राम मन्दिर निर्माण के पक्ष में आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद अपने ऊपर से बला टलने जैसा महसूस कर रही अयोध्या क्या जल्दी ही नये उद्वेलनों की शिकार होने वाली है? जमीनी हकीकतों के लिहाज से इस सवाल का जवाब है- हां. लेकिन नये उद्वेलन धार्मिक के बजाय सामाजिक होंगे और उनका एक बड़ा कारण लोगों के विस्थापन से जुड़ा हुआ होगा. उस विस्थापन से, जो ‘अयोध्या के नाम के अनुरूप’ विकास का सपना पूरा करने के लिए ‘भगवान राम की नगरी’ पर थोपा जा रहा है.
यकीनन, इन उद्वेलनों का एक सिरा राम मन्दिर निर्माण के लिए ट्रस्ट के गठन की सरकारी कवायदों तक भी पहुंचेगा. क्योंकि उक्त ट्रस्ट में जगह पाने की संतों-महंतों की महत्वाकांक्षा कुछ ज्यादा ही उछाल मारने लगी है. लेकिन अभी ज्यादातर सिरे ‘अयोध्या के विश्वस्तरीय पर्यटन विकास’ और ब्रांडिंग के कारपोरेटी सपनों से ही जुड़ रहे हैं. ये सपने जहां कुछ लोगों को बेहद हसीन व रंगीन नज़र आ रहे हैं, अन्य लोगों को उनके साकार होने की संभावनाएं भी डरावनी लग रही है.
देश का इतिहास गवाह है कि ऐसे असंतुलित विकास के सपने, वे अयोध्या में देखे जायें या कहीं और, समाज के निचले तबकों के लिए दुःस्वप्न ही सिद्ध होते रहे हैं. स्वाभाविक ही कस्बाई जीवन के अभ्यस्त अयोध्या के निचले तबकों के लोगों में आशंका घर कर रही है कि विकास के बहाने अयोध्या का अंधाधुंध कारपोरेटीकरण हुआ तो उनका पहले से ही कठिन जीवन और कठिन हो जायेगा और वे ‘दांतों आ जायेगा पसीना’ की नियति से साक्षात्कार को अभिशप्त हो जायेंगे.
यह आशंका सर्वथा अकारण भी नहीं है. अयोध्या के कारपोरेटीकरण के लाभों पर नज़रें गड़ाये बैठे वर्गों के सपने भौचक करके रख देने वाले अंदाज़ में बहुरंगी होकर इन्हें मज़बूत आधार प्रदान कर रहे हैं. इसे यों समझा जा सकता है कि देश-विदेश के कई थैलीशाह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के फौरन बाद से ही भविष्य की संभावनाएं पढ़कर अयोध्या में बड़े पैमाने पर भूमि खरीदने के लिए सक्रिय हो उठे हैं. इसके लिए उन्हें भू-माफियाओं की शरण गहने से भी परहेज नहीं है. परिणामस्वरूप अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्र में भूमि के दाम आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रहे हैं और बहुत संभव है कि जल्दी ही वे आम आदमी की पहुंच से ऊपर उठ जायें.
इस कारण और भी कि प्रस्तावित सरकारी ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ के तहत अपरिहार्य भूमि अधिग्रहण भी भूमि की उपलब्धता घटायेगा ही घटायेगा. अभी भगवान राम की विशाल प्रतिमा की स्थापना के लिए भूमि अधिग्रहण का विवाद हाईकोर्ट की देहरी तक जाकर जैसे-तैसे निपटा है जबकि रेलवे स्टेशन के ‘गरिमापूर्ण’ विस्तार और एयरपोर्ट वगैरह के सिलसिले में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया सामान्य भूमि व भवन स्वामियों के लिए चिंता का सबब बनी हुई है. इसको लेकर ‘हारे को हरिनाम’ की तर्ज पर मांग उठाई जा रही है कि रेलवे स्टेशन के विस्तार की दिशा अयोध्या की आबादी की ओर न होकर उसकी विपरीत दिशा में हो, ताकि उससे कम से कम लोगों को विस्थापन झेलना पड़े. हालांकि यह मांग करने वालों की सुनी जायेगी, इसकी उम्मीद नहीं दिखती.
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सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार प्रदेश सरकार को सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद निर्माण के लिए भी अयोध्या के किसी प्रमुख स्थान पर पांच एकड़ भूमि का प्रबंध करना है. तिस पर यह चर्चा केन्द्र सरकार द्वारा पहले से अधिग्रहीत भूमि परिसर के आसपास के निवासियों में खलबली मचाये हुए है कि राम मन्दिर का निर्माण शुरू होने पर उसकी भव्यता या उससे जुड़ी नागरिक सुविधाओं के लिए अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता महसूस की गई तो उसका सरकारी या कारपोरेटी कहर उन पर ही टूटेगा. यानी स्वेच्छा से हो या अनिच्छा से, उन्हें अपना घर-बार व भूमि छोड़कर वहां से बाहर का रास्ता देखना ही पड़ेगा. अलबत्ता, कई महानुभाव यह भी कह रहे हैं कि ऐसा हुआ तो कीमत या मुआवजा ‘भरपूर’ मिलेगा.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. अब मयखानों के अलम्बरदार भी इस धर्मनगरी के पर्यटन विकास के पैरोकार हो चले हैं. कई होटल व्यवसायी भव्य मंदिर निर्माण के बाद के हालात में अयोध्या में मयखानों (बारों) के धंधे में बड़ी सम्भावनाएं देख रहे हैं और उन्हें खोलने की अनुमति के लिए अभी से प्रयासरत हैं. उनकी आंखें उस भविष्य पर हैं, जब मंदिर निर्माण के बाद अयोध्या देशी तो देशी, विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र होगी ओर वे यहां आकर पीने-पिलाने का अपना शौक पूराकर शराब का उपभोग बढ़ायेंगे.
आबकारी अधिकारियों के अनुसार होटलों में पीने-पिलाने के लिए बार के लाइसेंस हेतु होटल व्यवसायियों की लाइन लग रही है और जो लोग अभी तक आस्था के नाम पर अयोध्या की परिधि को शराबमुक्त रखने के हामी थे और इसकी मांग करके अपनी विरोधी सरकारों को ‘संकट’ में डालते रहते थे, उनकी जुबान तक नहीं खुल रही है, जबकि उनकी अपनी सरकार ने बार खोलने की राह में आ रहे नेशनल हाइवे से दूरी के मानक का अड़ंगा दूर करने के लिए अयोध्या नगर निगम सीमा का विस्तार कर होटल व्यवसायियों की बांछें खिला दी हैं. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि नगर क्षेत्र में नेशनल हाइवे से 250 मीटर के अंदर शराब की कोई दुकान नहीं होनी चाहिए.
ज्ञातव्य है कि अभी अयोध्या में फिलहाल, दो वार्डों में ही औपचारिक रूप से शराब निषिद्ध है. ये हैं रामकोट और रायगंज. कुछ साल पहले कई संतों-महंतों ने पूरी अयोध्या में शराब पर प्रतिबंध की मांग करते हुए सरकार को ज्ञापन भेजे थे. प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने के बाद वे अयोध्या की चौदह-कोसी परिक्रमा की परिधि में मांस-मदिरा प्रतिबंधित करने की मांग करते आ रहे थे, लेकिन अब नये हालात में वे समझ नहीं पा रहे कि कैसे रिएक्ट करें.
हां, कई हलकों में पूछा जा रहा है कि कारपोरेट के सपनों के अनुकूल विकसित भविष्य की अयोध्या में आम नागरिकों की हैसियत क्या होगी? खासकर उनकी, जिन्होंने दशकों तक मन्दिर-मस्जिद विवाद की पीड़ा झेली और साथ ही राम मन्दिर आन्दोलन के समय अनेक असुविधाओं की मार के बीच अपनी धरती पर बड़ी संख्या में आये ‘पाहुनों’ की आवभगत की है.
इतना ही नहीं, छह दिसम्बर, 1992 को हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद से साल दर साल हर संवेदनशील मौके पर प्रशासन के लगाये अनेक प्रतिबंध झेले हैं. यहां तक कि बीमारी की हालत में भी गंतव्य तक पहुंचने के लिए मीलों पैदल यात्रा की और सुरक्षा एहतियातों के चलते ट्रेनें व बसें छोड़ी हैं.
सत्ताधीश और मठाधीश कुछ भी कहें, इन आम नागरिकों को अपनी जिह्वा पर रहने वाले राम का अपनी आंखों के सामने बाजारवाद की लपलपाती जिह्वा के हवाले करना या ब्रांड के रूप में परोसा जाना शायद ही गवारा हो. अयोध्या की गंगा-जमुनी संस्कृति को उद्योग की तर्ज पर जन-आस्था के शेयर सूचकांकों के हवाले करना तो उन्हें और भी गवारा नहीं होने वाला.
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प्रसंगवश, पिछले दिनों फैजाबाद नगर स्थित डाॅ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय में इंडिया थिंक कौंसिल के सहयोग से त्रेतायुगीन अयोध्या को केन्द्र में रखकर बुलाये गये अवध मिथिला सम्मेलन में अयोध्या की पहचान को लेकर हुई चर्चा ने भी आम नागरिकों की चिन्ता में वृद्धि कर रखी है. कहते हैं कि उसमें एक वक्ता ने भगवान राम को ब्रांड के रूप में विकसित करने पर जोर दिया तो उनकी घोषणा का करतल ध्वनि से स्वागत हुआ. उसके बाद से ही कई लोग पूछ रहे हैं कि करोड़ों हिन्दू जिस राम के प्रति अपनी आस्था को अपने अभिवादन तक में प्रेम और विश्वासपूर्वक प्रदर्षित करते हैं, उसकी व्यापारिक ब्रांडिंग को उनकी आस्था के प्रति अवहेलनाकारक नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?
इस सिलसिले में एक ‘जिज्ञासा’ यह भी है कि अयोध्या मन्दिरों के बजाय रिसार्टों और पांच-सितारा होटलों की नगरी में बदल गयी तो किस प्रकार के अन्य व्यापारों को पनाह देगी? ओला और उबर जैसी टैक्सी सेवाओं के बीच पारम्परिक यातायात सुविधाओं की बदहाली व महंगाई तेजी से बढे़गी तो सामान्य जन पर क्या बीतेगी? फिर विकसित अयोध्या में कम पैसों में जीवन दूभर होगा, जो अभी इस मायने में ज्यादा दुश्वार नहीं है कि कहा जाता है कि वहां कोई भूखा नहीं सोता, तो जो लोग गुजर-बसर की नई कीमत वहन करने में अक्षम होंगे, उनके सामने पलायन के अलावा और क्या विकल्प होगा?
उनकी अपनी ‘कुटिया’ धनबलियों, बाहुबलियों या सरकारों की ‘महत्वपूर्ण’ योजनाओं की जद या नज़र में आ गई, तो करेंगे भी क्या? महानगरों जैसे जानलेवा प्रदूषण और हाशियाकरण की मार झेलते हुए वे अपने नसीब को कोसते रहेंगे या फिर कोई और ठौर तलाशेंगे? तब तक अयोध्या के कारीगरों द्वारा बनायी गयी मूर्तियों की जगह भी चीन से आयातित मूर्तियां ले चुकी होंगी!
फिलहाल, अभी जो हालात हैं, उनमें एक शायर के शब्दों में कहें तो बस्ती के सभी लोग हैं ऊंची उड़ान पर. कोई यह देख रहा है कि भविष्य में फुलझड़ियों, फव्वारों व फ्लाईओवरों के बीच जगमगाती अयोध्या के और साथ ही खुद उसके हिस्से में क्या-क्या आने वाला है, तो कोई यह अंदेशा झेल रहा है कि उस अयोध्या में उससे उसकी गुज़रबसर की रही-सही सहूलियतें भी छिनकर तो नहीं रह जायेंगी?
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)