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सोमवार, 9 जून, 2025
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कोरोना महामारी में बाजार का पीछे हटना और राज्यसत्ता की वापसी

जिस बाजार को दुनिया की हर समस्या का समाधान माना जा रहा था, उसने कोरोना महामारी के समय अपने हाथ खींच लिए. वहीं, सरकार, सरकारी अस्पताल, पीडीएस जैसी संस्थाओं की उपयोगिता फिर से साबित हुई है.

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कोरोनावायरस से फैली महामारी इस समय पूरी दुनिया में तेज़ी से फैल रही है. धर्म, रंग, नस्ल, भाषा, लिंग, जाति आदि के रूप में तैयार की गयी इंसानी दीवारें भी महामारी को रोकने में नाकामयाब साबित हुई हैं. अब इंतज़ार किया जा रहा है कि कब वैज्ञानिक इसकी कोई काट ढूंढ़ लें. लेकिन इस बीच एक और बहस चल पड़ी है कि कोरोना महामारी के समाप्ति के बाद की दुनिया कैसी होगी? ये सवाल इस लिए उठ रहा है कि क्योंकि इस वैश्विक महामारी ने कई स्थापित व्यवस्थाओं औऱ मान्यताओं को अस्त-व्यस्त कर दिया है.

इस बहस के एक पक्ष की शुरुआत हमारे समय के महत्वपूर्ण और लोकप्रिय लेखकों में से एक युवाल नोवा हरारी ने की है, जिनके अनुसार अब दुनिया को अधिनायकवादी निगरानी बनाम नागरिक सशक्तिकरण और राष्ट्रवादी अलगाव बनाम वैश्विक एकजुटता में से चुनना पड़ेगा. हरारी के अनुसार कोरोना के बाद दुनिया भर के देश अधिनायकवादी निगरानी और राष्ट्रवादी अलगाव का रास्ता भी अख़्तियार कर सकते हैं, जोकि काफ़ी ख़तरनाक साबित हो सकता है.

हरारी जिस ख़तरे की तरफ़ इशारा कर रहे हैं, उसे हम राजनीति विज्ञान की भाषा में ‘आधुनिक राज्य-सत्ता की वापसी’ के तौर पर समझ सकते हैं. इस लेख में हम ‘आधुनिक राज्य की वापसी’ को सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करेंगे और साथ ही यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि इसकी वापसी से आम लोगों के जीवन में क्या बदलाव आ सकता है?

सबसे पहले आधुनिक राज्य की अवधारणा को समझते हैं, फिर बात करेंगे कि आधुनिक राज्य की शक्तियों को मुख्य रूप से कब-कब चुनौती मिली और वह उन चुनौतियों से निकलकर कैसे शक्तिशाली होता चला गया? इस लेख में राज्य का अर्थ भारत में इस्तेमाल होने वाला प्रांत नहीं है. बल्कि इसे राजनीति विज्ञान की शब्दावली के अर्थ में लिए गया है, जिसका अर्थ मोटे तौर पर राज्य की सत्ता से है, जिसका एक अंग सरकार भी है.

आधुनिक राज्य की अवधारणा

जब हम किसी चीज़ या विचार के आधुनिक होने की बात करते हैं, तो उसके मूल में यह तथ्य होता है कि उसकी खोज या उसकी स्थापना मनुष्य ने अपनी तर्कक्षमता से की है. आधुनिक राज्य के मामले में भी यही बात है. इसकी शुरुआत को समझने के लिए ब्रिटिश दार्शनिक थॉमस हॉब्स की किताब लेविआथन को सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है. थॉमस हॉब्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत को सोशल कॉन्ट्रैक्ट का सिद्धांत कहा जाता है, जिसके अनुसार राज्य की उत्पत्ति मनुष्यों के बीच हुए आपसी समझौते की वजह से हुई है, जिसमें सभी मनुष्यों ने अपने ‘जीवन के अधिकार’ के सिवाय सभी अधिकार अपने द्वारा निर्मित एक संस्था को सौंप दिया, जिसे राज्य कहा जाता है. चूंकि राज्य का निर्माण सभी मनुष्यों की शक्ति को समाहित करके हुआ है, इसलिए उसकी शक्तियां असीमित हो जाती हैं. असीमित शक्तियों की वजह से ही हॉब्स ने आधुनिक राज्य को लेवियाथन कहा, जिसका मतलब होता है असीमित शक्तियों वाला.


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आधुनिक राज्य एक समझौते के तहत मानव निर्मित (ईश्वरीय नहीं) है, इस बात को आगे दार्शनिक जॉन लॉक और रूसो ने भी थोड़े सुधार के साथ आगे बढ़ाया.

आधुनिक राज्य की सर्वोच्चता को मिली चुनौतियां

आधुनिक राज्य के पास असीमितशक्तियां होने की वजह से ही जर्मन दार्शनिक हीगल ने आधुनिक राज्य को धरती पर भगवान का अवतार तक की संज्ञा दे दी. राज्य की असीमित शक्तियों को आगे चलकर बड़ी चुनौती अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ ने दी, जिनके अनुसार बाजार में अदृश्य प्राकृतिक शक्ति होती है, जो कि मांग, आपूर्ति और प्रतियोगिता के बीच खुद-ब-खुद संतुलन बना लेती है, बशर्ते उसमें हस्तक्षेप न किया जाए.

स्मिथ के इस सिद्धांत के मुताबिक बाजार को प्राकृतिक मान लिया गया, और उसमें किए जाने वाले बाहरी हस्तक्षेप को प्रकृति के नियम में हस्तक्षेप बता दिया गया. चूंकि प्रकृति और उसके नियम मानव के ऊपर हैं, इसलिए मानव द्वारा निर्मित आधुनिक राज्य को भी बाजार में हस्तक्षेप की मनाही हो गयी. इस सिद्धांत की लोकप्रियता लगातार बढ़ती चली गई और इस तरह आधुनिक राज्य पर दबाव बनता चला गया कि वह बाजार में हस्तक्षेप न करे और उसे अपने मुताबिक काम करने दे.

आधुनिक राज्य के बाजार से हाथ खींचने का परिणाम यह हुआ कि 1929 में बहुत बड़ी वैश्विक मंदी आ गयी तो बाजार उससे निबटने में अक्षम साबित हुआ. जिस समय बाजार आधारित अर्थव्यवस्था वैश्विक मंदी की चपेट में थी, उसी समय सोवियत संघ में राज्य द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ रही थी. सोवियत संघ की सफलता से यह तर्क मजबूत हुआ कि बाजार में कोई अदृश्य प्राकृतिक शक्ति नहीं होती. अतः अर्थव्यवस्था में आधुनिक राज्य का हस्तक्षेप ज़रूरी है.

मुक्त बाजार से लोककल्याणकारी राज्य की यात्रा

अब सवाल यह उठा कि राज्य को अर्थव्यवस्था में प्रवेश किस प्रकार दिया जाए? इसका समाधान ब्रिटिश अर्थशास्त्री जेएम कीन्स ने निकाला और बताया कि राज्य को कैपिटल गुड्स यानी इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़क, पानी, शिक्षा आदि का काम देखना चाहिए और बाजार को कंज़्यूमर गुड्स- खाना, पानी, कपड़े जैसे क्षेत्रों को देखना चाहिए. बाजार को चलाने के लिए केंद्रीय बैंक बनाए जाएं, जो कि सरकार से स्वतंत्र होकर इसके लिए मौद्रिक नियम यानी मॉनिटरी पॉलिसी बनाए. कुल मिलकर 1929-39 की वैश्विक महामंदी के बाद आधुनिक राज्य का अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप बढ़ा.

द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई तबाही ने भी अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप की मुहिम को तेज किया, जिसकी वजह से आधुनिक राज्य लोकल्याणकारी राज्य के रूप में अवतरित हुआ जिसका काम नागरिकों को भोजन, आवास, रोज़गार, स्वास्थ्य आदि मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करना माना गया. कल्याणकारी राज्य की वजह से बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दुनियाभर में आर्थिक असमानता में कमी आई और जीवन स्तर में व्यापक तौर पर सुधार आया.

वैश्वीकरण की शुरुआत और राज्य का पीछे जाना

आधुनिक राज्य के कल्याणकारी अवतार ने भले ही बीसवीं सदी के मध्य में आर्थिक असमानता को कम किया लेकिन दुनिया को मंदी की चपेट से नहीं बचा सका. 1967 में आयी वैश्विक वित्तीय मंदी की वजह से एक बार फिर से मुक्त बाजार आधरित अर्थव्यवस्था की मांग ने ज़ोर पकड़ा. मिल्टन फ़्रीडमैन, एफए हाएक, रोबार्ट नोजिक जैसे दार्शनिकों/अर्थशास्त्रियों ने राज्य द्वारा अर्थव्यवस्था में किए जा रहे हस्तक्षेप को वित्तीय मंदी का कारण बताया, क्योंकि राज्य वैश्विक संस्थाओं से लोन ले रहे थे और उस पैसे से कल्याणकारी स्कीमें चला रहे थे.

वित्तीय मंदी के बाद मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का सिद्धांत मजबूत हुआ, जिसे ब्रिटेन में मार्ग्रेट थैचर और अमेरिका में रोनल्ड रीगन ने कड़ाई से लागू किया. इन दो महाशक्तियों के बाद बाक़ी देशों ने भी मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था पर ज़ोर दिया.


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भारत में तो मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था का सिद्धांत 1991 के बाद से ही प्रभावी है. ये सिद्धांत इतना हावी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के समय नारा लगा दिया कि ‘गवर्नमेंट का बिज़नेस में कोई काम नहीं है. चूंकि जनता ने उनको चुना इसलिए यह माना जाना चाहिए कि जनता ने उनकी इस नीति को न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि इसे समर्थन भी दिया.

मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को कोरोना से झटका

कोरोना महामारी के समय दुनियाभर में बाजार को बंद करना पड़ा है. इस महामारी के समय जिस तरीक़े से बाजार ने व्यवहार किया है, जैसे खाने-पीने की वस्तुओं का अभाव और कई बार अचानक मूल्य वृद्धि या ज़रूरी सेवाओं का स्थगित होना आदि, इसकी वजह से लोगों की दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सरकार (राज्य) को आगे आना पड़ा है.

इस महामारी ने एक बार फिर साबित किया है कि वैश्विक समस्या या संकट से बाजार अपने दम पर नहीं निपट सकते. इसको हम दुनियाभर में स्वास्थ सेवाओं की स्थिति और भारत के पीडीएस से समझ सकते हैं. इस महामारी के समय प्राइवेट अस्पताल/नर्सिंग होम मरीज़ों का इलाज करने से पीछे हट रहे हैं, वहीं सरकारी अस्पताल इस काम में डटे हुए हैं. इसी प्रकार भारत में लम्बे समय से पीडीएस में भ्रष्टाचार का हवाला देकर इसे समाप्त करनी की मांग की जाती रही है. इसके पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता रहा है कि अनाज की जगह सीधे लाभार्थी के हाथ में पैसा दे दिया जाए, ताकि वह बाजार से अनाज ख़रीद ले.

कोरोना के दौर में इस तरह के तर्कों की धज्जियों उड़ गयीं क्योंकि बाजार से समान ग़ायब हो गया या फिर महंगा हो गया. ऐसे में अगर सरकार ने पीडीएस जैसे व्यवस्था को समाप्त कर दिया होता, तो वो आज चाहकर भी लोगों को अनाज उपलब्ध नहीं करा पाती. टूटा-फूटा पीडीएस आज एक उपयोगी साधन बन गया है.

कुल मिलाकर कोरोना की वजह से राज्य द्वारा अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप को एक बार फिर नैतिक बल मिला है और बाजार की सीमाएं सामने आई हैं. इस महामारी की समाप्ति के बाद भी इन बातों का असर लंबे समय तक महसूस किया जाएगा.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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