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Monday, 16 September, 2024
होममत-विमतगौरक्षक और ब्लासफेमी करने वाले हत्यारे एक जैसे हैं, दोनों ही ‘बड़े मकसद’ के लिए हिंसा को उचित ठहराते हैं

गौरक्षक और ब्लासफेमी करने वाले हत्यारे एक जैसे हैं, दोनों ही ‘बड़े मकसद’ के लिए हिंसा को उचित ठहराते हैं

जबकि गौरक्षकों द्वारा हिंसा का मुख्य लक्ष्य मुसलमान हैं, कड़वी सच्चाई यह है कि किसी की भी हत्या की जा सकती है.

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पश्चिम बंगाल के एक प्रवासी कूड़ा बीनने वाले की भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या, गोमांस ले जाने के संदेह में ट्रेन में बुजुर्ग मुस्लिम व्यक्ति पर हमला करने की खबर लोगों की यादों या खबरों से अभी तक फीकी भी नहीं पड़ी थी कि एक और भयावह घटना सामने आई. फरीदाबाद के 12वीं कक्षा के छात्र 19-वर्षीय आर्यन मिश्रा की गौरक्षकों ने हत्या कर दी. दरअसल, उस पर गौ तस्कर होने का शक था.

भारतीय राजनीतिक और धार्मिक इतिहास में गायों का महत्व ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से बहुत पहले से है. कहा जाता है कि मुगलों ने भी गायों के वध पर प्रतिबंध लगा दिया था और गौ रक्षा आंदोलनों ने 1882 में ‘गौरक्षिणी सभा’ की स्थापना शुरू की. हालांकि, उस समय से भारत में बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन गायों से जुड़ी भावनात्मक और सांस्कृतिक भावनाएं अभी भी गहराई से बसी हैं.

फरीदाबाद मामले में चौंकाने वाली बात यह है कि आरोपी गौरक्षक गौ तस्करी को रोकने के लिए काम कर रहे थे. यह एक बुनियादी सवाल उठाता है: नागरिकों को कानून को अपने हाथ में लेने के लिए रक्षक के रूप में काम करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? इससे भी ज्यादा चिंता वाली बात यह है कि उनमें कानून या परिणामों का कोई डर नहीं है. यह इसका संकेत है कि हम अपनी पुलिस व्यवस्था में व्यवस्थित सुधारों की तत्काल ज़रूरत को अनदेखा नहीं कर सकते.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता में कौन सी राजनीतिक पार्टी है, किसी भी सार्थक पुलिस सुधार को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की वास्तविक कमी दिखती है. समस्या का महत्वपूर्ण हिस्सा लोगों के न्याय देने की व्यवस्था की क्षमता के प्रति अविश्वास में है. राज्य को सबसे पहले यह स्वीकार करना चाहिए कि समानांतर ताकतें इस खाई को पाटने की कोशिशें कर रही हैं, ‘भावनाओं को ठेस पहुंचाने’ के कारण न्याय को अपने हाथों में ले रही हैं, लेकिन न्याय पर राज्य का एकाधिकार बना रहना चाहिए और इसे ऐसे ही बनाए रखने में राज्य की विफलता न केवल कानून और व्यवस्था की नींव को कमजोर करती है बल्कि इसके अधिकार को भी कमजोर करती है.


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हिंसा की प्रवृत्ति

जबकि इस तरह के गैर-सरकारी तत्वों को नियंत्रित करने में सिस्टम की विफलता को संबोधित किया जाना चाहिए, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि उन खतरनाक विचारों और विश्वासों पर चर्चा की जाए जो आम लोगों को हत्यारा बनाते हैं. कुछ व्यक्तियों का मानना ​​है कि कानूनी परिणाम पर्याप्त सज़ा नहीं हैं और हिंसा या यहां तक कि हत्या भी उनकी धार्मिक भावनाओं की रक्षा के लिए ज़ायज है.

उन्हें लगता है कि वो जो भी करते हैं उसके पीछे एक बड़ा मकसद है. यह तथाकथित “बड़े मकसद” संदर्भ के आधार पर भिन्न होता है — यह सम्मान, धर्म या अन्य गहरी जड़ें जमाए हुए विश्वास हो सकते हैं. हालांकि, इन सभी का इस्तेमाल हिंसा को सही ठहराने के लिए किया जाता है.

एक भारतीय मुसलमान द्वारा ईशनिंदा पर किसी की हत्या करना, एक सिख द्वारा बेअदबी (पवित्र ग्रंथ का अपमान) पर प्रतिक्रिया करना, या हिंदू गौरक्षकों द्वारा किसी की हत्या करना, ये सभी एक ही मानसिकता से प्रेरित हैं.

अब्राहमिक धर्मों और इंडिक धर्मों, विशेष रूप से हिंदू धर्म के बीच बुनियादी अंतर हैं. मैंने जो सीखा है, उसके अनुसार हिंदू धर्म अब्राहमिक धर्मों जितना संगठित या संरचित नहीं है. यह अधिक दर्शन-चालित है और इसमें ईशनिंदा की औपचारिक अवधारणा नहीं है. इस तरह आहत भावनाओं की प्रतिक्रिया सांस्कृतिक पहचान में निहित सामाजिक रीति-रिवाज़ों से आती है, न कि किसी सख्त धार्मिक सिद्धांत से.

लेकिन यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि कोई भी समुदाय, चाहे उसका धार्मिक ढांचा कुछ भी हो, धीरे-धीरे और व्यवस्थित रूप से हानिकारक विचारों को अपनाने में सक्षम है. हिंसा, असहिष्णुता और उग्रवाद के प्रति मानवीय झुकाव धर्म की सीमाओं से परे मौजूद है. ईशनिंदा जैसे औपचारिक सिद्धांत की अनुपस्थिति में भी, सांस्कृतिक और सामाजिक कारक नकारात्मक प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा दे सकते हैं और हानिकारक विचारधाराओं को अपनाने की ओर ले जा सकते हैं.

गौरक्षकों की स्वीकृति और उनकी हिंसा की वैधता उसी दिशा में बढ़ रही है, जबकि मुसलमान ऐसी हिंसा के मुख्य लक्ष्य हैं, कठोर वास्तविकता यह है कि किसी की भी हत्या की जा सकती है.

फरीदाबाद में गौरक्षक, जो अब एक ब्राह्मण की हत्या पर खेद जता रहे हैं परेशान करने वाले दोहरे मापदंड को दर्शाता है — दुख पीड़ित की पहचान पर निर्भर करता है. उनके बयानों से ऐसा लगता है कि अगर पीड़ित मुस्लिम होता तो नुकसान अधिक स्वीकार्य होता. यह विकृत तर्क उस मानसिकता के बारे में बहुत कुछ बताता है जो काम कर रही है, जो कुछ लोगों की ज़िंदगी को दूसरों की तुलना में अधिक महत्व देती है. यह हत्या इस बात की याद दिलाती है कि हिंसा, जिसे एक बार किसी उद्देश्य के नाम पर उचित ठहराया जाता है, आसानी से किसी को भी अपने जाल में फंसा सकती है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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