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Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतकोविड-19 ने भारत-पाकिस्तान को एक साझा दुश्मन से लड़ने और कश्मीर पर दुश्मनी त्यागने का मौका दिया है

कोविड-19 ने भारत-पाकिस्तान को एक साझा दुश्मन से लड़ने और कश्मीर पर दुश्मनी त्यागने का मौका दिया है

कोरोना महामारी की विकरालता ने इन दोनों देशों को लचीला रुख अपनाने की शालीनता दिखाते हुए अपने-अपने भावुक नागरिकों को एक समझौते की ओर ले जाने का अवसर दिया है.

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भारत और पाकिस्तान कोविड-19 की महामारी से अपने नागरिकों को बचाने की विकट लड़ाई लड़ रहे हैं. लेकिन यह संकट इन दोनों देशों को अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करने का भी मौका दे रहा है कि वे अपनी दुश्मनी को खत्म करने के लिए बातचीत शुरू करें. साथ ही, अपनी ‘अनसुलझी सीमा समस्या’ के मामले में ‘यथास्थिति बनाए रखने’ के समझौते तक पहुंच सकें.

दोनों देशों की स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा, आकार और गुणवत्ता के लिहाज से जिस तरह अपर्याप्त है उसके कारण यह महामारी उनकी गरीब आबादी पर कहर ढा सकती है. ऐसे संकट में भी अगर दोनों देश अपनी आदिम धारणाओं और कश्मीर पर अपने अधिकारबोध के चलते नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर तकरार में उलझे हैं तो यह चिंता की बात है.

गर्मी का मौसम शुरू होते ही जम्मू-कश्मीर में ‘मुहिम का मौसम’ भी शुरू हो गया है, पीर पंजाल पर्वतों के उत्तर-दक्षिण में युद्धविराम का उल्लंघन कई गुना बढ़ गया है. अप्रैल आते ही एलओसी पर तैनात फौजों के बीच ‘गोलीबारियों’ और घुसपैठिए आतंकवादियों से सीधी मुठभेड़ों के कारण दोनों तरफ मौतों की संख्या बढ़ गई है. दोनों देशों को पूरी दुनिया में युद्धबंदी के लिए फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों के आह्वान का पालन करना चाहिए. उनसे पहले संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनिओ गुटारेस भी इस तरह की अपील कर चुके हैं.

चार लड़ाइयां— 1947-48, 1965, 1971, 1999—लड़ने ,और जम्मू-कश्मीर में 30 साल तक तनातनी चलाने के बावजूद भारत या पाकिस्तान अपने-अपने राजनीतिक मकसद हासिल करने में विफल रहे हैं. फिलहाल वे दोनों जिस रणनीति पर चल रहे हैं उसके उलटे नतीजे ही मिल रहे हैं. इसलिए, सवाल यह उठता है कि क्या ये दोनों देश एक साझा दुश्मन— कोविड-19—से खतरे के मद्देनज़र अपने राजनीतिक लक्ष्यों और सैन्य रणनीतियों पर पुनर्विचार करेंगे और सुलह का रास्ता चुनेंगे ?

पाकिस्तान की दोषपूर्ण रणनीति

पाकिस्तान का राजनीतिक लक्ष्य कश्मीर को या उसके मुस्लिम बहुल इलाकों को अपने कब्जे में लेना और राष्ट्रों के समूह में भारत की बराबरी में आना है. चूंकि वह आर्थिक और सैन्य मामलों में भारत से काफी कमजोर है इसलिए वह अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए लोगों की कथित धारणाओं और मजहबी भावनाओं का फायदा उठाकर एक ऐसा छद्म युद्ध (चौथी पीढ़ी का युद्ध) लड़ रहा है जिसमें युद्ध और राजनीति के बीच फर्क को मिटा दिया जाता है. भारत की सैन्य बढ़त का मुक़ाबला करने के लिए पाकिस्तान अपने परमाणु हथियारों का डर दिखाता रहता है और 10-15 दिनों की छोटी लड़ाई की स्थिति में पारंपरिक सैन्य क्षमता के मामले में भारत के सामने डटे रहने के लायक बने रहने की कोशिश में जुटा रहता है.


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अफगानिस्तान में पूर्व सोवियत संघ जैसी महाशक्ति की हार और 20 साल बाद वहां अमेरिका की आसन्न पराजय के मद्देनज़र पाकिस्तान यह मान बैठा है कि उसने चौथी पीढ़ी के छद्म युद्ध में महारत हासिल कर ली है. लेकिन भारत के खिलाफ उसकी यह रणनीति जम्मू-कश्मीर में सफल नहीं हो पाई है.

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जो अपनी सीमाओं की रक्षा करता है और छद्म युद्ध को नाकाम करने के लिए जनोन्मुख कार्रवाइयां करता रहता है. पाकिस्तान के छद्म जिहादी आतंकवादियों ने अफगानिस्तान में पश्चिमी ताकतों की प्रतिकारी क्षमता को थका डाला. लेकिन भारतीय राज्यतंत्र और सेना की प्रतिकार क्षमता ने इससे उलटा ही किया है. गंभीर उकसावों के बावजूद भारतीय सेना ने अपनी आजमाई हुई रणनीति कभी छोड़ी नहीं.

पाकिस्तान गलत रणनीति अपनाता रहा है, जिसके चलते उसकी चरमराती अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ा है क्योंकि उसे एक सीमित युद्ध में हार से बचने के लिए भारत की तकनीकी एवं सैन्य ताकत की बराबरी करनी पड़ती है.

भारतीय रणनीति की सीमाएं

भारत की राजनीति बहुत सीधी-सी है— अपनी भौगोलिक अखंडता की रक्षा करना और अपने आंतरिक मामलों में दखल देने से पाकिस्तान को रोकना. पहले की सरकारों ने वार्ता के दरवाजे खुले रखे, लेकिन पिछले छह वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार इस स्पष्ट नीति पर चल रही है कि वार्ता और आतंकवाद साथ-साथ नहीं चल सकता.

भारतीय सेना अपनी भौगोलिक अखंडता की रक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है. पाकिस्तान उसे चुनौती देने की स्थिति में शायद ही है, यह इस बात से स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के कारण होने वाली हिंसा आज जितनी कम हो गई है उतनी पहले कभी नहीं रही. नव-राष्ट्रवादियों, विचारधारा से संचालित सरकार और मीडिया के एक बड़े तबके को छोड़ यह हिंसा अब खबर भी नहीं बन रही है.

भारत की रणनीतिक विफलता यह रही है कि वह अपने आंतरिक मामले, खासकर जम्मू-कश्मीर के मामले में पाकिस्तान को दखल देने से नहीं रोक पाई है. इसके अलावा, हम संकटग्रस्त घाटी का स्थायी हल खोजकर कश्मीरियों का दिल-दिमाग जीतने में विफल रहे हैं.

परमाणु हथियार पूर्ण पारंपरिक युद्ध को रोकते हैं, जिसमें भारत का पलड़ा भारी है. लेकिन हममें सैन्य तकनीक के मामले में वह बढ़त नहीं हासिल है कि हम युद्ध के करीब की स्थिति में कार्रवाइयां करके पाकिस्तान को बेबस कर दें. यह 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 में बालाकोट में झड़पों के दौरान स्पष्ट हो गया था. यह 10-15 दिनों के युद्ध के मामले में भी सच है. युद्ध में गतिरोध किसी भी बड़ी ताकत के लिए हार के समान ही होता है. समस्या इस बात से और बढ़ जाती है कि भारत की राष्ट्रीय प्राथमिकताएं हमें रक्षा बजट को मौजूदा स्तर से बड़ा करने की इजाजत नहीं देतीं, जब तक कि हमारा जीडीपी छलांग लगाकर 5 खरब डॉलर के आंकड़े को न छू ले. वास्तव में, पाकिस्तान के मामले में हमारी सुरक्षा रणनीति हमें उलटे परिणाम दे रही है.

कोरोना से उभरा मौका

ऐसे परिदृश्य में बेहतर यही होगा कि भारत और पाकिस्तान कोरोना महामारी को एक अवसर मान कर आपसी दुश्मनी खत्म करके अपनी अनसुलझी सीमा समस्या का ऐसा समाधान करने की पहल करें जैसा समझौता भारत और चीन के बीच हुआ है और जो 2017 में डोकलाम में 73 दिनों के गतिरोध जैसे गंभीर संकट के बावजूद कायम रहा. सीमा पार के आतंकवाद को रोकने का समझौता भी इस पहल में शामिल किया जा सकता है.


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कोरोना महामारी की विकरालता दोनों देशों को न केवल अपने कठोर पूर्वाग्रहों को शालीनता से छोड़ने का ही मौका देता है बल्कि इस विचार को अपनी भावुक आबादी और दूसरे दावेदारों के बीच भी मंजूर करवाने का मौका दे रहा है. ऐसा करते हुए उन्हें अपने आत्मतुष्ट नज़रिए को छोड़ने की भी जरूरत नहीं होगी. हमारे सामने प्रधानमंत्री मोदी का उदाहरण है, जिन्होंने इस महामारी से लड़ने के लिए सबका सहयोग लेने के वास्ते वीडियो कांफ्रेंस करके ‘सार्क’ को नया जीवन दिया.

हमारे पास ‘ऑपरेशन पराक्रम’ (2003-08) के बाद अपनाई गई ‘परोक्ष कूटनीति’ का भी उदाहरण है, जिसके कारण नवंबर 2009 में अलिखित युद्धविराम समझौता हुआ. एलओसी पर लगभग शांति ने हमें सीमा पर बाड़ लगाने और जम्मू-कश्मीर में बगावत की कमर तोड़ने में मदद पहुंचाई है. कश्मीर मसले के अंतिम समाधान के चार सूत्री फॉर्मूले ने उम्मीद की किरण भी दिखाई.

आज विचारधारा को लेकर पूर्वाग्रह पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति पर जिस तरह हावी है उसके कारण इस विचार को आसानी से खारिज किया जा सकता है. लेकिन व्यावहारिक राजनीति भावनाओं से नहीं बल्कि राष्ट्रहित से संचालित होती है.

(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिबुनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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