों ओर मुसलमानों के बीच की दूरियां सवर्ण हिंदुओ ओर दलितों से ज्यादा है।ये लोग भूल जाते है कि दलितों के घर भी राम ,किशन की फोटो लगती है ओर दलित भी दिवाली होली मनाया करता है न की ईद।आर एस एस ने दोनों के बीच की दूरियां को धीरे धीरे भरा है। इन सेक्युलर वादियों सोच कभी भी ईमानदार सेक्युलर सोच थी ही नहीं इनकी सोच अल्पसंख्यक वाद की थी मुझे याद है 1979में अलीगढ़ में दंगे हुए थे मै उस समय एक छात्र नेता के रूप में हिन्दू समुदाय की ओर से ,दंगे की जांच करने आए जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष स्व चंद्रशेखर सें मिलने गए लेकिन तीन घंटे के बाद भी किसी हिन्दू पक्ष को मिलने नहीं दिया गया लेकिन इस बीच तीन मुस्लिम प्रतिनिधि मंडल चंद शेखर जी से मिल लिया था।एक 18वर्ष के युवक का पहला मोह भंग था
वामपंथियों का एक किस अपने विद्यार्थी जीवन का श्री इरफान हबीब हमे पदाया करते थे की जी टी रोड शेर शाह सूरी ने बनवाई थी किताबो में भी यही लिखा था ,हम भी यही मानते रहे बाद में मालूम हुआ की सड़क तो मोर्य काल में बनी थी सूरी नेसिर्फ उसकी मरम्मत कराई थी।यकीन मानिए ये छद्म सेक्युलरिजम समाप्त हो जाएगा ये अपनी मौत स्वम मरेगा ओर एक नया सेकयुलर वाद उभरेगा जो हिंदुत्व से ही निकलेगा
Yogendra Yadav ki Soch hmesha se antinational rhi h. Kashmir ke lakho hindu log ajtk refuses ki trh jee rhe h. Kabhi kuchh bola h esne. Gandi nali ka kida h e.