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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतकोविड 19 से निपटने के लिए मोदी सरकार गवर्नेंस के मोर्चे पर काम करने की जगह आत्म प्रचार में लगी है

कोविड 19 से निपटने के लिए मोदी सरकार गवर्नेंस के मोर्चे पर काम करने की जगह आत्म प्रचार में लगी है

एक सप्ताह के कोरोनावायरस लॉकडाउन ने साफ कर दिया है कि पीएम मोदी के लॉकडाउन के फैसले के बाद सोचने और योजना बनाने का काम शुरू हुआ.

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एक मुहावरा है ‘रायता फैलाना’ और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस मुहावरे से मुझे परिचित कराने का श्रेय कम से कम मेरे हिन्दी के शिक्षक को तो नहीं ही जाता. मुहावरे खूब घिसकर ही पाठ्यपुस्तकों में दाखिल होते हैं. दही और भात सानकर हाथ से खाने की कवायद से गुजरते हुए मुझे अक्सर इस मुहावरे का ध्यान आता है: दही को भात में मिलाकर हाथ से कौर उठाते हुए थाली में गड़बड़झाला इतना फैलता है कि बाद को उस गड़बड़झाला को संभालना मुश्किल हो जाता है. लॉकडाऊन का एक हफ्ता गुजर चुका है तो सरकार ने संकट को संभालने के मोर्चे पर जो कुछ किया है उसे समझने में ये मुहावरा मददगार हो सकता है. साफ दिख रहा है कि फैसले तो बड़े कठोर लिये गये लेकिन अमल के मोर्चे पर चूक ऐसी हुई कि उन कठोर फैसलों का फायदा हाथ में आने से रह गया.

प्रधानमंत्री की घोषणा को लेकर मेरी पहली प्रतिक्रिया समर्थन की रही और इस पर ज्यादातर लोगों को आश्चर्य हुआ.  मैं अब भी मानता हूं कि लॉकडाउन के फैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दोष देना उचित नहीं लेकिन इसका मतलब ये ना लगाया जाय कि हालात को देखते हुए लॉकडाउन ही एकमात्र रास्ता बचा था या फिर वही एकमात्र बेहतर विकल्प था. दरअसल, संकट की इस घड़ी में किसी को पता नहीं कि कौन-सा फैसला सबसे अच्छा है या फिर कौन-सा फैसला बाकी की तुलना में कम खराब साबित होने जा रहा है. हो सकता है, इतिहास के आईने में झांककर देखने में हम सब मूर्ख जान पड़ें. अगर वैश्विक स्तर पर चिकित्सा जगत के जाने-माने मंचों ने हामी भर दी है और दुनिया के ज्यादातर मुल्क एक खास लकीर पर अमल करते नजर आ रहे हैं तो फिर आप ऐसे किसी फैसले के लिए प्रधानमंत्री को दोष नहीं दे सकते.

दरअसल, प्रधानमंत्री ये फैसला नहीं लेते तो उनके आलोचक इस शोर से आसमान गूंजा देते कि जब सचमुच कुछ करने का वक्त आया है तो प्रधानमंत्री हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. स्थिति की मांग थी कि एक स्पष्ट, सुसंगत और सत्वर राजनीतिक निर्णय लिया जाय.

इसी तरह, पिछले एक हफ्ते में अगर कहीं कुछ गलत हुआ है तो इन तमाम गलतियों का दोष प्रधानमंत्री को देना ठीक नहीं. चूंकि फैसला बहुत बड़ा है इसलिए कुछ न कुछ कठिनाइयां तो पेश आनी ही हैं. सारी दुनिया में लोगों को अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अचानक सा ब्रेक लगता महसूस हो रहा है. वैसे भी अपना देश बहुत विशाल है और कई किस्म की जटिलताओं को अपने में समेटे हुए है तो विशाल आकार और उसमें समायी जटिलताओं को देखते हुए हमें ये मानकर भी चलना चाहिए कि कई मोर्चों पर भ्रम और अफरा-तफरी का माहौल भी कायम रहना है.

और फिर चूंकि फैसला बहुत बड़ा है और उस पर अमल के लिए विशाल अभियान चला है तो ऐसे में कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता कि अमल के मोर्चे पर क्या-क्या परेशानियां सामने आयेंगी. ऐसी स्थिति में किसी भी सरकार को ढेर सारी आलोचना झेलनी होती है चाहे फैसला कोई भी लिया गया हो और उस पर अमल चाहे जैसा हुआ हो.

फिर भी, इस सिलसिले में तीन सवाल पूछना जरूरी और उचित कहलाएगा: क्या सरकार ने लॉकडाउन का फैसला लेते वक्त उसके बारे में सोच-विचार किया था, जो मुश्किल एकदम ही संभावित दिख रही थीं उनको लेकर सोच-विचार हुआ था? क्या फैसले के बारे में लोगों को यथासंभव साफगोई से बताया गया? और, लॉकडाउन के बाद से हालात जैसे-जैसे रंग बदलते गये क्या सरकार ने उनको लेकर पूरी तत्परता और तालमेल बरतते हुए कदम उठाये? अफसोस! कि इन सारे सवालों का जवाब है- ‘ना, एकदम नहीं.’

‘पहले तालाबंदी’ फिर ‘जो होगा देखा जायेगा’

बेशक सरकार को जो भी फैसला लेना था, तुरंत-फुरंत लेना था उसके पास इतना इफरात वक्त नहीं था कि इत्मीनान से फैसला लिया जाता. लेकिन फिर ये भी देखना चाहिए कि कोविड-19 का पसारा वैसा तो नहीं है मानो ये कोई भूकंप हो जिसमें फैसला घटना के हो जाने के बाद लिया जाता है. भारत में लॉकडाऊन की घोषणा चीन के वुहान में लॉकडाउन घोषित होने के आठ हफ्ते बाद हुई. इसी तरह इटली के कुछ इलाकों में लॉकडाउन घोषित होने के चार हफ्ते और वहां राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन घोषित होने के दो हफ्ते बाद भारत में तालाबंदी का फैसला लिया गया [newslink]. इतना समय सोच-विचार करने और योजना बनाने के लिए पर्याप्त होता है.

अफसोस कहिए कि पिछले हफ्ते ऐसा कुछ होता नजर न आया जो लगे कि लॉकडाउन के फैसले के मद्देनजर कोई योजना भी बनायी गई थी. फसलों की कटाई का वक्त है तो आखिर कृषि (खेती के सामान. खेती बाड़ी के उपकरण और खेतिहर गतिविधियां) को लॉकडाउन के दौरान छूट वाली मूल सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया? असंगठित क्षेत्र के आप्रवासी मजदूरों के लिए कोई स्पष्ट योजना क्यों नहीं है? जो लोग लोक-कल्याण की किसी भी सुरक्षा-योजना के दायरे से बाहर हैं उन्हें सार्विक तौर पर राशन मुहैया कराने की घोषणा क्यों नहीं हो रही, क्या हम लोग भुखमरी से होने वाली मौतों का इंतजार कर रहे हैं कि ऐसी मौतें हों तो लोगों को राशन देने की सुविधा शुरू की जाय?

क्या किसी ने सोचा कि परिवहन व्यवस्था किस असंगत तरीके से बंद की गई है (पहले पैसेंजर ट्रेन्स को बंद किया गया फिर अंतर्राज्यीय आवागमन को रोका गया और फिर घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों पर रोक लगी)? क्या ये सोच पाना इतना कठिन था कि पूरी तरह से लॉकडाउन कर देने पर परिवहन व्यवस्था एकदम ठप पड़ जायेगी, आपूर्ति की कड़ी टूट जायेगी, जरूरी चीजों की किल्लत पैदा होगी और इस स्थिति में कालाबाजारी जोर पकड़ेगी? राहत के उपायों की घोषणा में इतनी देरी क्यों हुई?

आखिर ऐसा क्यों हुआ कि सरकार ने चार दिन व्यर्थ गंवाया और फिर जाकर घोषणा की कि कुछ विशेष शक्तिप्राप्त समूह बनाये जा रहे हैं जो लॉकडाउन को अमल में लायेंगे? आप इन सवालों को लेकर जितना अधिक सोचते जाते हैं आपके आगे ये स्पष्ट होते जाता है कि मसले पर सोच-विचार और योजना बनाने का काम बाद में शुरू हुआ, फैसला पहले ले लिया गया. ऐसे में अचरज की कोई बात नहीं कि ‘पहले फैसला लो’ फिर ‘जो होगा देखा जायेगा’ के इस तरीके पर चलने के कारण वो संकट और भी ज्यादा गहरा हुआ जिसके समाधान के लिए लॉकडाउन का फैसला लिया गया था. अभी की हालत में लगता तो यही है कि लॉकडाउन के फैसले से गरीबों के आगे जीविका का जो संकट आन खड़ा हुआ है उसके आगे कोविड-19 से पैदा जीवन और स्वास्थ्य का संकट ज्यादा भारी नहीं.

लॉकडाउन के ऐलान का तर्ज और तेवर

लॉकडाउन के बड़े फैसले का जिस ढंग से ऐलान हुआ उसे लेकर दो चीजें साफ नजर आ रही हैं: एक तो वो समय जब ये फैसला लिया गया और फिर वो तर्ज और तेवर जिसके जामे में ये फैसला सुनाया गया. आगे की स्थिति को सोचकर कोई योजना तो नहीं ही बनी थी, ये बात तो खैर स्पष्ट ही है. ऐसे में सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री ने आखिर लॉकडाउन घोषित करते वक्त देशवासियों को सिर्फ 4 घंटे की मोहलत क्यों दी? इसकी बस एक ही व्याख्या हो सकती है कि प्रधानमंत्री को 8 बजे रात को टेलीविजन पर आकर लोगों को सदमा और झटका देने की लत लग गई है.

यों प्रधानमंत्री बड़े सधे हुए वक्ता हैं लेकिन उनका राष्ट्र के नाम संदेश अपने आप में इस बात की मिसाल है कि स्वास्थ्य-आपातकाल जैसी स्थिति में लोगों को किस तरह संबोधित नहीं करना चाहिए. चुनौती की विकटता से लोगों को आगाह करने के लिए प्रधानमंत्री ने कुछ ज्यादा ही गंभीरता से काम लिया. उनका स्वर इस हद तक खबरदार करने वाला था कि शिक्षित-अशिक्षित हर किसी ने मान लिया कि कोरोना वैसा ही खतरनाक रोग है जैसे कि बड़ी चेचक, हैजा या प्लेग और इस सोच के साथ अब लोग-बाग बड़े डरे-सहमे रह रहे हैं.

जानकारियों के लिहाज से देखें तो प्रधानमंत्री के भाषण में सूचनाएं बहुत कम थीं और लोगों को आश्वस्त करने का भाव भी न के बराबर था. प्रधानमंत्री ने लोगों को ये नहीं बताया कि कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों के बीच मृत्यु दर 2 प्रतिशत या इससे भी कम है. उन्होंने ये नहीं बताया कि सरकार के स्तर पर क्या तैयारियां चल रही हैं न ही प्रधानमंत्री ने लोगों को मौजूद डॉक्टर्स और शोधकर्ताओं की गुणवत्ता को लेकर आश्वस्त करने वाली कोई बात कही. उन्होंने ऐसी कोई तफ्सील नहीं दी जो लोगों को पता चले कि कर्फ्यू सरीखे लॉकडाउन में किन चीजों की अनुमति रहेगी और इसके नतीजे में हुआ ये कि देर रात बाजारों में रेड पड़ी.

सबसे बुरा तो ये हुआ कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में आबादी के सबसे वंचित तबके के लोगों को ऐसा कुछ न कहा जिससे लगे कि सरकार उनके भोजन और अन्य बुनियादी जरूरतों की पूर्ति का ध्यान रखेगी. ऐसे में आप्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में पलायन को मजबूर हुए. प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में सार्वजनिक स्वास्थ्य के संकट को एक सामूहिक भयोन्माद में बदल दिया.

मेरा नहीं किसी और का जिम्मा

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन सरीखे अप्रत्याशित फैसले को देखते हुए राज्य से अपेक्षा की जायेगी कि वो अपनी तरफ से अभूतपूर्व सक्रियता भी दिखाये. कुंभ का मेला और चुनाव जैसे बड़े आयोजन कामयाबी के साथ करवाने वाली नौकरशाही के लिए ऐसी सक्रियता दिखाना कोई असंभव बात नहीं. लेकिन सरकार ने जमीनी सक्रियता दिखाने की जगह कानून-व्यवस्था के कोने से लोगों को अलग-थलग रखने की रीत अपनायी.

बाकी तमाम बातों को लेकर उसका रुख मुंह मोड़ लेने का रहा. प्रधानमंत्री ने केंद्र सरकार की शक्ति का उपयोग करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम का झटपट इस्तेमाल किया (और ऐसा करके ठीक किया) लेकिन फिर लॉकडाउन के कारण जो लोग बेचारगी की हालत में आ गये हैं उनके प्रति केंद्र सरकार के दायित्व के निर्वाह के मोर्चे पर प्रधानमंत्री जिम्मेदारी लेने से कन्नी काटते नजर आये. केंद्र सरकार अब भी आप्रवासी मजदूरों के जीवन-जीविका की जिम्मेवारी राज्यों पर थोपने की कोशिश में है. या फिर ये नजर आ रहा कि प्रधानमंत्री इस बाबत स्वयंसेवी संस्थाओं और नागरिक संगठनों की तरफ देख रहे हैं.

आपातकाल सरीखी इस स्थिति में सरकार संकट से निपटने में कम और अखबार-टेलीविजन की सुर्खियां अपने पक्ष में बनाये रखने के काम में ज्यादा जुटी दिख रही है. वित्तमंत्री का जोर जरूरतमंदों की मदद करने की जगह मनभावन गणित के सहारे मन-मुताबिक आंकड़े जुटाने और पेश करने पर ज्यादा है. कृषि मंत्री इस सच को छिपाने का बड़ा जतन कर रहे हैं कि सरकार के पास संकट की इस घड़ी में किसानों को देने के लिए कुछ भी नहीं है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का हाल तो ये हैं कि संकट के इस वक्त में प्रामाणिक सूचनाएं देने की जगह वो लोगों को टीवी सीरियल्स से दिल बहलाने की बात कह रहा है. मंत्रालय की कोशिश है कि इसी बहाने मीडिया पर उसका नियंत्रण और पुख्ता हो जाये.

खूब जतन से सरकार के शीर्ष पर एक महामानव के होने की छवि रची गई और इस रचाव के बीच अब न तो पार्टी में किसी का कद दिखता है और न ही सरकार में. एक व्यक्ति के दोष को पूरी व्यवस्था की कमजोरी मान लिया जाता है. राष्ट्रीय आपदा की इस घड़ी में पूरी व्यवस्था गवर्नेंस के मोर्चे पर काम करने की जगह आत्म प्रचार के काम में लगी है. आपदा को अंकुश में करने का ये तरीका खुद ही में एक आपदा है.

अभी जो कुछ चल रहा है उससे नोटबंदी के तुरंत बाद के दिनों की याद आना स्वाभाविक है. उस हिमालयी गलती के बावजूद नरेंद्र मोदी बेदाग बचे रहे. लेकिन याद रहे, एक मुहावरा ये भी है कि काठ की हांड़ी बार-बार आग पर नहीं चढ़ती.

और, मेरे हिन्दी के शिक्षक ने ये मुहावरा मुझे खूब अच्छे से समझाया था!

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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