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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतकोविड काल की गंगा की तस्वीर में चित्रकार ने कई कमियां छोड़ दी हैं, क्या प्रधानमंत्री मोदी उन्हें खोज पाएंगे

कोविड काल की गंगा की तस्वीर में चित्रकार ने कई कमियां छोड़ दी हैं, क्या प्रधानमंत्री मोदी उन्हें खोज पाएंगे

लॉकडाउन ने प्रधानमंत्री को एक मौका दिया है कि गंगा की तस्वीर से उन गलतियों को निकाल फेकें और देश की जनता के सामने वह तस्वीर रखे जो वो वास्तव में चाहते हैं.

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प्रधानमंत्री मोदी के सामने एक तस्वीर पेश की गई है. सोशल मीडिया, टीवी और मातहतों के माध्यम से यह तस्वीर उन तक पहुंची है. इस तस्वीर के चित्रकार हैं मीडिया और जलशक्ति मंत्रालय के अधिकारी. तस्वीर में दिखाया गया है कि कोरोना दौर में देश की सभी नदियां साफ हो गई है, खासकर गंगा की तस्वीर भरपूर फोटोशाप का इस्तेमाल कर परोसी गई है. देश की जनता तो व्हाटसएप पर आए ऐसे हर फोटो या विडियो को नमन करके देखती है.

लेकिन, इस लॉकडाउन ने प्रधानमंत्री को एक मौका दिया है कि गंगा की तस्वीर से उन गलतियों को निकाल फेकें और देश की जनता के सामने वह तस्वीर रखे जो वो वास्तव में चाहते हैं.

सबसे पहला तो यह कि प्रधानमंत्री अपने मातहतों के इस बयान पर भरोसा ना करें कि गंगा निर्मल हो गई है. निर्मल नहीं, गंगा का पानी आंशिक तौर पर साफ दिखाई दे रहा है, ये साफ होने और दिखाई देने का फर्क जानना जरूरी है.

यदि एक गिलास पानी में चार चम्मच चीनी घोल दिया जाए तो वह साफ नजर आएगा. लेकिन उसकी शुगर मात्रा अच्छी खासी बढ़ी होगी, वैसे ही यदि एक गिलास पानी में एक बूंद रूह अफजा डाल दिया जाए तो उसकी शुगर मात्रा में मामूली फर्क आएगा. लेकिन पानी का रंग बदल जाएगा. गंगा के साथ भी यही हो रहा है. गंगा में गिरने वाले औद्योगिक सीवेज में नब्बे फीसद तक गिरावट आई है इसका गंगा के प्रदूषण में योगदान कम है लेकिन यह विजुअली रिच है यानी फैक्ट्रियों से निकलता काला पानी गंगा के पानी के रंग को बदल देता है. अब यह काला पानी नहीं आ पा रहा. लेकिन घरेलू सीवेज जिसमें मानव मल की मात्रा होती है मैदानी इलाके में पहले की तरह ही आ रहा है और यही वह तत्व है जो पानी को सर्वाधिक प्रदूषित करता है लेकिन पानी के रंग में कोई बदलाव नहीं आता.


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गंगा की ऊपरी धारा का पानी कुछ जगहों पर आचमन लायक हो गया है तो उसका कारण चार धाम यात्रा का रूकना है. इंडस्ट्री नहीं, पहाड़ पर इंडस्ट्री वैसे भी नाममात्र की है. गंगा पथ पर मौजूद आश्रम और धर्मशालाएं भी इस समय खाली पड़े हैं, सरकारी मदद ने उनकी सीवेज लाइन बदली जा सकती है. इस आश्रमों की सीवेज लाइन सीधे गंगा में जाती है. अभी यात्रियों के ना होने से यह काम आसानी से हो सकता है.

प्रधानमंत्री जी को एजेंसियों से कहना चाहिए कि अपना डाटा दुरूस्त कर ले. ताकि सभी एजेंसियों के पास एक ही डाटा हो, अभी तो हाल यह है कि गंगा में वास्तव में कितने नाले गिरते है इसको लेकर ही सरकारी एजेंसियां एकमत नहीं है. सही और एकमत डाटा होने से नीतियां बनाने में मदद मिलेगी, लॉकडाउन में एनएमसीजी और सीपीसीबी दोनों ही एजेंसियां लगातार सैंपल ले रही है यदि वे इस डाटा को आपस में सांझा करेंगी तो प्रदूषण कारकों पर सटीक कार्यवाई की जा सकेगी.

गंगा की तस्वीर को बेहतर बनाने का एक उपाय उन फैक्ट्रियों को स्थाई रूप से बंद करना है, जिनका कचरा सीधे तौर पर गंगा में आता है इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत होगी. लॉकडाउन ने सरकार को मौका दिया है कि इन्हें स्थानांतरित किया जाए, प्रदूषण में इनका योगदान बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन निर्मल गंगा के लिए गंगा पथ से फैक्ट्रियों को हटाना ही होगा. नमामि गंगे के बजट से इन कारखानों से जुड़े मजदूरों की मदद की जा सकती है. नमामि गंगे सिर्फ स्कीमर के रखरखाव के लिए ही कंपनियों को लाखों रूपए देता है, जो पिछले कई महीनों से बंद पड़े हैं. यह बजट कारखानों को स्थानांतरित करने और कर्मचारियों को स्वाबलंबी बनाने के काम आ सकता है.

अभी पनबिजली कंपनियों पर भी दबाव कम है और अनुमान है कि आने वाले कुछ समय तक बिजली की मांग में कमी बनी रहेगी. यह कंपनियां बरसात के दौरान बैकवाटर एरिया ओवरफ्लो होने पर बांध के गेट खोलती हैं. यदि कंपनियों को अभी पानी छोड़ने को कहा जाए तो कोई तकनीकी और आर्थिक कारण आड़े नहीं आएगा. कंपनियां अभी पानी निकालेंगी तो गंगा स्व-उपचारित स्थिती में आ जाएगी, जिसका परिणाम लॉकडाउन के महीनों बाद तक नजर आएगा. कंपनियां यह दलील दे सकती है कि उन्हे कैचमेंट एरिया में एक लेबल तक पानी भरकर रखना होता है, ताकि टरबाइन चलाई जा सके लेकिन अभी तो किसी भी हाइड्रो पावर में पूरी क्षमता के साथ बिजली उत्पादन नहीं हो रहा. इसलिए गेट खोलने के लिए बारिश का इंतजार करना सही नहीं है.


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जिस दिन प्रधानमंत्री ने देशभर में नौ मिनिट ब्लैक आउट का प्रस्ताव रखा था, तब आशंका जताई गई थी कि बिजली की अधिकता से ग्रिड फेल हो सकता है. उस समय उत्तराखंड की जलविद्युत कंपनियों ने टरबाइन को रोका था, इसलिए पानी ना छोड़ने का कोई भी कारण एक बहाने से ज्यादा कुछ नहीं है.

इस समय देश में उत्पादन तकरीबन बंद है और यह क्षेत्र बीस लाख करोड़ में अपने लिए संभावनाएं तलाश रहा है. शुरूआती दौर में कंपनियां बड़ी पैकिंग के तेल– साबुन जैसे उत्पाद बनाएंगी ताकि मांग पूरी की जा सके. यही मौका है जब सरकार इन कंपनियों को छोटे पाउच पैकिंग बनाने से रोक सकती है, क्योंकि तेल, साबुन, शेंपू के एक–एक रूपए वाले पाउच ही नदियों की सांस नली में जाकर जम जाते हैं. गंगा घाट पर ये आसानी से मिलते है इसलिए लोग वहीं उपयोग कर गंगा में ही फेंक देते है, हर रोज यह संख्या लाखों में होती है.

प्रधानमंत्री इस तस्वीर को ध्यान से देखेंगे तो उन्हें गंगा में मछलियां नजर आएगी. ये मछलियां मैदानी इलाके में बेहद कम मात्रा में थी. प्रदूषण और अत्यधिक फिशिंग के चलते गंगा मछलियों से खाली ही हो गई थी. लेकिन बड़े स्तर पर फिशिंग पर रोक के कारण मछलियां नजर आ रही हैं. सरकार अब मछली मारने वाली संस्थाओं को एक निर्धारित माप का जाल उपयोग करने के लिए कह सकती है ताकि आधे किलो से कम वजन की मछली जाल में ना फंसे और गंगा की पारिस्थितकीय बनी रह सके.

यह उपाय हिल्सा बचाने के लिए पश्चिम बंगाल में शुरु किया गया था और काफी सफल रहा, आर्थिक स्थिती बढ़ाने के लिए बिहार के गंगा– सरयु क्षेत्र के दलदली क्षेत्रों में इस समय ध्यान दिया जा सकता है. ताकि मछली उत्पादन भी बढ़े और गंगा पथ भूजल भी रिचार्ज हो और गर्मी के दिनों में गंगा कीचड़ भरी बीमार नजर ना आए.

इन उपायों में भारी भरकम बजट की दरकार नहीं है, शायद इसलिए यह नौकरशाहों को पसंद ना आए. लेकिन प्रधानमंत्री के पास यह आखिरी मौका है कि वह निर्णय ले ताकि तस्वीर बेहतर और स्थायी बन सके.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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