कोविड-19 महामारी से प्रभावी तरीके से निपटने में केन्द्र और राज्य सरकारों की विफलता के बाद न्यायपालिका द्वारा इससे संबंधित मुद्दों का स्वत: संज्ञान लिये जाने से एक बार फिर सवाल उठ रहा है कि आखिर कार्यपालिका और देश की नौकरशाही जनता के हितों से जुड़े मामलों में गंभीरता से कदम क्यों नहीं उठाती है? क्या वजह है कि प्रदूषण से लेकर सांप्रदायिक हिंसा, सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक संगठनों के अतिक्रमण, अस्पतालों में शवों का अनादर, अस्पतालों में अग्निकांड की बढ़ती घटनों और सामूहिक बलात्कार की घटना से व्याप्त तनाव से लेकर कोरोना महामारी जैसे मामलों में न्यायपालिका को दखल देना पड़ रहा है?
स्थिति यह हो गयी है कि देश की जनता अपने तमाम मौलिक अधिकारों की रक्षा और इससे जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिये न्यायपालिका की ओर टकटकी लगाये रहती है क्योंकि उसे अब यह लगने लगा है कि नौकरशाही उनकी परेशानियों के प्रति उदासीन ही रहेगी. इसकी एक वजह राजनीतिक आकाओं के साथ नौकरशाही के वर्ग की कथित सांठगांठ भी सकती है.
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‘मेडिकल का आपात काल’
कोरोना महामारी से उत्पन्न चुनौतियों के बीच अस्पतालों में आक्सीजन की कमी, दवाओं की कमी और बिस्तरों की कमी के साथ ही अस्पताल के बाहर दम तोड़ते मरीजों की स्थिति का कई उच्च न्यायालयों के साथ ही उच्चतम न्यायालय ने भी संज्ञान लिया है. न्यायपालिका ने इस मामले में केन्द्र सरकार के रवैये पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुये जहां इस स्थिति को ‘मेडिकल आपात काल’ बताया वहीं उसने ऑक्सीजन और दवाओं के मामले में केन्द्र सरकार से जवाब भी मांगे.
स्थिति यह हो गयी कि केन्द्र ने हाल ही में शीर्ष अदालत में दाखिल अपने हलफनामे में थोड़ा तल्ख अंदाज में कहा है कि किसी भी तरह का अतिउत्साही न्यायिक हस्तक्षेप के अनपेक्षित परिणाम भी हो सकते हैं.
केन्द्र ने अपने दो सौ पेज के हलफनामे में कोरोना से संबंधित टीकाकरण नीति को न्यायोचित ठहराते हुये कहा है कि उसकी रणनीति पूरी तरह से विशेषज्ञ चिकित्सीय और वैज्ञानिक राय पर आधारित है और इसमें न्यायिक हस्तक्षेप की गुंजाइश बेहद कम है.
महाराष्ट्र और गुजरात के कई अस्पतालों में कोरोना काल के दौरान ही अग्निकांड हुये जिनमें अनेक मरीजों की जान चली गयी. न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पीठ ने पिछले साल नवंबर में गुजरात के राजकोट में एक अस्पताल में हुये अग्निकांड की घटना का स्वत: संज्ञान लेते हुये केन्द को देश के सभी अस्पतालों में अग्नि सुरक्षा प्रबंधों का ऑडिट कराने का आदेश दिया था. लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.
इससे पहले, न्यायालय ने जून, 2020 में ही अस्पतालों में कोविड-19 के मरीजों का समुचित उपचार नहीं होने और इस महामारी में जान गंवाने वाले शवों के अनादर संबंधी समाचारों का भी स्वत: संज्ञान लिया था.
नदियों में बहते और घसीते जाते शव
दिल्ली से लेकर मुंबई तक के सरकारी अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित मरीजों के वार्ड में बिस्तरों पर शव रखे होने की घटनायें सामने आयी थीं जबकि पश्चिम बंगाल में लाश को घसीटे जाने का वीडियो क्लिप सुर्खियों में थीं.
ये घटनायें बता रही हैं कि सरकारी अस्पतालों में कोरोना संक्रमण से निबटने के लिये चल रहे संघर्ष में अग्रिम पंक्ति के योद्धा, चिकित्सक, स्वास्थ्यकर्मी और सहायक कर्मचारी, भी संवेदनहीन होते जा रहे हैं.
शीर्ष अदालत ने कहा था कि कोरोनावायरस महामारी के दौरान मृत देह के प्रति अनादर और मरीजो के साथ ही अस्पतालों के वार्ड में बिस्तरों पर शव रखे होना तथा शवगृहों में मृतकों के शव की अदला बदली की घटनायें हमारी जर्जर हो चुकी स्वास्थ्य सेवाओं और हमारी संवेदनहीनताओं को उजागर कर रही हैं.
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नौकरशाही को जगाती न्यायपालिका
उच्चतम न्यायालय ने करीब 25 साल पहले Pt. Parmanand Katara, Advocate v. Union of India,(पंडित पर्मानंद कटारा एडवोकेट वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया) (1995) अपने फैसले में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा और उचित व्यवहार का अधिकार सिर्फ जीवित व्यक्ति को ही नही बल्कि मृत्यु के बाद उसके पार्थिव शरीर को भी उपलब्ध है.
यही नहीं, शीर्ष अदालत ने 2002 में भी अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमा के अधिकार के बारे में एक अन्य फैसले में कहा था कि बेघर मृतकों को भी उनकी धार्मिक आस्था के अनुसार सम्मान पूर्वक तरीके अंतिम संस्कार का अधिकार है और यह सुनिश्चित करना शासन का दायित्व है.
इसके बावजूद, हाल ही देखा गया कि महाराष्ट्र में एक एम्बुलेंस में 20-22 कोरोना संक्रमित शव भर कर ले जाये जा रहे थे.वहीं, उत्तर प्रदेश, बिहार और अब मध्य प्रदेश में नदियों में शवों को प्रवाहित किये जाने की घटनायें सामने आने ली हैं. यही नहीं, उप्र के उन्नाव जिले में तो बड़ी संख्या में शवों को रेत के नीचे दबाये जाने की विस्मित करने वाली घटना भी सामने आयी है.
ये घटनायें ही बता रही हैं कि मृत देह को भी गरिमा और उचित सम्मान के मौलिक अधिकारों का शासन और प्रशासन किस तरह से रक्षा कर रहा है.
कुछ यही हाल सार्वजनिक भूमि पर धार्मिक स्थ्लों के अतिक्रमणों का है. पूरे देश में व्याप्त इस समस्या का अंतत: सबसे पहले गुजरात उच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लिया. इसके बाद केन्द्र सरकार इसे उच्चतम न्यायालय ले गयी.
अहमदाबाद के एक समाचार पत्र में अप्रैल, 2006 में प्रकाशित इस खबर का स्वत: संज्ञान लिया कि नगर पालिका की सड़कों को चौड़ा करने की कवायद में सार्वजनिक भूमि पर करीब 1200 मंदिरों और 260 इस्लामिक धार्मिक स्थल द्वारा अतिक्रमण बाधक बन रहे हैं.
उच्च न्यायालय ने मई, 2006 में Suo Motu vs State Of Gujarat And 31 Ors.(सूओ मोटो बनाम स्टेट ऑफ गुजरात एंड 31 अदर्स) प्रकरण में अपने आदेश में संबंधित प्राधिकारियों को बगैर किसी भेदभाव के इन अनधिकृत निर्माणों को हटाने का निर्देश दिया था.
मामले की संवेदनशीलता देखते हुये केन्द्र सरकार ने तत्काल इस आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी जहां यह मामला एक राज्य के जिले तक सीमित नहीं रहा और इसके दायरे में पूरा देश आ गया था.
इस मुद्दे के तूल पकड़ने पर शीर्ष अदालत ने भी सख्त रवैया अपनाया और Union Of India vs State Of Gujarat & Ors यूनियन ऑफ इंडिया बनाम स्टेट ऑफ गुजरात एंड अदर्स प्रकरण में 29 सितंबर, 2009 को अपने अंतरिम आदेश में कहा था कि अब मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या गिरजाघर आदेश के नाम पर सार्वजनिक मार्गो, पार्को या दूसरे सार्वजनिक स्थलों पर किसी को भी अनधिकृत निर्माण की इजाजत नहीं होगी.
देश में जब कोविड-19 की वजह से पहली बार पिछले साल लॉकडाउन घोषित किये जाने के बाद महानगरों ने बड़ी संख्या में कामगारों के अपने अपने राज्य और गृह नगर पलायन के दौरान उनकी दयनीय स्थिति का शीर्ष अदालत ने स्वत: संज्ञान लिया था.
न्यायालय ने IN RE : PROBLEMS AND MISERIES OF MIGRANT LABOURERS (प्रोबल्मस एंड मिसरीज ऑफ माइग्रेंट लेबरर्स) में केन्द्र और राज्य सरकारों को इन कामगारों के लिये खाने पीने और ठहरने के साथ ही उनके सकुशल अपने अपने गृह नगर पहुंचने की ट्रेन से व्यवस्था करने के निर्देश दिये.
एक बार फिर कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन और वैक्सीन सहित जीवन रक्षक दवाओं की कमी के संकट को देखते हुये शीर्ष अदालत ने स्वत: ही इसका संज्ञान लिया है और उसने केन्द्र सरकार को आड़े हाथ ही नहीं लिया बल्कि उसकी कार्यशैली को देखते हुये चिकित्सकों का एक राष्ट्रीय कार्यबल गठित कर दिया है ताकि उसे वस्तुस्थिति का पता चल सके.
ये तमाम घटनायें इस बात का संकेत देती हैं कि न्यायपालिका का चाबुक चले बगैर कार्यपालिका और नौकरशाही गंभीर समस्याओं के मामले में भी सक्रिय नहीं होती है और इस वजह से निरीह जनता को तमाम परेशानियों से रूबरू होना पड़ता है.
हर बार यही उम्मीद की जाती है कि न्यायपालिका के हस्तक्षेप और उसकी सख्त टिप्पणियों के बाद कार्यपालिका और नौकरशाही की कार्यशैली में सुधार होगा लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.
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