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Wednesday, 18 December, 2024
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भारत के लिए औपचारिक अर्थव्यवस्था की ओर जाने का बड़ा मौका लेकर आया है कोविड-19 संकट

उद्योगों का कहना है कि अगर लॉकडाउन खत्म हो जाता है, तब भी तत्काल काम शुरू करना बहुत मुश्किल है क्योंकि मजदूर बड़ी संख्या में अपने घरों की ओर लौट गए हैं.

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कोविड-19 को फैलने से रोकने के लिए की गई सख्ती और लॉकडाउन ने मजदूरों का संकट बढ़ा दिया है. लेकिन ये संकट सिर्फ मजदूरों का नहीं है. उद्योग जगत भी चिंतित है कि उनके मजदूर अगर वापस नहीं लौटे, तो इसका उत्पादन पर किस तरह का असर होगा. कृषि क्षेत्र में मजदूरों की कमी महसूस की जा रही है, क्योंकि ये कटाई का मौसम है.

इस समय खासकर ऐसे श्रमिक ज्यादा परेशान हैं, जो निर्माण क्षेत्र, छोटे, मझोले उद्यमों (एमएसएमई) में काम करते हैं. सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक देशबंदी की घोषणा के बाद 5 से 6 लाख मजदूर पैदल ही घर से अपने पैतृक गांव पहुंच गए. बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर थे, जो 500 किलोमीटर से ज्यादा दूरी तक पैदल ही चल पड़े. इसे रिवर्स माइग्रेशन यानी उलटी दिशा में विस्थापन कहा जा रहा है.

अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में रोजगार ज्यादा

अनौपचारिक क्षेत्र में ज्यादातर एमएसएमई आते हैं. इन क्षेत्रों में लगे कामगारों की देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अहम भूमिका होती है. सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के तहत काम करने वाले केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक 2017-18 के दौरान कुल सकल मूल्यवर्धन (जीवीए) में एमएसएमई की हिस्सेदारी 31.8 प्रतिशत थी. वहीं वाणिज्यिक खुफिया और सांख्यिकी महानिदेशालय (डीजीसीआईएस) के आंकड़ों के मुताबिक 2018-19 के दौरान भारत के कुल निर्यात में एमएसएमई से जुड़े उत्पादों की हिस्सेदारी 48.10 प्रतिशत रही है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के आंकड़ों के मुताबिक गैर-कृषि एमएसएमई में करीब 11.10 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है.

इतनी बड़ी संख्या में एमएसएमई क्षेत्र में रोजगार पाने वाले कर्मचारी और मजदूर देशबंदी के दौरान भगदड़ और मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं. अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों की नौकरियां सुरक्षित नहीं होतीं और जरा-सी आर्थिक हलचल पर इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कामगारों को हटा दिया जा सकता है. अभी यह माना जा रहा है कि जो श्रमिक देशबंदी के दौरान परिवार के साथ अपनी गांव की ओर भागे, या अभी भी इंतजार कर रहे हैं कि सरकार उन्हें घर पहुंचाने का इंतजाम करे, उनमें ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं. वहीं कई लाख कामगार ऐसे हैं, जो ईपीएफओ जैसी सेवाओं का लाभ नहीं पाते और सरकार की ओर से दी जा रही कोई सामाजिक सुरक्षा उन्हें नहीं मिलती. उनकी चिंता एक महीने का वेतन रुकने के बाद शुरू होने वाला है.

इस क्षेत्र के कई लाख कामगार ऐसे हैं, जो ईपीएफ या सरकार की मेडिकल या बीमा सेवा का लाभ लेते हैं, लेकिन उनकी बड़े पैमाने पर वेतन कटौती हुई है, जिससे आने वाले दिनों में उनकी जिंदगी दूभर होने वाली है.


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औपचारिक अर्थव्यवस्था की ओर बढने की जरूरत

देश और विदेश के तमाम अर्थशास्त्री इन अनौपचारिक क्षेत्रों को विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का इंजन मानते हैं. वहीं तमाम अर्थशास्त्री ऐसे भी हैं, जिनका मानना है कि ऐसा सोचना गलत है और भारत को धीरे-धीरे औपचारिक अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने की जरूरत है. सरकारों का ज्यादातर जोर इस बात पर रहता है कि श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा और न्यूनतम वेतन मिले और इसी के मुताबिक नीतियां बनती हैं. कोरोना संकट के दौरान इस बंदी ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि अब ऐसी नीतियों की जरूरत है, जिससे कंपनियां औपचारिक अर्थव्यवस्था की ओर बढने से घबराएं नहीं और वे अपने कर्मचारियों को बेहतर वेतन, बेहतर सामाजिक सुरक्षा देने में सक्षम हों. सरकार इन क्षेत्रों पर श्रमिकों के उत्पीड़न का कानूनी डंडा न चलाकर ऐसे कानून बनाए, जिससे कि अनौपचारिक क्षेत्र के उद्योग औपचारिक क्षेत्र में शामिल हों और उनकी आर्थिक दशा ऐसी हो कि वह श्रमिकों को सम्मानजनक भुगतान करने की स्थिति में रहें.

श्रमिकों के बिना कैसे हो गुजारा

भारत में स्थिति यह है कि जब तक श्रमिक उद्योगों में या लोगों के घरों में काम करते हैं, तब तक किसी को श्रमिकों की चिंता नहीं होती है. पति-पत्नी दोनों मिलकर एक परिवार में तीन लाख रुपये महीने कमाने वाले भी अपनी काम वाली बाई को 14 घंटे साफ सफाई से लेकर बच्चों की देखभाल जैसे अहम काम के लिए 10,000 रुपये महीने देने में तकलीफ होती है. इतना ही नहीं, इस क्षेत्र में रोजगार पाने की प्रतिस्पर्धा के कारण काम वाली बाइयों को धमकियां भी मिलती हैं कि छुट्टी ली तो दूसरे को काम पर रख लेंगे. करीब यही हाल एमएसएमई क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का है. बहुत मामूली वेतन पर नौकरियां करने वालों को न तो छुट्टी मिलती है और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा होती है कि अगर उनकी तबीयत बिगड़ जाए या वे किसी संकट में पड़ जाएं तो किस तरीके से उनकी जिंदगी चलेगी.

महानगरों से हुई हाल में मजदूरों की भगदड़ के बाद अब नौकर रखने वाले संभ्रांत तबके से लेकर उद्योगों को मजदूरों की याद सताने लगी है. उद्योगों का कहना है कि अगर देशबंदी खत्म हो जाती है, तब भी तत्काल काम शुरू करना बहुत मुश्किल है क्योंकि मजदूर बड़ी संख्या में अपने घरों की ओर लौट गए हैं.

प्रवासी मजदूरों का सवाल

प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में इस बात की चर्चा तेजी से चली थी कि अब दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलूरु जैसे शहर पूरी तरह से संतृप्त या भर गए हैं. इन शहरों में रोजगार सृजन के लिए बुनियादी ढांचा अब नहीं बचा है. विशेषज्ञ यह अनुमान लगाने लगे थे कि लखनऊ, पटना, भोपाल जैसे शहरों में अब रियल एस्टेट से लेकर सेवा क्षेत्र का विकास होगा. छोटे शहरों को हवाईअड्डों से जोड़ने की योजना बन रही थी, जिससे इन शहरों में आवाजाही सुचारु हो सके और महानगरों की तमाम सुविधाएं उन जगहों तक पहुंचाई जा सकें.

बिहार जैसे राज्यों के विकास न होने के पीछे लैंडलॉक होने का तर्क दिया जाता है, जो आज की तारीख में जायज नहीं रह गया है. कच्चे माल का आयात और निर्यात करने के लिए भले ही समुद्री किनारों की जरूरत होती है, लेकिन अब आईटी और आईटीईएस जैसे क्षेत्र ऐसे हैं कि कहीं भी बैठकर किसी को भी सेवाएं प्रदान की जा सकती हैं. बिजनेस प्रॉसेस आउटसोर्सिंग (बीपीओ) सात समंदर पार लोगों को सेवाएं मुहैया करा रहे हैं.

आज के करीब डेढ़ दशक पहले थॉमस फ्रीडमैन ने किताब लिखी थी, द वर्ल्ड इज फ्लैट. पुस्तक में उन्होंने बताया था कि किस तरह बेंगलूरु में बैठे वित्तीय क्षेत्र के पेशेवर अमेरिका की कंपनियों की ऑडिटिंग करते हैं. इसी तरह से आईटी क्षेत्र में तकनीक इतनी आगे जा चुकी है कि बेंगलूरु या अमेरिका में कई सौ किलोमीटर दूर बैठे विशेषज्ञ आपके कंप्यूटर को ऑनलाइन अपने कब्जे में लेकर उसके सॉफ्टवेयर और ऑपरेटिंग सिस्टम दुरुस्त कर देते हैं.


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अब रिवर्स माइग्रेशन के बाद एक बार फिर इस पर विचार करने का वक्त आ गया है कि मजदूरों को रोजगार उनके पैतृक आवास से न्यूनतम दूरी पर मुहैया करा दी जाए. बहुत दूर तक होने वाला माइग्रेशन जहां व्यक्ति के व्यक्तित्व को व्यापक बनाता है, वहीं उसके साथ ढेरों समस्याएं जुड़ी हैं. यह विस्थापन तभी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक उन्नति लाता है, जब पेट की भूख मिटाने के लिए नहीं, बल्कि बेहतरी के लिए होता है. सरकार को अब इस बात की कवायद तेज करनी चाहिए कि अनौपचारिक क्षेत्र को खत्म नहीं किया जा सकता है तो कम से कम वह महानगरों से अनौपचारिक क्षेत्र खत्म करे और टियर-2 शहरों में अनौपचारिक क्षेत्र का विस्थापन कराए जिससे मजदूरों को कम विस्थापन पर रोजगार मिल सके और वह अपने परिवार से मानसिक समर्थन पाते रहें.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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